12/30/2007

पृथ्वी पर गहराता जलवायु संकट



आगरा से छपने वाले अकिंचन भारत के सम्पादकीय पेज पर अग्रलेख मी मेरा एक लेख २५ दिसम्बर,२००७ को छपा है। 'पृथ्वी पर गहराता जलवायु संकट ' नामक इस लेख में कुछ खास विन्दुओं पर गौर फ़रमाया गया है। दो भागों में हूबहू लेख आपके सामने है।.... विनीत


पृथ्वी पर गहराता जलवायु संकट


विनीत उत्पल

पिछले दशक से अंतरारास्त्रीय जगत में जलवायु परिवर्तन को लेकर पर्यावरणविदों की चिंताएँ उभर कर सामने आयी हैं। कभी वायुमंडल में ग्रीन हॉउस गैस कार्बन दी आक्साइड की मात्रा तो कभी दक्षिणी समुद्र की हवाओं में हो रहे परिवर्तन से भी वैग्घनिकों को गहरे स्तर पर सोचने के लिए मजबूर किया है। यदि जलवायु के विभिन्न पहलुओं को देखा जाये तो पिछले दस वर्षों में उत्तरी भूभाग में स्थित समुद्रों की कार्बन आक्साइड सोखने की छ्मता घटी है। समुद्र के जलस्तर में बढोतरी हो रही है। बावजूद इसके दुनिया के कई इलाके ऐसे हैं, जहाँ लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। इतना ही नही, लोगों के शरीर के प्रतिरोधक छ्मता में भी लगातार कमी आ रही है।

जलवायु परिवर्तन से जुडे कई मसलों को लेकर इंडोनेशिया के बली में तीन दिसम्बर को पूरी दुनिया के बडे-बडे दिग्गजों ने बैठक की। विभिन्न मामलों पर जमकर बहस हुई, मतभेद भी उभरकर सामने आये। बातचीत हुई, सहमती बनी, कई मुद्दे अनछुए भी रहे। बैठक में जिन मामलों पर बातचीत हुई और सहमति हुई, उन पर विचार-विमर्श अभी भी चल रह है। लेकिन इससे इतर, बैठक के ठीक छः दिन पहले २७ नवंबर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा पूरी दुनिया में जरी ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट २००७--०८ की रिपोर्ट काफी चौकाने वाली हैं। इस रिपोर्ट को ब्राजील में एक भव्य समारोह में वाहन के राष्ट्र पति इनको लूला द सिल्वा और सपन के इंटर नेशनल कोर्पोरेशन के राज्य सव्हिब लेयर पेजिन ने जारी किया।

जारी....

आभार- अकिंचन भारत, आगरा

12/27/2007

आख़िर किस हाड मांस की बनी है किरण बेदी


आखिरकार किरण बेदी पुलिस की नौकरी छोड़ थी। भारतीय पुलिस सेवा की अपनी 35 साल के दौरान उन्होने जिस तरह कई बेहतरीन काम कया और अक्सर खबरों में रही यह सभी के लिए यादगार रहेगा।

बचपन में जेनरल नोलेज याद करते समय देश की पहली आईपीअस का नाम किरण बेदी को याद करता रह , लेकिन दैनिक जागरण में कालम लिखने के दौरान उनसे बातचीत और रांची से निकलने वाले अख़बार प्रभात खबर में उनके बारे में मैंने जीना ऐसे सीखा कालम में लिखने के दौरान उन्हें जाना। उनकी कड़क आवाज और अलग सोच भीड़ से अलग करती है।

आज इंटरनेट खंगालते-खंगालते अचानक जागरण में लिखा मेरा कालम दिख गया। उसे पढ़ते समझ में आने लगा की किरण बेदी का पुलिस नौकरी छोड़ना आश्चर्य नहीं है। क्यों न आप भी इसे पढें। पेश है उनसे बातचीत; मूल्यों से समझोता करके सफलता तो पाई जा सकती है। पद और पैसा भी कमाए जा सकते हैं पर इससे आंतरिक ख़ुशी नहीं मिल सकती है। सही कदम जहाँ आपको सफलता दिलायेंगे वही गलत कदम सबक होंगे।


खुद लें अपने निर्णय


भारत की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी ने १९७२ में इस सेवा में आने के बाद अपनी काय्र्कुशालता का लोहा मनवा दिया । वह एशियन टेनिस चैम्पियन भी रही। उन्हें मैग्सेसे अवार्ड, जर्मन फौंदेस्शन के जोसेफ ब्यास अवार्ड के अलावा मदर टेरेसा अवार्ड और फिक्की अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चूका है। इस बार जोश के पाठकों को सफलता का सूत्र बता रहीं हैं सुश्री बेदी-

क्लिक करें-
खुद लें अपने निर्णय

11/25/2007

तसलीमा तो मात्र बहाना है


तसलीमा तो मात्र बहाना है



बंगलादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा को जिस तरह कोलकता से जयपुर और जयपुर से दिल्ली ले जाने का नाटक रचा जा रह है, वह वास्तव में भारत जैसे देश के लिए शर्मनाक है। पूरे देश को इस मामले मन बरगलाया जा रह है और नंदीग्राम की ओर से ध्यान विमुख किया जा रहा है।


अभी तक तसलीमा से मेरी दो बार मुलाक़ात हुई है। पहली बार जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ाई करते वक्त हुई थी। दिल्ली के प्रगती मैदान में पुस्तक मेला लगा था। संजोग वश वाणी प्रकाशन में कुछ मित्रों के साथ वही था। क्लास के द्वारा पेपर निकालने की योजना पर भी काम चल रह था। मेरे दिमाग में पता नही किया सूझी मैं उनसे बात करने और अपनी पेपर के लिए बात कर लिया। इस क्रम में मेरी सहायता मेरे गुरु रहे फिल्म मेकर ने की। हमने तसलीमा की पंकित्यों को छापा।


दूसरी बार रायपुर में दैनिक भास्कर के लिए बात की थी। रायपुर के पिकेद्ली होटल की वह शाम आज भी याद है। बातचीत का पूरा rikard टेप में है। अपनी पुस्तकालय से कभी निकाल ब्लोग पर आपकी सामने दूंगा, लेकिन कुल मिल कर यही कहूँगा की तसलीमा के साये में जो राजनीती की जा रही है वो गलत है।


मेरी तस्वीर




देख भाई इन्सान कैसी सूरत दी भगवान

11/20/2007

सामा चकेबा

काफ़ी अरसे बाद आज ब्लॉग की दुनिया मे घूमते हुए, सामा चकेबा के बारे में पढ़ने को मिला. देखते ही देखते गाँव की याद आ गई. बचपन की याद तो फिर कभी लेकिन सामा छकेबा के बारे में मुंबई में रहने वाली विभा रानी ने अपने ब्लॉग 'बस यूँ ही नहीं' पर कुछ यूँ बयान किया है. हूबहू आपके सामने है.... विनीत



सामा चकेबा

मिथिला में बहनें भी के लिए एक अद्भुत खेल खेलती हैं। कार्तिक सुदी ५ से इसे खेला जाता है और पूर्णिमा के दिन इसका समापन होता है। महिलाएं व लडकियां एक ग्रुप में इसे हर रात खेलती हैं। इसका पूरा आनंद इसे देखकर व इसमें शामिल होकर ही लिया जा सकता है।


द्वापर युग की कथा है। आगे इस अवसर पर गाए जानेवाले कुछ गीत भी हम इसमें देंगे) राजा जाम्बवंत ने अपनी बेटी जाम्बवंती की शादी श्री कृष्ण से की, जिससे उन्हें एक बेटा और एक बेटी हुए। इनके नाम थे- शाम्ब व शाम्बा।

शाम्बा का प्रेम चारुक्य नामक युवक से हुआ। चूडक नाम के चुगलखोर ने इसकी शिक़ायत कृष्ण से कर दी। उन्होंने शाम्बा को श्राप दे दिया कि वह चकवी पक्षी बनकर सारे समय आकाश में विचरती रहे। यह देख चारुक्य ने शिव की तपस्या कर के शाम्बा को फिर से मानव रूप का वर माँगा। मगर शंकर ने कहा कि भगवान कृष्ण का श्राप वे नहीं बदल सकते, मगर वे उसे भी चकवा पक्षी बनाकर आकाश में शाम्बा के साथ विचरने का वर दे सकते हैं। वे दोनों अब आकाश में विचरने लगे।

आकाश में निरंतर विचरने से उनकी हालत खराब होने लगी। सात भाइयों के पक्षी दल उन्हें दाना उड़ते उड़ते चुगाते और अपनी पीठ पर उन्हें बिठा कर खुद उड़ते रहते। बहन के इस हाल से शाम्ब बहुत दुखी था। वह वृन्दावन में जाकर भगवान विष्णु की आराधना करने लगा ताकि वह उन दोनों को मनुष्य रूप में वापस ला सके। चूड़क ने वृन्दावन में आग लगा दी।

शाम्बा का प्यारा कुत्ता झांझी अब शाम्ब के साथ रहता था। आग लगाते चूड़क का उसने मुँह नोच लिया और मुँह में पानी भर भर कर आग बुझाई। शाम्ब की तपस्या सफल हुई। पर कृष्ण ने उन्हें अपने राज्य में आने की अनुमति नहीं दी।

शाम्ब ने उन्हें राज्य के बाहर एक जुते खेत में ठहराया। उसके स्वागत में गीत गए- साम -चक , साम चक अबिहे हे, जोतला खेत में बैसिहे हे ... शाम्बा और चारुक्य को लोग दुलार से सामा- चकेबा कहने लगे। चकेबा की एक बहन थी- खरलीच।

भाई- भाभी को पाकर वह बड़ी प्रसन्न हुई। चूडक को शाम्ब ने श्राप दिया कि उसकी चुगलखोर प्रवृत्ति के कारण लोग उसका मुँह जलाएंगे और समाज में उसे कभी भी सम्मान नहीं मिलेगा।

शाम्ब ने यथा संभव धन धान्य देकर बहन- बहनोई को विदा किया। भाई- बहन के इसी उदात्त प्रेम को इस खेल में व्यक्त किया जाता है।

10/24/2007

मीडिया नही धोखा, आप देते ख़ुद को धोखा

आज के दौर में कई लोग मीडिया पैर अनाप शनप लिख ख़ुद को होशियार दिखाने लगे हैं. ना तो उन्हें स्टोरी क्या है वह पता है और ना ही मीडिया की छोटी से जानकारी. लिखंगे ऐसे जैसे सिर्फ़ उन्हें ही सब खुच मालूम हों. ख़ुद तो इतनी हिम्मत नही की अपने संस्थान में उनके साथ जो ग़लत हो रहा हो उसके खिलाफ़ आवाज़ उठा सकँ. और दूसरे को जाम कर उपदेश देंगे. आक ओर जहाँ मीडिया में सीनियर पैसे के खातिर कुछ भी कर लें, लेकिन नाइ पत्रकार को ख़ूब नैतिकता का पाठ पदाएंगे.

सवाल
यह है की मध्यम परिवार का वह युवा जिसने अपने परिवार के लोगों को एक जून की रोटी खाकर पैसे बचा कर उसे पढाई के लिए पैसे भेजते देखा है, वह किस हद तक पत्रकारिता की नैतिकता का ढोल पीटेगा। फिर मीडिया की चका चौंध से कब तक खुद को दूर रखेगा। बरखा दत्त, राजदीप सर देसाई, पुण्य प्रसून वाजपेयी, आशुतोष, देवांग, पंकज पचौरी कब तक इन युवाओं को आकर्षित करेंगे। मीडिया का तिलिस्म उनके आखों के सामने एक न एक दिन टूटेगा।


फिर वही होगे जो धीरे- धीरे दिखना शुरू हो गया है। मीडिया मी काम करने वाली लडकी का एमएमएस सभी के मोबाइल पर होगा, कम नहीं कर पाने का एवज में ऑफिस में बौस की चमचागिरी, घर से हर रोज कुछ बना कर बौस और उनके आसपास के लोगों खो खिलाना, अपने दोस्त को धोखा दे आगे निकलने की कोशिश करना आदि। इसमें सफल नही हुए तो मौत तो अन्तिम उपाय है ही।


ऊँचे सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन उसे सही तरीके से पाना यह खास बात है। काबिलियत होगी तो आप लम्बी दौर तक बने रहेंगे, नही तो आने वाले दिन में कोई नाम लेने वाला नही रहेगा। मीडिया के इस तिलिस्मी दुनिया में वही रहेंगे जिसने मन से काम किया हो। काम बोलता है। यही आपकी पहचान है।


ब्रांड बनिए, ब्रांड आपके पीछे भागेगा। चुगलखोरी और चमचागिरी से खुच नही होनेवाला है। अपने कन्धों का सहारा दूसरे को दीजिए, दूसरे के खंधों के सहारे कब तक। कम से कम उसका गला तो मत दबी जिसने जिन्दगी में कभी अपने कन्धों पर आपको बिठाया।

10/20/2007

अधिकार यात्रा में मौत

जल जंगल और जमीन का अधिकार गरीबों को दिलाने का संकल्प लेकर ग्वालियर से निकले २५ हजार सत्याग्रही जिस वक्त मत्र्हुरा के चौमुहं गाँव से यात्रा शुरू करने वाले the, aek त्रौला ह्र३८-७४६२ उन पर चढ़ गया। नेशनल हाईवे पर हुई इस दुर्घटना में तीन लोगों की मौक़े पर ही मौत हो गई। दर्जन भर घायल हो गए। अक महिला पद यात्री समत दस घायल को लोकल हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया है।


जानकारी के अनुसार मरने वालों मी ग्वालियर के नया गाँव के रामवरण, लाक्स्मन ४०, कोसेंगे ४० शामिल हैं।

घायल cचतरा के महाराज सिंह, ब्रजलाल,नवला , रामहेत, माखन,बल किसान, गुड्डी, भूरा हैं।

9/09/2007

तुम न होते तो हम

अक्सर जिन्दगी की राहों में कुछ ऐसे मोड़ आते हैं जब किसी का साथ हौसला देता है। पुराने दर्द को भुलाने में मदद करता है। हमसाया ऐसा जो नए एहसास को पैदा कर जिन्दगी की विकट राहों पर चलना आसान कर देता है। जीवन की इस भुलभुलिया की नजाकत समझते हुये दिनेश कुछ यूं बयां करते हैं...

इतनी तन्हाईयाँ थी मर जाते
तुम न होते तो हम बिखर जाते

कोई अपना भी रास्ता तकता
शाम ढलते ही हम भी घर जाते

तू नए जख्म फिर भले देता
जो पुराने थे तो मर जाते

हैं अभी औरों के जैसे हो जाता
पर ये अहसास मेरे मर जाते

हम जहाँ से चले थे, लौट आये
और जाते भी तो किधर जाते.

9/08/2007

हौसला जो परों में रखते हैं

आज फिर दिनेश रघुवंशी के ग़ज़ल में मस्त होते हैं, कुछ यूं...

हौसला जो परों में रखते हैं
आसमान ठोकरों में रखते हैं

जान लेते हैं जो हदें अपनी
पांव वे चादरों में रखते हैं

अपने मन में बसा लिया उसको
सब जिसे मंदिरों में रखते हैं

लोग कैसी पसंद वाले हैं
खुशबुओं को घरों में रखते हैं

वे ही अब रहजनों में शामिल हैं
हम जिन्हें रहबरों में रखते हैं।

9/04/2007

शायर की सोच का बुनियादी फर्क और दिनेश रघुवंशी

आम आदमी और एक शायर की सोच का बुनियादी फर्क तो अहसास का ही होता है। आम आदमी जिन्दगी जीता है, शायर अहसास जीता है। आम आदमी की जिन्दगी में अहसास आते हैं, चले जाते हैं। शायर की जिन्दगी अहसास की जमीं पर तहर kar रूक जाती है। बेबसी, तिश्नगी, मजबूरी और खामोशी किसकी जिन्दगी में नही आते। मगर इन अह्सासात का जिन्दगी होकर रह जाना सिर्फ और सिर्फ एक शायर की सोच के लिए ही मुमकिन है।
मजबूरी औरों के जैसा होने में नहीं है, मजबूरी है अह्सासात को जिंदा रखने की। अपने अहसास को जिंदा रखना कोई आसान खेल नहीं है। इसके लिए आदमी को वह सब कुछ सहना पड़ता है जो गुजरे तो पत्थरों के दिल भी दहला दे, फिर आदमजात की तो बिसात ही क्या?
दिनेश रघुवंशी फरीदाबाद में रहते हैं.इनकी गजलगोई कि एक खास सिफत यह है कि वे अपनी अशआर को इतनी नफासत-नजाकत से सजाते हैं की उनके कंटेंट को समझने के लिए अहसास के दरवाजे खुले रखना बेहद जरुरी है। भाषा, शैली और शबद- चयन में उनकी संवेदनाओं के अनुगूँज दूर तक सुनाई पड़ती है। बानगी देखें।

तेरी जादूगरी पे हँसता हूँ

तेरी जादूगरी पे हँसता हूँ
या मैं अपनी खुदी पे हँसता हूँ

जिन्दगी तू रुला नहीं पाई
मैं तेरी बेबसी पे हँसता हूं


सब मेरी सादगी पे हँसते हैं
और मैं सबकी हंसी पे हँसता हूँ

ये भटकना तो उम्र भर का है
अपनी आवारगी पे हँसता हूँ.

जिन्दगी मुझपे रोज हंसती थी

आज मैं जिन्दगी पे हँसता हूँ.




8/05/2007

मुलाक़ात पी साई नाथ से

पी साई नाथ के चहरे और लेखन से भले ही आज के नए पत्रकार अनजान हो लेकिन मैगसेसे अवार्ड मिलने ले वे लोगों के नजर में आ गए। उनको अवार्ड मिलना आने वाले पत्रकारों को नई दिशा देने का कम करेगा। जहाँ सभी समाचार चैनल भूत, प्रेत और मनोरंजन को त्वोज्जो दे रहे हैं। रविवार को उनसे बातचीत हिंदुस्तान और नव भारत टाईम्स में प्रकाशित हुआ है। जारी...

फ्रेंड का दिन है यानी फ्रेंडशिप डे

फ्रेंड का दिन है यानी फ्रेंडशिप डे . बीते दिन को याद करता हूँ तो पता चलता है कि जीवन के हर मोड़ पर दोस्त की जरुरत होती है। यह अलग मामला है कि अधिकतर दोस्ती स्वार्थ के धरातल पर टिकी होती है। पुरानी कहावत है, पूरी जिन्दगी में एक दोस्त मिल जाये तो जीवन सफल समझो। पर आज सच्चे दोस्त कहॉ और दोस्ती कहॉ।
स्वार्थपरक और मतलबी दुनिया में स्वार्थ पूरा होने पर आज के तथाकथित दोस्त जान के दुसमन बन जाते हैं। मेरे दिल्ली आने पर जामिया और भारती भवन में अध्धयन के दौरान कई दोस्त बने। पत्रकारिता और शांति स्थापना से सबंधित कोर्स के दौरान भी दोस्त बने। बिहार, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छ्ग, आंध्र सहित सभी पूर्वोत्तर राज्यों में दोस्त हैं। कुछ अच्छे दोस्त हैं, कुछ गाहे-बगाहे याद भी करते हैं। विपरीत परिस्थिति में सहायता करने का लिए भी तैयार होते हैं।
इसी धरती पर ऐसे भी दोस्त मिले जो अपना स्वार्थ पूरा होने पर बेहतर दोस्ती का दामन छोड़ देखकर मुहँ टेडा करने को अपनी शान समझते हैं।पीठ पीछे मजाक उड़ाने में भी नहीं चुकते। बंधुओं, यह दुनिया ऎसी हैं।

7/24/2007

नेताजी का इंटरव्यू

पिछले दिनों अपनी छोटी सी लाइब्रेरी में उलटते-पलटते नजर सफेद रंग की पुरानी डायरी पर पड़ी। पुरानी यादों को ताजा करते हुए नजर नेताजी का इंटरव्यू नामक कविता पर गई। यह कविता मैंने २८ जुलाई १९९९ को लिखी थी। जहां तक स्मरण शक्ति पर दबाव डालता हूं तो शायद यह कविता भागलपुर में रहने के दौरान लिखी गई थी। सोचने के लिए विवश होता हूं कि इस कविता को मैंने उस दौर में लिखा था जब ना तो मैंने कभी सोचा था कि पत्रकारिता में आउंगा और न ही साहित्य में रूचि थी। साइंस का छात्र था और उसी दुनिया में मस्त था। हूबहू कविता आपके सामने है। आज के दौर में भी प्रासंगिक है। ...विनीत

नेताजी का इंटरव्यू

एक पत्रकार ने एक नेता से सवाल किया
सांसद बनने का क्या है राज
नेताजी मुस्कराए और बोले
चूकि मेरे इलाके में है नपुंसकों का समाज।

दूसरा सवाल था
नेताजी क्या होगा आपका सबसे पहला काम
नेताजी पान चबाते हुए जवाब दिया
लिखवाउंगा घोटालेबाजों में अपना नाम।

पत्रकार ने पूछा
आप अपने कोष से किस काम में देंगे पैसा ज्यादा
नेताजी अपराधी टाइप के एक व्यक्ति से कंधा मिलाकर बोले
जिस काम से अपराधियों का होगा फायदा।

अगला सवाल पत्रकार ने दागा
इस बार मंत्री पद पाने की बारी किसकी
नेताजी शराब का घूंट लेते हुए कहा
जिस सांसद के पास होगा ज्यादा व्हीस्की।

पत्रकार बौखलाया और अगला सवाल दागा
इस बार प्रधानमंत्री बनने की किसकी है बारी
नेताजी अपना मुंह बगल में बैठी एक लड़की के गाल से सटाते हुए कहा
जिसके साथ होगी सबसे ज्यादा चरित्रहीन नारी।

खुशी-खुशी आया था इंटरव्यू लेने नेताजी का पत्रकार
लौट रहा था खीज कर लेकिन सोच रहा था
कल सबसे ज्यादा बिकेगा हमारा अखबार।

7/22/2007

मीडिया की अबूझ पहेली

कितनी बातें सच हैं कितनी नहीं इसका आंकलन करना इतना आसान नहीं होता। जिस गंभीर पत्रकारिता की बात को लेकर बहस जारी है क्या इसकी जिम्मेदारी सिफॆ न्यूज चैनल की है। अधिकतर चैनलों में वरिष्ठ पदों पर बैठे लोग क्या दूसरे ग्रहों से आए प्राणी हैं। यकीन मानिए इन लोगों में अधिकतर प्रिंट में काफी कलम घिसे हैं। सारा दोष
टीवी चैनलों को नहीं दिया जा सकता। क्या इस बात का कोई जवाब दे सकता है कि प्रिंट में फीचर नहीं छपती है। प्रिंट के पास पेज बढ़ाने का आप्शंस होता है। वे गंभीर समाचारों के लिए कुछ पेज निधारित कर सकते हैं। फीचर स्टोरी के लिए अलग से चार पेज शामिल किया जा सकता है। विशेष मौके पर पेज तुरंत बढ़ाया जा सकता है। बच्चों का कोना भी होता है। ज्योतिष और भूत-प्रेत के लिए भी जगह होता है। हां यह बात और है कि लोग न्यूज पेपर को संभालकर जुगाली कर पढ़ सकते हैं।
दूसरी तरफ टीवी न्यूज चैनलों की दुनिया कुछ और ही होती है। चौबिस घंटे के समय में ही उन्हें सारा कुछ दिखाना होता है। गंभीर समाचारों के लिए भी समय चाहिए। मनोरंजन के लिए भी समय चाहिए। सभी वगों द्वारा देखे जाने वाले समाचार चाहिए। फिर प्रिंट पत्रकारिता के इतने साल बीतने के बाद भी गलतियां हो रही है तो भारत में बमुश्किल से दस साल हुए टीवी मीडिया को दोष देने के पीछे इतना हायतौबा क्यों मचाया जा रहा है।
समय बदल रहा है। बदलने की काफी गुंजाइश है। अभी तो सारे मामले में प्रैक्टिकल हो रहा है। धीरज धरिए। कालांतर में सारी बातें समझ में आने लगेगी और हासिए से बाहर रह रहे लोगों की आवाजें दुनिया के हर कोने में सुनाई देगी। और फिर बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी।

7/20/2007

यह कैसी मौत है

पूरे देश की नजर गुरुवार को राष्टपति चुनाव के गहमागहमी की ओर थी। दूसरी ओर दिल्ली सहित एनसीआर में घटी घटनाएं एक बारगी सोचने के लिए विवश करती हैं। चुनाव में अलग-अलग दलों के नेताऒं ने अपनी अंतरात्मा की आवाज पर राग अलापा। अन्नादुमक एमडीएमके (वायको) इंडियन लोक दल के अलावा कई दलों के पाला बदलते हुए वोट डाला। शिवसेना ने पाटिल को वोट दिया। गुजरात में भाजपा के नेता बागी तेवर अपनाते हुए खुलेआम पटिल को वोट डाला। तृणमूल कांगेस और जनतादल (एस) ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। राजस्थान गुजरात गोवा हिमाचल मणिपुर सिक्कम पांडिचेरी में शत फीसदी मतदान हुआ।
गुरुवार को ही राजधानी दिल्ली से सटे गेटर नोएडा के जेपी इंटरनेशनल की स्टूडेंट तन्वी का अपहरण कर लिया गया। वह दसवीं क्लास में पढ़ाई कर रही है। इस इलाके के एच-८७ बीटा दो में रहने वाली तन्वी ने बाद में बरैली से अपने पापा को फोन कर अहपरण की जानकारी दी।
फरीदाबाद के पाश इलाके में शामिल अशोका इंकलेव भाग दो में रहने वाली श्रुति की मौत की पोस्टमाटॆम रिपोटॆ ने इस मामले को नया मोड़ ले लिया है। मौत का कारण फांसी लगाना बताया गया है। मृतका के शरीर पर कोई भी चोट का निशान नहीं है। उसे करीब डेढ़ हफ्ते का गभॆ था और उसकी शादी दो माह बाद होने वाली थी। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया से बीए कर रही थी।
एक ऒर जहां एक महिला देश के सवोॆच्य राजनीतिक शिखर छूने के लिए बेताब है वहीं दो लड़कियों के साथ घटित घटना समाज और देश की दशा और दिशा का आईना कई ढ़ंग से दिखाया है। हर कदम पर महिलाऒं को किस तरह मौत का सामना करना पड़ रहा है। क्या जान जाना ही मृत्यु का सत्य है। शरीर का निजीॆव होना ही सही मायने में मौत है। क्या घुट-घुट जीना मौत से बदतर नहीं है। आज के इस माहौल में मौत को किस तरह परिभाषित करेंगे।
जरा गौर करें कि एक ऒर जहां उस महिला के हाथों देश की तथाकथित सत्ता आने वाली है जो पद सिफॆ कहने के लिए सवोॆच्य है और पाटिल को अपने गुरु की आत्मा सुनने और समझने की शाक्ति हासिल है। सवाल यहां यह उठता है कि क्या उसमें गांधी के आखिरी व्यक्ति की अंतरात्मा की आवाज सुनने की ताकत है। कहीं एसा तो नहीं कि वह अपने या अपने खास की आत्मा के दशॆन और उनकी बात सुनने में समथॆ है।
नोएडा की तन्वी का स्कूल जाते वक्त अपहरण किस दिल्ली और एनसीआर की तश्वीर पेश करता है। यह घटना वहां घटी जहां कामनवेल्थ गेम के लिए अरबों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। गरीबों की बस्तियां उजाड़ी जा रही हैं। यही वही दिल्ली है जहां आज भी हजारों की की संख्या में लोग फुटपाथ पर अपनी रातें गुजारते हैं। क्या तन्वी का गेटर नोएडा से बरैली पहुंचने का रास्ता एक मौत की परिभाषा से क्या कम होगा। कार में अपहरणकताॆऒं से घिरी तन्वी की सांसें पूरे रास्ते किस तरह चल रही होगी इसका सहज अंदाजा लगाना मुश्किल है।
हरियाणा की औद्योगिक राजधानी के नाम से मशहूर फरीदाबाद में श्रुति की मौत वतॆमान सामाजिक वातावरण का नमूना भर है। हाल के दिनों में अपने आसपास किस तरह ये घटनाएं घट रही हैं इसके ताने-बाने की नींव कहीं न कहीं बचपन से पड़ती है। कुछ न सूझने पर मौत को गले लगाना कहां की बुद्धिमानी है। इस तरह की मौतों को क्या कहा जाएगा।
बंधुऒं आज नहीं तो कल इतिहास हर व्यक्ति से इस सवाल का जवाब मांगेगा कि गुरुवार को हुई तीनों घटनाऒं से एक खास किस्म की मौत से समाज और सभ्यता का दशॆन हो रहा है। कौन सी एसी शक्तियां हैं जो हमारे समाज को मौत की ऒर धकेल रही है। आज नहीं तो कल यह सवाल उठेगा कि यह कैसी मौतें हैं और कौन सी मौतें हैं।

7/17/2007

फूल के फूल हैं बनफूल

बंगाल के बहुचचित लेखकों में बनफूल यानि बलाईचंद मुखोपाध्याय शामिल हैं। मंडी हाउस स्थित वाणी पकाशन की दुकान में किताबें टटोलते हुए उस दिन उनका तैतीसवां उपन्यास दो मुसाफिर पर नजर टिक गई। इस उपन्यास के घटनाकम में एक अलग स्थिति और माहौल घटित होता है। इस उपन्यास में अनोखापन तथा रोचकता भी है।
बरसात की रात में नदी के घाट पर दो मुसाफिरों की मुलाकात होती हैं। उनमें से एक नौकरी की सिफारिश के लिए निकला हुआ युवक है तो दूसरा रहस्यमय सन्यासी है। पानी से बचने तथा रात बिताने में बातों बात में उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों के सीन उभरते हैं। उपन्यास के जरिए बेहतरीन संदेश देने का काम किया गया है। उपन्यास से एक बात उभरती है कि इस दुनिया में सभी मुसाफिर हैं। बिना एक दूसरे की मदद से मंजिल तक पहुंचना आसान नहीं होता है। बनफूल ने मानवता की बातें भी सामने रखी हैं।
दो मुसाफिर को पढ़ते वक्त भागलपुर की यादें ताजा हो जाती हैं। इसी शहर तथा इसके आसपास के इलाकों में बनफूल अपने जीवन का बेहतरीन समय बिताया था। भागलपुर रेलवे स्टेशन के घंटाघर की ऒर जाने वाली सड़क पटल बाबू रोड कहलाती है। आंदोलन के दौरान पटल बाबू ने फिरंगियों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी थी। भारत के पहले राष्टपति राजेंद बाबू के काफी नजदीकी थे। राजेंद बाबू ने अपनी आत्मकथा में उनके पटल बाबू के बारे में काफी कुछ लिखा है।
इन्हीं पटल बाबू के मकान में कभी बनफूल का क्लिनिक हुआ करता था। आज भी यह मकान अपने अतीत को याद करते हुए सीना ताने खड़ा है। सफेद रंग के पुते इस मकान में फिलहाल सिंडिकेट बैंक चल रहा है जो रेलवे स्टेशन से घंटाघर जाते हुए अजंता सिनेमा हाल से थोड़ा पहले उसके सामने है। मुंदीचक मोहल्ले से शाह माकेट जाने के रास्ते जहां पटल बाबू रोड मिलता है उसी कोने में यह मकान है।
पटल बाबू के जीवन पर कभी कुछ लिखने की तमन्ना पालने वाला इन पंक्तियों के लेखक को जानकारी इकट्ठी करने के दौरान बनफूल के बारे में जानकारी मिली थी। वहां रहने वाले पटल बाबू के संबंधी लेखक को उस कमरे में भी लग गए थे जहां बनफूल मरीजों को देखा करते थे। मकान के दो हिस्सों में बने बरामदे पर बैठ कर वे कहानी और उपन्यास की रचनाएं किया करते थे।
उपन्यास दो मुसाफिर के पिछले पन्ने पर बनफूल की जीवनी को लेकर जानकारी दी गई है।
जन्म- १९ जुलाई १८९९ बिहार के पूणियां जिले के मनिहारी नामक गांव में (बतातें चलें कि अब मनिहारी कटिहार जिले में है)
कोलकाता मेडिकल कालेज से डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद बनफूल सरकारी आदेश पर आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए पटना गए। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे पटना मेडिकल कालेज और उसके बाद अजीमगंज अस्पताल में कुछ दिनों तक काम किया। बचपन से ही उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था। उनका मन जंगलों में इतना लगता था कि उन्होंने अपना नाम बनफूल ही रखा लिया। बाद में वे कहानी तथा उपन्यास भी लिखने लगे। मनोनुकूल परिस्थिति न मिलने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़कर मनिहारी गांव के पास ही दि सेरोक्लिनिक की स्थापना की। १९६८ में उनहत्तर साल की अवस्था में भागलपुर को हमेशा के लिए छोड़कर कोलकाता में बस गए। १९७९ में उनका निधन हो गया। चचित कृतियां हैं-
जंगम
रात्रि
अग्निश्वर
भुवनसोम
हाटे बाजारे
स्थावर
ल‌‌क्छमी का आगमन
सहित ५६ उपन्यास तथा लघुकथा के दो संगह तथा कविता आदि विविध विषयों पर अन्यान्य कृतियां।

6/22/2007

राहुल घुमक्कड़शास्र अंतिम्



घुमक्कड़ को अनादि धर्म मानने वाले राहुल लिखते हैं कि घुमक्कड़ को हर तरह के जंजाल और मोह-माया से दूर होना चाहिये. उसे न तो माता के आंसू बहने कि परवाह करनी चाहिये और न पिता के भय और उदास होने की, साथ ही विवाह में लायी पत्नी के रोने-धोने की फिक्र करनी चाहिये।
राहुल कहते हैं कि जो लोग घुमक्कड़ पसंद करते हैं उन्हें कम से कम मैट्रिक तक की शिखा या फिर स्नातक होना जरुरी है। अंगरेजी, रुसी, फ्रेंच और चीनी भाषाओं को जानने और भूगोल, इतिहास, साहित्य के अलावा दूसरी तमाम जानकारी होनी चाहिऐ.बेहतर घुमक्कड़ होने के लिए फोटोग्राफी और चिकित्सा की जानकारी आवश्यक है। वे डांस के अलावा बजाने और गाने जैसी कलाओं को सीखने की सलाह देते हैं।
राहुल कहते हैं कि लोक कला, लोक संगीत, लोक नृत्य जैसी कला का उद्देश्य पिछड़े लोगों को अक बेहतर समानता पर आधारित समाज का निर्माण की ओर होनी चाहिऐ.वे यायावर जातियों को लेकर कहते हैं कि यदी जीवन में कोई अप्रिय वस्तु है तो वह मृत्यु नहीं बल्कि मृत्यु का भय है।
घुमक्कड़ के प्रेम प्रसंग पर चर्चा करते हुवे राहुल कहते हैं कि प्रेम पाश में फंसने पर उसकी देखभाल लज्जा और संकोच के बल पर ही हो सकती है। जिस व्यक्ति को अपनी, अपने देश और समाज की इज्जत का ख्याल होता है, उसे कभी भी कोई ऐसा कम नहीं करना चाहिये जिससे उसके देश और समाज को लांछन लगे।
घुमक्कड़ को न तो अमरता का लोभ होना चाहिये और न ही हजारों बरस तक लंबे कीर्ति कलेवर की लिप्सा ही।घुमक्कड़ को मृत्यु से कभी भी नहीं डरना चाहिये। उसने तो यहाँ जन्म लिया है कर्त्तव्य और आत्म सृष्टी के लिए. उसे महान से महान उत्सर्ग करने के लिए तैयार रहना चाहिये।
ashvghosh, कालिदास, रविंद्रनाथ, कुमारजीव, दीपंकर जैसे पंडितों और निकोलस रोरिख जैसे घुमक्कड़ कलाकारों का उदाहरण देते हुये राहुल लेखनी और तूलिका पर भी जोर देते हैं.
राहुल यात्रा के दौरान संचित वस्तु को संग्रालय में देने की बात कहते हैं। घुमक्कड़ के लिए डायरी लिखने की बात भी वे करते हैं। साथ ही वे साल दर साल की डायरी को किसी व्यक्ति के पास नहीं बल्कि संस्था के पास रखने का सुझाव देते हैं। उनका मानना था कि व्यक्ति का क्या ठिकाना, न जाने कब चल बसे, फिर उसके बद उत्तराधिकारी इन वस्तुओं का क्या मूल्य समझेंगे.

6/11/2007

राहुल घुमक्कड़ शास्त्र दो




अनोखे अंदाज में अपने तरह की पहली पुस्तक घुमक्कड़ शास्त्र में राहुल लोगों से सवाल करते नजर आते हैं। 'क्या चारल्स डारविन अपने महान अविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ का व्रत नहीं लिया होता। कोलंबस और वास्को-डि-गामा भी घुमक्कड़ ही थे।' बुद्ध और महावीर को घुमक्कड़राज कहने वाले राहुल कहते हैं कि दुनिया के अधिकांश धर्मनायक घुमक्कड़ ही थे। शंकराचार्य के बारे में उनका मानना था कि उन्हें किसी ब्रह्म ने शंकर नहीं बनाया, उन्हें बड़ा बनाने वाला था, यही घुमक्कड़ धर्म।

6/10/2007

राहुल सांकृतायन का घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृतायन ने अपनी पोथी में जो बात कही, वह आज भी घुमक्कड़ों के लिए महत्वपूणॆ है। 'अथातो घुमक्कड़ जिग्यासा', 'जंजाल तोडो', 'विद्या और वय', 'स्वावलंबन','शिल्प और कला', 'स्त्री घुमक्कड़', 'धमॆ और घुमक्कड़ी', 'मृत्यु-दशॆन', 'लेखनी और तूलिका', 'निरुद्देश्य' जैसे प्रकरणों के द्वारा राहुल ने घुमक्कड़ों को दिशा और दशा बतलाने का काम किया है। इसके जरिए जहां वे पिछडी और घुमक्कड़ जातियों के बारे में विस्तार से बताते हैं, वहीं प्रेम संबंधों की स्वाभाविकता पर भी बात करते हैं। वे कहते हैं, 'जिन प्रेमिकाऒं को घुमक्कड़ों का अनुभव है, वे जानती ही हैं- परदेश की प्रीत, भुस का तापना। दिया कलेजा फूंक, हुआ नहीं अपना।'राहुल अपने जीवन में जितने देश-विदेश कि यात्रा की, लेखनी साहित्य यात्रा को लेकर भी ुतनी ही चलाई। ुनका सीधा मानना था कि प्राचीन काल में घुमक्कड़ी वृत्ति न होती तो सभ्यता ही रुक-ठहर जाती, ुसका इतिहास नहीं होता। मनुष्य चलता रहा और सभ्यता का इतिहास बनता गया। यायावरी ने जीवन को नई गतिशीलता दी, नए संपकॆ हुए, सभ्यताओं का आदान-प्रदान हुआ और सांस्कृतियों को नया आयाम मिला। ुनकी मान्यता थी कि जब कोई देश यायावरी छोड देता है तो रूक-ठहर जाता है।जारी॰॰॰

घुमक्कड़नामा

घुमक्कड़ों की घुमक्कड़ी को आम लोग भले ही आवारागदीॆ कहें, लेकिन घुमक्कड़ों के लाइन के लोग समाज को काफी हद तक प्रभावित करने में सफल रहे हैं। हर तरह के जंजाल, मोह-माया को तोड कर घुमक्कड़ी की जिंदगी जीने वाले मुट्ठी भर लोगों ने काफी कम समय में ऐसी चीजें सामने परोस दी हैं कि दुनिया को नतमस्रक होना पड़ा है। भारत में बुद्ध अपने समय के सबसे बड़े घुमक्कड़ थे तो संसार के महान घुमक्कड़ चाल्सॆ डरविन के सिद्धांतों और अविष्कारों का लोहा आज भी लोग मानते हैं। जैन तीथॆंकर महावीर, शंकराचायॆ, नानकदेव, स्वामी दयानंद, कोलंबस, वास्को-डि-गामा, अश्वघोष, कालिदास, बाण, दण्डी, रविंद्रनाथ, कुमारजीत, दीपंकर सहित राहुल सांकृतायन घुमक्कड़ों में अहम स्थान रखते हैं। राहुल सांकृतायन ने तो घुमक्कड़ों को लेकर 'घुमक्कड़ शास्त्र' नामक पंद्रह प्रकरणों की पोथी ही रच डाली। जारी॰॰॰