12/02/2008

अब जनता को जागना ही होगा : किरण बेदी

अब जनता को जागना ही होगा : किरण बेदी
मुंबई कांड ने हमारी सुरक्षा व्यवस्था की एक बार फिर पोल खोल कर रख दी है। यह युद्ध है जो फौज के साथ नहीं बल्कि आम नागरिकों के साथ है। आतंकवादी लडा़ई सेना के साथ न लड़कर आम लोगों के साथ लड़ रहे हैं। आम लोगों की जान ले रहे हैं। यह हमारी आन, बान, शान और इकोनॉमी पर चोट है। अमेरिका और ब्रिटेन की लड़ाई हमारी जमीन पर लड़ी जा रही है। आतंकवादी अमेरिकी नागरिकों का पासपोर्ट मांग रहे हैं। समुद्र के रास्ते वे भारत में प्रवेश कर रहे हैं, कालोनियों से निकलकर यहां आतंक फैला रहे हैं। उन देशों का कानून इतना सख्त हो चुका है कि आतंकवादियों को नई जमीन तलाशनी पड़ रही है। आतंकवादी अमेरिकियों का पासपोर्ट भारत के होटल में आकर इस कारण मांग रहे है क्योंकि वे उस देश में अपने कारनामों को अंजाम नहीं दे पा रहे हैं।
ऐसे मामले में हमें अमेरिका से सबक लेना चाहिए। कानून को सख्त से सख्त बनाना होगा क्योंकि 11 सितंबर के बाद किसी भी आतंकी संगठन की हिम्मत नहीं हुई कि वे अमेरिका में किसी भी घटना को अंजाम दे सकें। भारत में तो आतंकवाद की बात तभी खत्म हो जानी चाहिए थी जब संसद पर हमला हुआ था। इस मामले में न मजहब, न जाति, न भाषा- किसी भी तरह की बात नहीं होनी चाहिए। जब तक आतंकवाद को लेकर मजहब की बात होगी, तब तक यह खत्म नहीं हो सकता। जो खुद सुरक्षित हों, चाहे वे घर में हो या बाहर, वह दूसरे की सुरक्षा की बात क्या जानें। देश के सभी राजनेताओं को सिर्फ अपनी जान की फिक्र है। उनकी सुरक्षा में हमारे रणबांकुरे लगे रहते हैं।
अब देखना यह है कि सरकार और विपक्ष का कदम इस मामले में क्या होता है। वे कब तक तू-तू, मै-मैं की राजनीति करते रहेंगे और कब हम पर आते हैं। जीने का अधिकार सभी को है। सुरक्षा का अधिकार सभी को है। हमारे बच्चे वापस घर लौट सकें, बाहर आराम से घूम फिर सकें, यह व्यवस्था होनी चाहिए। आतंकी घटनाएं इस हद तक बढ़ गई है कि अब जनता को जागना ही होगा। समाज को जागना होगा। नॉन पालिटिकल सिविल सोसाइटी को इस मामले में जागरूक होना होगा। इसे चुनावी मुद्दा न बनाकर एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाना होगा। वर्तमान सरकार और विपक्ष को रिजेक्ट करना होगा। इनको वोट नहीं मिलना चाहिए। वोट दें, लेकिन वोट न हो। चूंकि हमारे यहां राइट टू रिजेक्ट का अधिकार नहीं है, इस कारण वोट डालें लेकिन रिजेक्ट के साथ। पता चलेगा वोटिंग तो हुई लेकिन किसी को वोट नहीं मिला।
समय आ चुका है अब न तो सरकार को और न ही विपक्ष को और समय दिया जाना चाहिए। इस संसद ने हमें फेल किया है। पांच साल में इन लोगों ने कुछ नहीं किया। किसी राज्य में आतंकियों की ट्रेनिंग हो रही है, किसी राज्य में इनका घर बना हुआ है। पूरा का पूरा कस्बा आतंकियों के गढ़ में तब्दील हो चुका है। आम लोगों को अब जगना होगा। तीसरी आवाज उठानी होगी। नए संसद का निर्माण करना होगा। नए चेहरे संसद में लाने होंगे, जो काम कर सकें।
राजनेताओं की यह चाल है कि वे हमेशा पुलिस को झूठा ठहराते हैं। हमारे जांबाज मारे जा रहे हैं। टीम लीडर मरता जा रहा है। अगर टीम लीडर ही नहीं रहे तो जीतेगा कौन? सुधार प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए। मैंने ऐसी ही दो साल पहले नौकरी नहीं छोड़ी थी। ये नेता कहते कुछ हैं और करते हैं कुछ। पद्मनाभैया, मलियामह रिपोर्ट का क्या हुआ? इस देश में भी फेडरल एजेंसी बने, हर स्तर पर पुलिस को ट्रेनिंग दी जाए। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में आदेश दिया था। मैं जिस वक्त महानिदेशक थी, मैंने एक एफिडेविट भी जमा किया था। उस पर अभी तक कुछ भी अमल नहीं हुआ। मंत्रालय की हालत यह है कि कोई काम ही नहीं करना चाहता। अपने कार्यकाल में गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद एफिडेविट जमा नहीं किया, मुझे सीधे रजिस्ट्रार के पास जमा करना पड़ा था।
(सुश्री बेदी पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं)
प्रस्तुति: विनीत उत्पल
यह लेख एक दिसम्बर 2008 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ है

11/15/2008

समय से आगे हैं आईबीएन सेवन के आशुतोष और संजीव पालीवाल

पत्रकार हमेशा अपने समय से आगे की सोचते है और लिखते है। क्या ऐसा सम्भव है की किसी घटना के होने से पहले उसकी स्थिति पर सम्पादकीय लिखा जा सके। जी ऐसा कर दिखाया है आई बी एन सेवन के आशुतोष और संजीव पालीवाल ने।
ओबामा पर लिखे लेखा पर तारीख ६ जनवरी, २००८ की है जो आशुतोष ने लिखा है और संजीव पालीवाल ने जो लेख लिखा है वह दस जनवरी, २००८ को लिखा गया है। जबकि मेरी जानकारी के अनुसार ओबामा ने नवम्बर में अमेरिकी चुनाव जीता है। चाहे यह तकनीकी गलती हो या कुछ और लेकिन मामला मजेदार है। आशुतोष का लेख पढने के लिए क्लिक करें आज की रात...यस वी कैन और संजीव पालीवाल का लेख पढने के लिए क्लिक करें तलाश है भारतीय ओबामा की...
नही तो यहाँ पढ़ें
गुरुवार, जनवरी 06, 2008 19:42s
आज की रात...यस वी कैन
11 कमेंट्स

आज की रात कुछ लिखने को दिल करता है. आज की रात कुछ कहने को दिल करता है . आज की रात कुछ भी नहीं करने को दिल करता है. आज की रात इतनी पूरी है कि कुछ और सोचने को मन नहीं करता है . आज की रात उम्मीदों की रात है. आज की रात बची रहे मेरे सपनों में ये दुआ खुदा से मांगने को दिल करता है. आज ओबामा ने चुनाव जीता है. आज की रात एक सपना जवान हुआ है. आज की रात सपने को भी सपना आया है. आज की रात कहती है अगर कभी ज्यादा भी सोचा होता तो पूरा होता.
आज की रात एन निक्सन कूपर की जिंदगी की सबसे खूबसूरत रात है. आज 106 साल में वो पहली बार चैन की नींद सोयेगी. आज की रात शायद वो सोये ही न क्योंकि आज की रात वो सोचती है कि कभी खत्म ही न हो. आज की रात जेसी जैक्सन की आंखों में एक ख्वाब ने आंसुओं की शक्ल ली है. आज की रात उसकी आंखों का सूनापन शर्मसार नहीं है क्योंकि आज उसका सूनापन ओपरा विनफ्रे के सूनेपन से जा मिला है और दोनों गले लगकर खूब रोएं हैं. ओपरा आज पहली बार बोली है, अब वो अपने शो में और भी बोलेगी क्योंकि आज की रात उसकी जुबान ने मुंह खोला है इस जिदंगी में ये दिन देखूंगी ये सोचा न था. आज की रात मार्टिन लूथर किंग पहली बार मुस्कराया है. आज उसके सपनों की उम्र पूरी हुयी है. अब मार्टिन लूथर किंग ये नहीं कहेगा कि आई हैव ए ड्रीम, क्योंकि अब ओबामा ने कहा है यस, वी कैन.
इस रात एक सभ्यता ने करवट ली है. इस रात एक मसीहा का जन्म हुआ है. इस रात के बाद काला रंग सिर्फ बास्केट बाल की कोर्ट पर ही नहीं खिलेगा. अब व्हाइट हाउस की रात काली भी हुयी तो दुनिया के काले अंधियारों में उजाला पसरेगा. इस रात की सुबह बहुत लंबी होगी. इस रात के बाद काले सफेद दोनों मिलकर खेलेंगे , मुस्करायेंगे और दोनों में कोई भेद नहीं होगा. दुनिया दोनों को देखेगी और दोनों को बाहें पसारे अपने आगोश में समेट लेगी.
इस रात मेरे दोनों पिल्ले भी खूब शोर मचा के खेले हैं. और सोते समय खूब मुस्करा रहे हैं. एक रूमानी सपना दोनों ने देखा था और आज वो सपना पूरा हुआ है, आज वो इंसानों को देखकर उनपर हंस नहीं रहे हैं. आज उनके दिल में इंसानों के लिये इज्जत थोड़ी बढ़ी है. बस बड़े पिल्ले ने सोने से पहले मुझसे हलके से पूछा क्या ये रात अपने यहां भी आयेगी? उसकी बात सुन छोटे ने भी बड़ी उम्मीदों से मेरी तरफ देखा और मैं भी लाजवाब उसकी आंखों में अपने सवाल का जवाब खोजता रहा , फिर चुपके से अपने से बोला जब ये रात अमेरिका में आयी है तो हिंदुस्तान तक भी आयेगी. इस रात ने चलना शुरू कर दिया है. यहां पहुंचते-पहुंचते वक्त तो लगेगा लेकिन आयेगी जरूर ये इस रात का मुझसे वादा है और मैंने भी अपने पिल्लों से चुपके से उन्हें बताये बिना ये वादा किया है. तब ये पिल्ले शायद मुझे कुछ और इज्जत से देखें लेकिन तब तक इंसान इंसान को कमतर तो आंकेगा और रंगों में काला रंग थोड़ा अकेला भी रहेगा और सफेद अपनी नासमझी पर इतरायेगा भी। लेकिन आज की रात ये सोचने का वक्त कहां है. आज की रात तो ओबामा की हां में हां मिलाने की रात है और ये कहने की रात है यस, वी कैन.
पोस्टेड आशुतोष at 19:42s 11 कमेंट्स

और ये ................
सोमवार, जनवरी 10, 2008 13:46s
तलाश है भारतीय ओबामा की...
14 कमेंट्स

डिनर के दौरान अचानक मेरी पत्नी ने कहा कि वो चुनाव लड़ना चाहती है। राजनीति में उतरना चाहती है। मैंने हैरानी से पूछा क्यों ? अचानक ये ख्याल कैसे आया? वो बोली देश का सत्यानाश हो गया है। कोई नेता नहीं है। अमेरिका में अगर ओबामा हो सकता है तो हमारे यहां यंग लोग क्यों नहीं आ सकते। ओबामा ने मुझमें एक उम्मीद जगा दी है कि आम इंसान भी राजनीति में जा सकता है।
मैं वाकई सोचता रह गया कि कैसा है ये ओबामा, जो हजारों किलोमीटर दूर बैठे एक पराये देश में भी उम्मीद जगा रहा है। क्यों उसको देखकर कुछ कर गुजरने का मन करता है। क्यों फिर से सपने बुनने का मन करता है। क्यों वो अपना सा लगता है। क्या महज इसलिये कि उसका रंग हमारे जैसा है, क्या इसलिये कि उसके नाम में हमारी खुश्बू है।
जीत के बाद अपने पहले संबोधन में ओबामा ने कहा कि "ये जवाब युवा, बुजुर्ग, अमीर, गरीब, डेमोक्रेट, रिपब्लिकन, काले, गोरे, हिसपैनिक, एशियन, नेटिव अमेरिकन, गे, लेस्बियन, स्ट्रेट, अपाहिज और जो अपाहिज नहीं है उनका है। अमेरिका के लोगों ने दुनिया को संदेश दिया है..... ये देश महज अलग-अलग तरह के लोगों का संग्रह नहीं है। न ही ये लाल और नीले राज्यों का संग्रह है। हम हमेशा से यूनाईटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका थे और रहेंगे"। ये सुनकर जोश में मैं चिल्लाया था और मुट्ठी हवा में लहरा दी थी। न जाने क्यों ऐसा लगा कि जैसे ये बात हमारे देश के लिये कही गयी हो। लेकिन मैं भारत में रहता हूं, अमेरिका में नहीं। उस दिन भारत की याद आयी थी। उस दिन दिल में एक गहरी टीस उठी थी। पत्नी ने राजनीति में जाने की बात कहकर वो टीस और गहरी कर दी। मेरा देश अमेरिका जैसा क्यों नहीं हो सकता।
नहीं हो सकता हमारा देश अमेरिका जैसा। दरअसल हम अपने देश पर गर्व नहीं करते। देशवासी या भारतवासी होने का अभिमान हमें है ही नहीं। भारत के नाम पर हमारी छाती चौड़ी नहीं होती। हमें भारत की चिंता नहीं होती। भारत के लिये हमारा कलेजा नहीं फटता। भारत के लिये हम कुछ नहीं करते। भारतवासी हम सबसे आखिर में होते हैं। वो चाहे राजनेता हों या उद्योगपति या फिर साधारण नागरिक। हर कोई पहले अपने बारे में सोचता है। जहां मैं और मेरा फायदा हमारी सबसे पड़ी प्राथमिकता हो वो देश तो पीछे छूटेगा ही। सवाल ये है कि कैसे बदलेगी ये विचारधारा। कौन होगा भारत का ओबामा। मायावती, मुलायम सिंह यादव या फिर लालू प्रसाद यादव, राज ठाकरे या फिर नरेंद्र मोदी।
क्या दलितों और पिछड़ों की नुमाइंदगी करने वाला ही कोई भारत का ओबामा होगा ? क्या सिर्फ इसलिये कि ओबामा पहले अश्वेत हैं। यहां ये भी याद रखना होगा कि ओबामा की मां गोरी हैं। उन्होंने सिर्फ बचपन के कुछ साल को छोड़कर हमेशा अपने व्हाईट नाना के साथ जिंदगी गुजारी। लेकिन क्या ओबामा की जीत सिर्फ अश्वेतों की जीत है ? नहीं, ओबामा ने खुद कहा है "सिर्फ उनकी जीत से ही बदलाव नहीं होगा। जीत ने बदलाव लाने का मौका दिया है। पुराने बने बनाये रास्ते पर चलकर बदलाव नही हो सकता। न ही बदलाव आपके (जनता के) बगैर हो सकता है। न ही सेवा की नयी भावना और त्याग के बगैर। तो आईये आज से आगाज करें राष्ट्रवाद की नयी भावना के साथ , नयी जिम्मेदारियों के साथ, जहां हर कोई पूरी मेहनत करते हुए खुद के साथ एक दूसरे का खयाल रखे"।
पर क्या हमारे नेता एक दूसरे का ख्याल रखते हैं ? नहीं। जहां सारी राजनीति वोट बैंक पर होती हो। देश में जब तक दलित हैं, पिछड़े हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ, जाटव, कुर्मी, गूजर, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय रहेंगे, तब तक न सपने देखे जायेंगे, न सपने पूरे होंगे। सपने जातियों और धर्मों के ही रहेंगे। देश का सपना नही होगा। जब तक देश का सपना नहीं होगा, न ओबामा होगा, न मैं दिल से भारतवासी बनूंगा, भारत महज एक शब्द रहेगा और मैं अपने स्वार्थ में जीने वाला एक स्वार्थी नागरिक।
पोस्टेड संजीव पालीवाल at 13:46s 14 कमेंट्स

भागलपुर में बीता राजेश मिश्रा का बचपन

आज से रिलीज हो रही फिल्म 'ई माटी में सब कुछ बाटे' के अभिनेता राजेश मिश्रा का बचपन भागलपुर के आदमपुर में बीता। सीएमएस हाई स्कूल और मारवाड़ी कालेज में इन्होंने शिक्षा प्राप्त की। बचपन से ही राजेश मिश्रा की इच्छा अभिनेता बनने की थी। इसी कारण इंटर पास कर ये दिल्ली चले गए।

दिल्ली में इन्हें कई फिल्मों और टेलीविजन सीरियलों में काम करने का अवसर मिला। चर्चित टेलीविजन सीरियल 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में इन्होंने रघु की भूमिका निभाई। हिंदी फिल्म 'गायब' में इन्होंने तुषार कपूर के साथ काम किया। रवि किशन की भोजपुरी फिल्म 'कब होई मिलनवा हमार' में इन्होंने दक्षतापूर्वक विलेन की भूमिका निभाई। इसके अलावा 'कब से आई बहार' और 'चली देशवा की ओर' में भी इन्होंने विलेन की भूमिका निभाई।

फिल्म 'ई माटी में सब कुछ बाटे' में इन्होंने बतौर अभिनेता, निदेशक और गायक के रूप में काम किया है। फिल्म आज से भागलपुर और देवघर में रिलीज हो रही है। इस फिल्म में भागलपुर के ही विनय शुक्ला ने भी काम किया है।

साभार: दैनिक जागरण

11/06/2008

'एक विवाह ऐसा भी' में है कुणाल

मूल रूप से केरल का, पढाई-लिखाई हरियाणा के फरीदाबाद शहर में और अब हिन्दी सिनेमा में अपनी एक अलग पहचान। न कोई जान न पहचान, अपने बलबूते फिल्मी दुनिया में अभिनय का जलवाl बिखरने का साहस। बड़े परदे पर साथिया, बर्दास्त, मैं हूँ न, बंटी और बबली, नमस्ते लन्दन, कैसे कहें, सुपरस्टार में दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र बने तो बतौर डायरेक्टर न्यूयार्क फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट डिजीटल शॉट फीचर फ़िल्म का पुरस्कार टाइम लेस लाइफ सहित कई फिल्मों को अवार्ड मिल चुका है। ये हैं कुणाल कुमारजाना पहचाना चेहरा। हमारी अक्सर बातें होती रहती है, कई मुद्दों को लेकर। मसलन क्या हो रहा फिल्मी दुनिया में, उसका नया प्रोजेक्ट क्या है। अभी कौन सी फिल्म पाइप लाइन में है।

हिंदुस्तान फरीदाबाद में रिपोर्टिंग के दौरान हमारी आत्मीयता बढ़ी थी। उसी दौरान लगातार शख्सियत कालम के दौरान पहली बार उससे रूबरू हुआ था। यह वही दिन था जिस दिन हिन्दी के साहित्यकार कमलेश्वर का निधन हुआ था। कल यानी शुक्रवार को उसकी फ़िल्म 'एक विवाह ऐसा भी' रिलीज हो रही है। जिसमें उसने जुनैद खान नामक किरदार निभाया है और सोनू सूद के बचपन के दोस्त हैं।

11/02/2008

आसान नहीं धुएं के छल्ले को रोकना

आसान नहीं धुएं के छल्ले को रोकना

विनीत उत्पल

सरकार ने बृहस्पतिवार से सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर प्रतिबंध लगा दिया है। नए कानून का उल्लंघन करने वालों सहित परिसर के मालिक को भी दंड दिए जाने का प्रावधान है। सरकार द्वारा मई में लिये गए इस फैसले को लागू किए जाने के बाद अब लोग ऑडिटोरियम, अस्पताल भवनों, स्वास्थ्य संस्थानों, मनोरंजन केंद्र, कोर्ट परिसर, शैक्षिक संस्थानों, पुस्तकालयों, स्टेडियम, रेलवे स्टेशनों, बस स्टाप, काफी हाउस जैसे स्थलों पर सिगरेट के धुएं के छल्ले नहीं उड़ा पाएंगे। लेकिन यह फैसला कितना कारगर हो पाएगा, इसमें संदेह है। एक आ॓र जहां सरकार विभिन्न तम्बाकू उत्पादों के सार्वजनिक तौर से सेवन करने पर प्रतिबंध लगा रही है, वहीं राजस्व देने वाले इसके उत्पादन को रोकने के लिए कदम नहीं उठा रही है।

जिस देश में तम्बाकू का इस्तेमाल करने वालों की तादाद बढ़ रही हो, करीब 57 फीसद पुरूष और 11 फीसद महिलाएं तम्बाकू को अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल कर रहे हों, ऐसे में प्रतिबंध के कारगर साबित होने पर सवाल उठना लाजिमी है। ‘ग्लोबल यूथ टोबैको सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, 13 से 15 साल तक के उम्र के करीब 14 फीसद बच्चे तम्बाकू का सेवन करते हैं। इनमें तम्बाकू चबाने वाले अधिक हैं। सर्वे के मुताबिक, देश में 15 फीसद ऐसे बच्चे हैं, जिन्होंने धूम्रपान को कभी हाथ नहीं लगाया, लेकिन अगले साल तक वे इसके आदी हो जाएंगे। सार्वजनिक स्थलों पर दूसरों के धूम्रपान करने से 40 फीसद लोग प्रभावित हैं। फरवरी, 2008 में न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में 2010 से हर साल करीब एक लाख लोगों के मरने का कारण धूम्रपान होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन व इम्पावर रिपोर्ट-2007 के अनुसार, औसतन 15 बरसों में तम्बाकू के सेवन करने वालों में तिहाई से लेकर आधे लोग मौत के शिकार होंगे। इस समय विश्व में दस लोगों में एक की मौत का कारण तम्बाकू है।

जहां तक तम्बाकू सेवन पर रोक लगाने की बात है, भारत हमेशा ही वैश्विक स्तर पर अग्रणी रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के फ्रेमवर्क कनवेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल (एफसीटीसी) पर भी भारत ने दस्तखत किए हैं। इसी क्रम में 18 मई, 2003 में भारत सरकार ने तम्बाकू नियंत्रण कानून बनाया। पहली बार देश में मई, 2004 से धूम्रपान को प्रतिबंधित किया गया, जिसे मई, 2005 में संशोधित किया गया। इसके तहत सार्वजनिक स्थलों में शॉपिंग मॉल और सिनेमा हॉल को शामिल किया गया। दो अक्टूबर से लागू किए गए कानून के मुताबिक, धूम्रपान न रोकने पर इनके मालिक को भी दंड दिया जाएगा। सरकार ने 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रम (एनटीसीपी) लागू किया गया है। इसके तहत देश के अधिकतर जिलों को सशक्त किया जाएगा, जिस पर करीब 450 करोड़ रूपए खर्च करने की योजना है।

तमाम मामलों को देखें, तो पता चलता है कि सरकार की नीयत में तमाम विरोधाभास नजर आता है। इसकी मनोदशा दो तरह की है। एक आ॓र तम्बाकू उत्पादन करने वाली कंपनियों को प्रचार-प्रसार की खुली छूट दी गई है और बदले में भरपूर टैक्स वसूल रही है। समाचारपत्रों, चैनलों, होर्डिंगों द्वारा इसके प्रचार को रोकने पर आंख मूंदे हुए है। वहीं, आम लोगों को इसके सार्वजनिक सेवन पर दंड दे रही है। विश्व परिदृश्य पर अपनी ऐसी छवि बनाने में जुटी है कि वह तम्बाकू उत्पादों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाकर ही दम लेगी।तम्बाकू ऐसा उत्पाद है, जो अपने ग्राहकों की ही जान लेता है। इससे संबंधित कंपनियां हमेशा नए ग्राहकों को तलाशती हैं और उन्हें आकर्षित करना उसका पहला मकसद होता है। इस क्रम में कंपनियां बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार के अलावा सेलिब्रेटी को उत्पाद से जोड़ती हैं।

ऐसे में, जब तक आम आदमी इसके प्रति खुद गंभीर नहीं होगा, सरकार द्वारा लगाया गया प्रतिबंध कितना सफल हो पाएगा। यदि देश को तम्बाकू रहित करना है, लोगों को अकाल मौत से बचाना है तो इसके उत्पादन पर ही प्रतिबंध लगाना होगा। सेलिब्रेटी को भी आत्मविश्लेषण करना होगा कि थोड़े से पैसे के लिए तम्बाकू उत्पाद का प्रचार-प्रसार कर वे किस तरह से देश का हित साध रहे हैं। आम लोगों को समझना होगा कि तम्बाकू या तम्बाकू उत्पाद का सेवन कर वे अपने, अपने परिवार या अपने समाज का क्या भला कर रहे हैं! सरकार को भी गंभीर होना होगा। उसे इस मामले में अपनी स्पष्ट रणनीति तय करनी होगी। जब सरकार ने 2003 से तम्बाकू उत्पाद पर प्रतिबंध लगाने पर कामकाज शुरू कर दिया था, कानून लागू किया था, तब धीरे-धीरे इस पर क्यों अमल किया जाता रहा, यह एक अहम सवाल है। सरकार को स्पष्ट रूप से अपनी मंशा जाहिर करनी चाहिए।

(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा के सम्पादकीय पेज पर तीन अक्तूबर को छपा है )

10/31/2008

देवानंद की नजर में इंदिरा गांधी

देवानंद की नजर में इंदिरा गांधी
इंदिरा गांधी का गूंगी गुडिय़ा से आयरन लेडी बनकर उभरना भारतीय राजनीति का एक अहम अध्याय रहा है। आज से 24 साल पहले उनके ही अंगरक्षकों ने उन्हें गोली मारकर मौत के आगोश में सुला दिया था। सदाबहार अभिनेता देवानंद ने अपनी आत्मकथा 'रोमांसिंग विद लाइफ' में उन्हें बखूबी याद किया है।
इंदिरा गांधी की मृत्यु की बात को अपनी आत्मकथा 'रोमांसिंग विद लाइफ' के 57वें अध्याय में समेटते हुए देवानंद लिखते हैं कि फिल्म की शूटिंग समाप्त ही किया था कि समाचार मिला, इंदिरा गांधी को सिख अंगरक्षकों ने गोली मार दी है। पूरा देश स्तब्ध था। मैं मन ही मन बुदबुदाया, 'इंदिरा गांधी एक धार्मिसमुदाय की भावनाओं के गुस्से का शिकार हुई है। मेरे सामने उनकी सारी छवि उमडऩे-घुमडऩे लगीं।
पहली बार देवानंद की इंदिरा से मुलाकात उनके पिता जवाहर लाल नेहरू के आवास तीनमूर्ति में हुई थी। फिल्म इंडस्ट्री ने उस वक्त नई दिल्ली में एक चैरिटी शो का आयोजन किया था। इससे आने वाले फंड को प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा किया जाना था और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी इस मौके पर मौजूद थे। यही वह मौका था जब लता मंगेशकर ने 'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी' गाया था और नेहरूजी रो पडे थे। वे कहते हैं कि इस कार्यक्रम के बाद मुझे, दिलीप कुमार और राजकपूर को तीनमूर्ति भवन में प्रधानमंत्री से मुलाकात की बात थी। वहां पर आतिथ्य के लिए इंदिरा गांधी मौजूद थीं। यह उनके साथ मेरी पहली मुलाकात थी। वह अल्पभाषी और संकोची थीं। वह कम बोलती थीं लेकिन काफी सभ्य थीं। उसने स्पेशल चाय के द्वारा हमारा स्वागत किया।
देवानंद अपनी आत्मकथा के विभिन्न पृष्ठों पर इंदिरा गांधी को याद कर लिखते हैं, 'पंडितजी की मृत्यु पर मैंने इंदिरा गांधी को टेलीग्राम से संवेदना भेजी थी। फिल्म 'गाइड' के रिलीज के क्रम में फिर इंदिरा गांधी से मुलाकात करने का मौका मिला। कुछ विरोधियों ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को गुमनाम पत्र भेजकर इस फिल्म को क्लीयरेंस सर्टिफिकेट न देने का मुहिम चलाया। सरकारी दफ्तर नई दिल्ली में था और फिल्म पर अश्लीलता का आरोप था। मैंने इस मामले में इंदिरा गांधी से संपर्क किया कि वह इस फिल्म को देखकर फैसला करें। वह उस वक्त नई-नई सूचना और प्रसारण मंत्री बनी थीं। उन्होंने अपने लिए फिल्म की स्क्रीनिंग नई दिल्ली में कराने की बात कही। स्क्रीनिंग के मौके पर वह अपने खास मित्रों के साथ बैठी रहीं और उन्हें इससे कोई खास फर्क नहीं था कि उनके बीच मैं भी हूं।
मैं आगे की पंक्ति में बैठा था जबकि वह चुपचाप काफी पीछे बैठी थी। जैसे ही फिल्म खत्म हुई मैंने पीछे मुड़कर उनकी ओर देखा। उन्होंने बस इतना ही कहा, 'आप काफी तेज बोलते हैं।' इस पर मैंने कहा, 'हां, मैं बोलता हूं। इससे गुस्सा तो नहीं आया।' 'नहीं, यह बढिय़ा है। हमलोग मंत्रालय के द्वारा क्लीयरेंस लेटर भेज देंगे', इंदिरा का जबाव था। इस मौके पर मैंने मनोहर मालगोकर की प्रसिद्ध उपन्यास 'दी प्रिंस गिफ्ट' किया था।
देवानंद लिखते हैं, 'वह फिल्मी दुनिया की समस्याओं को सुनती थी लेकिन बोलती काफी कम थीं। जितनी बार मैं मिला हर बार मैं उन्हें वक्ता की अपेक्षा अधिक श्रोता पाया।' वे याद करते हुए कहते हैं कि एबार सरोजनी नायडू के भाई हरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ उनसे मुलाकात हुई थी जब हमलोग पंडित नेहरू से मिलने प्रधानमंत्री आवास गए थे। लेकिन हमें अपनी बैठक इंदिरा गांधी से कर लौटना पड़ा था। वे उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि नई दिल्ली में एक बार अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह आयोजित किया गया था, जिसमें उन्हें आमंत्रित करने गया था। उन्होंने बस इतना ही कहा था कि मैं आने की कोशिश करूंगी। लेकिन वह नहीं आ सकीं थीं। एक बार उनके बहुत करीबी दोस्त के साथ आधे घंटे से अधिक समय तक मुलाकात की थी। बिना किसी सकारात्मक या नकारात्मक प्रतिक्रिया के वह हमारी बातें सुनती रही थीं।
बहरहाल, इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत यादों सहित उनके कामकाज को लेकर देवानंद अपनी आत्मकथा में कई स्थानों पर विस्तार से चर्चा की है। उन्हें यह बात काफी आश्चर्य लगती है कि एक गूंगी गुडिय़ा किस तरह देश की सबसे ताकतवर नेता के तौर पर उभरी। हालांकि वह हमेशा अल्पभाषी और संकोची ही रहीं।

10/13/2008

कुछ सवाल दिल्ली पुलिस से, कुछ सवाल पत्रकारों से

जामिया के पास पिछले महीने हुए पुलिस मुठभेड़ के बाद जिस तरह जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों को आतंकवादी घोषित करने का खेल खेला गया वह काफी शर्मनाक है। इस क्रम में कल एक बैठक वहां के शिक्षकों ने की थी। इस मामले पर जिस तरह का घिनौना खेल खेला जा रहा है, इसकी जितनी निंदा की जाए कम है। चूकि मेरी पढ़ाई भी जामिया में ही हुई है, इस कारण वहां से आत्मीयता होना लाजमी है। इसी क्रम में पिछले पन्द्रह दिनों से मैं ब्लाग की दुनिया से दूर रहा। घर और बाहर के कामों से थोड़ी राहत मिली तो जामिया टीचर्स सोलिदातारी ग्रुप के सदस्य मनीषा सेठी के कुछ सवालों के साथ आपके सामने हूँ...


Some Questions for the Delhi Police and Embedded 'Journalists'
The last few days have seen the Delhi Police "returning fire" at the critics of the Jamia Nagar encounter. Pressured by the mounting skepticism about police claims, the Delhi Police have now responded with a new round of theories and stories, which nevertheless remain as riddled with holes, as their earlier version(s). Jamia Teachers' Solidarity Group responds to the latest Police claims.
1) The police was caught by surprise. Or was it?
In its response to the questions being raised by the civil society, the police say, "the presence of armed terrorists took them by surprise." "The police did not expect an encounter at L-
18." (Indian Express October 9)
However, Praveen Swami in his "Alice in wonderland" article in The Hindu (October 10) writes that "the investigators learned that top commander 'Bashir' and his assault armed squad left Ahmedabad on July 26 for a safe house at Jamia Nagar." Further he says, "the investigators came to believe that Atif Amin either provided Bashir shelter or the two were one and the same person."
Surely, there can be only one truth:
a) The police knew that a "top commander" and his "armed assault team "was residing in L-18 (as claimed confidently by Swami). In which case, the Special Cell's almost cavalierapproach is inexplicable — unless we accept Swami's contention that Inspector Sharma'steam did as well as it could "given their resources and training".
While Swami and his ilk may rue the lack of "state of the art surveillance equipment" that can be found in United States or Europe, surely, even Third World police can use, upon knowledge that "dreaded terrorists" are holed up in a house, methods such as sealing the building, and making public announcements asking them to surrender.
b) The Police went to L-18 merely for investigation and was ambushed. In which case, isn'tit surprising that it took them only a few hours to crack nearly all cases of bomb blasts thathave occurred across the country? It was of course inconvenient for UP, Gujarat, Rajasthanand Maharashtra state police, who had been claiming their own successes in uncovering their'masterminds'.
The Police commissioner Y.S. Dadwal announced at a news conference the same day that "Atif was the mastermind behind all the recent serial blasts," and that he had plotted the Saturday blasts... was also involved in the Ahmedabad blasts on July 26, Jaipur blasts on May 13, and one of the August 25 blasts last year in Hyderabad. Sajid was described as bomb-maker.
"Explosives made by him and his team bore their signature — two detonators, wooden frame, ammonium nitrate and analog quartz clocks," Dadwal said {Hindustan limes, 20 September). The question is that, the Police which did not even expect an 'encounter' in the
morning, was able to say with confidence that the bombs used in Delhi blasts bore the 'signature' of the slain Sajid by evening.
The Police must pick one of these 'truths'. It cannot claim both to be true simultaneously.
2) The puz2le of the Bullet Proof Jacket

Again, the Delhi Police has not made up its mind on this one. JCP, Karnail Singh and Deputy Commissioner of Police (Special Cell) Alok Kumar have reiterated that the Special Cell team members were not wearing BPVs. ["Entering a crowded locality would alert the suspects and give them time to escape" {Indian Express Oct 9); "To maintain secrecy in a cramped area like Batla House." Tehelka Oct 4)].
However, now we are also told that some police men were wearing Bullet proof vests.
This new version has appeared following the outcry after the publication of pictures of Sajid's body, which clearly show that he had been shot repeatedly in the head. Such bullet injuries suggest that he could have been killed from extreme close range while he was crouching or kneeling. This it self raises a huge question mark over the 'encounter'. "Senior police sources" now claim that Sajid was "lying on the floor when he opened fire at a cop. The cop, unlike Inspector Sharma, was wearing a bulletproof vest. He retaliated by firing a burst from his AK-47, which hit Sajid on his head." (Times of India, Oct 8).
Neat. It explains why and how Sajid was killed. And also, why the cop in question was not as much as injured when Sajid was supposedly firing at him. But it doesn't square with the line the Delhi Police have been pushing up till now, that Inspector Sharma's men did not deliberately wear bullet proof vests. Nor with the claim that the Special team was "armed only with small arms". (The Hindu, October 10)
Nonetheless, the Delhi Police must clearly make up its mind if the cops that day were wearing Bullet proof vests or not?
3) Corroborative evidence?
Believe it or not, the evidence in support of their claim that the boys living in L-18 were terrorists, the police presents a bucket, adhesive tape and a bag! (Indian Express, Oct 9). The bucket was used to keep bombs (but was presumably empty at the time of'seizure'); the adhesive tape was used to seal the explosives (!!!); and finally the bag was used to carry the bombs (but again presumably empty when the police 'recovered' it).
Let it be noted that legal requirements were flouted with regard to seizures. The police is required to prepare a seizure list of all items recovered from the site and it should be attested by two public witnesses unconnected with the police. Given that a huge crowd had gathered at the site, surely, the police could have sought the assistance of members of the public. And why does L-18 continue to remain sealed?
4) Injuries and Bullets:
Photographs of the bodies of Atif and Sajid, taken during the ritual bathing before burial clearly indicate injury marks on the bodies. These marks could definitely not have been caused by bullets. The skin on Atif s back is ripped off. What caused these injury marks? Were they captured before they were eliminated? The Police is now citing the elusive post mortem report, saying that the two did not have any injuries on them apart from those caused by bullets, in order to buttress their claim of the "shootout being genuine". (TOI, Oct 9). The documentary proof of the existence of such marks on the bodies however belies their claims.
Rattled by the photographs of an injured Inspector Sharma being escorted from the L-18 building, where no blood stain is visible on the front, the Police have stated that he was hit from the front as "one bullet hit him in the left shoulder and exited through the left arm; the other hit the right side of the abdomen, exiting through the hip." (The Hindu, October 10) For this reason, they argue, the bleeding was from the back—the points of exit. However, according to a senior doctor who conducted the postmortem on Inspector MC Sharma at the All India Institute of Medical Sciences, "It was difficult to establish the entry and exit points of the bullet because conclusive evidence had been wiped out by the interventions of the doctors at Holy Family [where Sharma was rushed to]." (Tehelka, October 4).
But at least one enthusiastic journalist doesn't stop here. He tells us that the "abdomen wound was inflicted with Amin's weapon and the shoulder hit, by Mohammad Sajid". And how does he know? "The investigators believe that." (The Hindu, October 10)And he believes the investigators. Has he seen a copy of the post mortem? Or the videography of the post mortem? What bullets were fired upon Inspector Sharma? What was the weapon that killed Sajid and Atif?
Why are the post mortem reports of Inspector Sharma and Atif and Sajid not being made public?
5 "Over confident terrorists":
In response to why these supposed 'terrorists' left a trail of identification marks which would have made them sitting ducks, the police have a simple answer. They were over confident.
(Indian Express, October 9)
These boys (aged 17 years — 24 years) were so confident that they had their tenant verifications done in which they provided their genuine addresses; Atif had his driving license made by providing his genuine details; carried out blasts and returned home coolly to watch their exploits on television; felt no need to flee or change residences frequently; bought sim cards in their own names; registered as students in schools and institutions; sat for examinations midway through planning and executing blasts. And yet, these masterminds had no inkling of the special cell surveillance, and indeed helpfully stored material such as photographs of blast sites on their laptops and cell phones, so that their guilt could be proved promptly by the police whenever they were caught.
Mr. Praveen Swami writes that that "the allegations leveled over the encounter tell us more about the critics than the event itself." Sure, we are skeptics, unwilling to lap up everything that comes forth from "police sources", senior or otherwise; but what does taking dictations from the Special Cell tell us about you, Mr. 'journalist'?

Our doubts remain. Our questions unanswered. Only a time bound, independent inquiry under the sitting judge of the Supreme Court can illumine the truth. What does the Delhi Police and the Government have to fear if the truth is on their side?
Manisha Sethi
Member, Jamia Teachers' Solidarity Group

9/27/2008

धन्यवाद अफलातून भाई, मुस्लिम नौजवान जरूर ध्यान देंगे

आज अफलातून ने ऑरकुट पर एक संदेश भेजा है। आतंकवाद को लेकर काफी गंभीर बातें कही गयी है। ऐसे परिवेश में किसे क्या करना चाहिए और हमारा कदम क्या हो, इस पर सटीक विश्लेषण किया गया है। मुसलिम नौजवानों-’भागो मत , दुनिया को बदलो !’

लेख की कुछ पंक्तियाँ यहाँ है :-

आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई राजनैतिक नहीं होनी चाहिए । मुख्यधारा की राजनीति की कमियों और कुछ नेताओं के अललटप्पू बयानों के कारण उनके दिमाग में यह ग़लतफ़हमी है । ‘दिल्ली के जामिया नगर में हुई पुलिस मुठभेड़ फर्जी थी ‘ कई मुस्लिम समूह और मानवाधिकार संगठन यह मान रहे हैं । इस सन्दर्भ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति रामभूषण मल्होत्रा द्वारा दिया गया एक फैसला महत्वपूर्ण है। रामभूषणजी नहीं चाहते कि उनके नाम के आगे न्यायमूर्ति लगाया जाए । चूँकि यह उनके द्वारा दिए गए फैसले की बात है इसलिए ‘न्यायमूर्ति’ लगाना उचित है। अपने फैसले हिन्दी में देने के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा। उक्त फैसले में कहा गया था कि जब भी पुलिस ‘मुठभेड़’ का दावा करती है उन मामलों में (१) मृतकों के परिवार को पुलिस द्वारा सूचना दी जाएगी तथा (२) ऐसे सभी मामलों की मजिस्टरी जाँच होगी । यदि यह घटना जामिया नगर की जगह नोएडा में होती तो इन दोनों बातों को खुद-ब-खुद लागू करना होता।घटना की जाँच की माँग एक अत्यन्त साधारण माँग है तथा पूरी पारदर्शिता के साथ इसे पूरा किया जाना चाहिए ।
इन मानवाधिकार संगठनों और मुस्लिम समूहों से भी हम रू-ब-रू होना चाहते हैं । इतनी गम्भीर परिस्थिति में बस इतना संकुचित रह कर काम नहीं चलेगा । आतंकी घटनाओ और उसके तार देश के भीतर से जुड़े़ होने की बात पहली बार खुल के हो रही है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भारत के तमाम अमनपसंद मुसलमानों को भुगतना पड़ रहा है । इन घटनाओं के बाद संकीर्ण सोच वाले साम्प्रदायिक समूह हर मुसलमान को गद्दार बताने का अभियान शुरु कर चुके हैं, आगामी लोकसभा निर्वाचन में वोटों के ध्रुवीकरण की गलतफहमी भी वे पाले हुए हैं । आतंकवाद से मुकाबले की नाम पर क्लोज़ सर्किट टेवि जैसे करोड़ों के उपकरण खरीदें जायेंगे और इज़राइली गुप्त पुलिस ‘मसाद’ से तालीम दिलवाई जाएगी । कैनाडा और अमेरिका मे रहने वाले अनिवासी भारतीयों से पूछिए कि पैसे कि ताकत पर कैसे यहूदी लॉबी नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करती है ? इन सब से गम्भीर और नुकसानदेह बात यह है कि मेधावी तरुण यदि ‘आतंक’ में ग्लैमर देखने लगें तो उन्हें उस दिशा से रोकने और अन्याय की तमाम घटनाओं के विरुद्ध राजनैतिक संघर्ष से जोड़ने का काम कौन करेगा ? यह काम मुख्यधारा की राजनीति से जुड़ा कोई खेमा शायद नहीं करेगा।
एक मुस्लिम महिला पत्रकार और कवयित्री ने अपने चिट्ठे पर लिखा , ‘कि दिल्ली का बम काण्ड करने वाले जरूर हिन्दू रहे होंगे’। अत्यन्त सिधाई से उन्होंने यह बात कह दी। मैंने यह देखा है कि शुद्ध असुरक्षा की भावना से ऐसी बातें दिमाग में आती हैं ।‘काम गलत है, इसलिए जरूर हमारे समूह का व्यक्ति न रहा होगा’ - यह मन में आता होगा । राष्ट्रीय एकता परिषद , सर्वोच्च न्यायालय और संसद के सामने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा की कसमे खाने वाली जमात ने जब उस कसम को पैरों तले मसलने में अपना राष्ट्रवाद दिखाया तब किसी हिन्दू के दिमाग में क्या यह बात आई होगी कि जरूर यह काम हमारे समूह से अलग लोगों ने किया होगा ? जिन्हें लगता है कि "वह काम सही था और इसीलिए हमारे समूह ने किया" - उन राष्ट्रतोड़क राष्ट्रवादियों से हमे कुछ नहीं कहना , उनके खतरनाक मंसूबों के खिलाफ़ लड़ना जरूर है ।
मैंने आतिफ़ का ऑर्कुट का पन्ना पढ़ा है जिसमें वह फक्र के साथ एक फेहरिस्त देता है कि किन शक्सियतों के आजमगढ़ से वह ताल्लुक रख़ता है - ……. राहुल सांकृत्यायन , कैफ़ी आज़मी । चार लोगों को जिन्दा जमीन में गाड़ देने वाले भाजपा नेता (पहले सपा और बसपा में रहा है) रमाकान्त यादव या भारत की सियासत के सबसे घृणित दलाल अमर सिंह का नाम नहीं लिखता ! ऐसा कोई तरुण घृणित , अक्षम्य आतंकी कार्रवाई से जुड़ता है , उन कार्रवाइयों की तस्वीरें उतारता है तो निश्चित तौर पर इसकी जिम्मेदारी मैं खुद पर भी लेता हूँ । अन्याय के खिलाफ़ लड़ने का तरीका आतंकवाद नहीं है । आजमगढ़ के शंकर तिराहे के आगे , मऊ वाली सड़क पर प्रसिद्ध पहलवान स्व. सुखदेव यादव के भान्जे के मकान में समाजवादी जनपरिषद के दफ़्तर के उद्घाटन के मौके पर आजमगढ़ के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और फोटोग्राफर दता ने राहुलजी का लिखा गीत दहाड़ कर गाया था - ‘ भागो मत ,दुनिया को बदलो ! मत भागो , दुनिया को बदलो ‘ । आजमगढ़ के तरुणों से यही गुजारिश है ।

कौन देगा बाटला शूट आउट का जवाब

जामिया / बाटला शूट आउट मामले में जिस तरह सियासी जंग शुरू हो चुकी है, यह जल्द थमने वाला नही है। अब जिस तरह के सवाल शुरू हो गए है, इसका जवाब देना किसी के वश की बात नही है। मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग सहित तमाम संस्थाएं सड़क पर है। लेकिन उठे सवालों का जवाब कौन देगा। दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार या केन्द्र सरकार या फ़िर मीडिया। इस हमाम में सभी नगें हैं. आख़िर कौन से सवाल हैं जो आने वाले समय में सिरदर्द होंगे। जरा गौर फरमाएं।

  • क्या 19 सितंबर, 2008 की मुठभेड़ के सिलसिले में किसी तरह की जाँच का काम शुरू किया गया है या इसकी प्राथमिकी दर्ज की गई है।
  • जिस मकान में मुठभेड़ हुई उससे बाहर निकलने का केवल एक रास्ता है। पुलिस की टीम वहाँ मौजूद थी, फिर भी दो लोग भागने में कैसे सफल हो गए.
  • मुठभेड़ के मृतकों और गिरफ़्तार संदिग्धों की पुलिस ने धमाके के चश्मदीदों के सामने पहचान परेड क्यों नहीं करवाई है। मृतकों को बिना पहचान परेड के क्यों दफ़्न कर दिया गया. मीडिया और स्थानीय लोगों को भी न तो मृतकों के चेहरे दिखाए और न ही मुठभेड़ की जगह पर जाने दिया गया.
  • जिन मामलों में पुलिस के पास कोई जानकारी नहीं थी, उसमें अलग अलग राज्यों की पुलिस को कई अहम मास्टरमाइंड कैसे मिलने लग गए। हर गिरफ़्तारी से पहले तक जिनके बारे में कोई जानकारी पुलिस के पास नहीं होती, उन्हें गिरफ़्तार करने के कुछ ही मिनटों में मास्टर माइंड कैसे कह दिया जाता है.
  • अगर पुलिस को मालूम था कि उस घर में चरमपंथी हैं तो पुलिस टीम का नेतृत्व कर रहे एमसी शर्मा बिना बुलैटप्रूफ़ जैकेट के वहाँ क्यों गए।
  • अगर पुलिस को पता नहीं था कि वहाँ चरमपंथी हैं तो मुठभेड़ के तुरंत बाद बिना पूछताछ के किस आधार पर पुलिस ने उस घर में रह रहे लोगों को आतंकवादी क़रार दिया।
  • अगर जामिया नगर के उस घर (बाटला हाउस, एल-18) में रहनेवाले लोग चरमपंथी थे तो उन्होंने 21 अगस्त, 2008 को अहमदाबाद धमाकों के बाद और दिल्ली धमाकों से पहले अपने बारे में सही निजी जानकारी पुलिस को क्यों उपलब्ध कराई।
  • पुलिस ने मृतक संदिग्धों और पुलिस इंस्पेक्टर की पोस्टमार्टम रिपोर्ट की जानकारी अभी तक उनके घरवालों को क्यों नहीं दी हैं और क्यों उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया है।
  • मृतक पुलिस इंस्पेक्टर एमसी शर्मा के शरीर की एक्सरे रिपोर्ट कहती हैं कि उनके शरीर में कोई गोली नहीं पाई गई. उनपर दागी गई गोलियाँ क्या हुईं. क्या उन्हें घटनास्थल से फॉरेंसिक जाँच के लिए एकत्र किया गया.

9/25/2008

कौन सुनेगा जामिया का दर्द

आज एक खास रिपोर्ट बीबीसी के इन्टरनेट संस्करण पर पढने को मिला। टीचरों और छात्रों ने आज रैली निकली थी। कुलपति का बयान आया है। बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए अब्दुल वाहिद आज़ाद की रिपोर्ट कुछ यूं है।

दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया के शिक्षकों ने केंद्र सरकार से माँग की है कि पिछले शुक्रवार को जामिया नगर में हुई पुलिस मुठभेड़ की न्यायिक जाँच कराई जाए.
विश्वविद्यालय परिसर में एक शांति मार्च भी निकाला गया जिसमें कुलपति मुशीरुल हसन, शिक्षक और छात्र शामिल हुए.
शांति मार्च में शामिल छात्र अपने हाथों में तख्तियाँ लिए हुए थे, जिन पर लिखा था, 'हम छात्र हैं, आतंकवादी नहीं'.
पिछले हफ़्ते शुक्रवार को दक्षिण दिल्ली के जामिया नगर इलाक़े में मुठभेड़ हुई थी जिसमें दो संदिग्ध चरमपंथियों की मौत हो गई थी.
पुलिस के मुताबिक़ एक संदिग्ध चरमपंथी गिरफ़्तार किया गया था और दो फ़रार हो गए थे.
जामिया के छात्र भी संदिग्ध
इस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की भी मौत हो गई थी. पुलिस ने मुठभेड़ के दो दिन बाद तीन संदिग्ध चरमपंथियों को गिरफ़्तार किया था. उनमें से भी दो जामिया के छात्र थे.
पुलिस का दावा है कि इन संदिग्ध चरमपंथियों का संबंध पिछले दिनों दिल्ली में हुए बम धमाकों से था.
जामिया टीचर सॉलिडैरिटि ग्रुप नाम के शिक्षकों के एक समूह ने गुरूवार को एक प्रेस कांफ़्रेंस में जमिया नगर में हुई मुठभेड़ की न्यायिक जाँच कराने की माँग की.
मुठभेड़ पर संदेह
प्रेस कांफ़्रेंस को संबोधित करते हुए प्रोफ़ेसर आदिल मेहदी ने कहा, "जिस तरीक़े से मुठभेड़ हुई है उस पर पर हमारा गहरा संदेह है. इसलिए हम चाहते हैं कि मुठभेड़ की न्यायिक जाँच कराई जाए."
उनका कहना था कि मुठभेड़ के बाद से पुलिस जामिया नगर इलाक़े से जिस तरह बेगुनाह लोगों को हिरासत में ले रही है वह चिंताजनक है.
जामिया के शिक्षकों ने यह भी फ़ैसला किया है कि जो लोग गिरफ़्तार किए गए हैं उन्हें क़ानूनी मदद दी जाएगी. शिक्षकों के इस समूह का कहना था कि वे इलाक़े में 'जन सुनवाई' का भी आयोजन करेंगे.
मीडिया का भूमिका
प्रेस कांफ़्रेंस में एक अन्य अध्यापिका मनीषा सेठी ने कहा कि इस पूरे मामले की जिस तरह से मीडिया ने रिपोर्टिंग की है, वह निंदनीय है.
उनका कहना था "मीडिया जज नहीं है. उसे किसी को भी 'आतंकवादी' कहने का हक़ तब तक नहीं है जब तक अदालत उसे गुनाहगार साबित न कर दे."
उन्होंने कहा कि हम एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश में रहते है और इस तरह किसी के ख़िलाफ़ रिपोर्टिंग नहीं कर सकते कि जिससे एक समुदाय विशेष दबाब में आ जाए.
इस प्रेस कांफ़्रेस से एक दिन पहले यानी बुधवार को जामिया के कुलपति मुशिरुल हसन ने छात्रों और शिक्षकों को संबोधित किया था.
उन्होंने छात्रों से कहा था कि वे किसी के बहकावे में न आएँ और जामिया की जो 'धर्मनिरपेक्ष' छवि है उसे क़ायम रखें.
कुलपति ने अपने भाषणा में इस मामले में गिरफ़्तार किए गए जामिया के दो छात्रों को क़ानूनी मदद देने की घोषणा थी.
बीबीसी से बातचीत में मुशीरुल हसन ने कहा, "हमने कहा है जामिया के जिन छात्रों पर आरोप लगा है कि वे आतंकवादी हैं, उन्हें क़ानूनी मदद दी जाएगी. हम तो सिर्फ़ ये सोचते हैं कि जब तक उन पर अपराध साबित नहीं होता, वे निर्दोष हैं. अगर वे दोषी हैं तो उन्हें सज़ा ज़रूर मिलेगी. "
जामिया में लगभग साठ फ़ीसदी छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधा उपलब्ध नहीं है.
ऐसे में विश्वविद्यालय के ज़्यादातर छात्र जामिया नगर के इलाक़े में ही किराए पर कमरा लेकर रहते हैं. पिछले दिनों हुई मुठभेड़ और धर-पकड़ के बाद ऐसे कुछ छात्रों में घबराहट देखने को मिल रही है.
जामिया विश्विविद्यालय प्रशासन का कहना है कि इन तमाम घटनाओं को ध्यान में रखकर गिरफ़्तार छात्रों को क़ानूनी मदद देने की बात कही गई है.

9/24/2008

आप जामिया को कितना जानते हैं


जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर लिखने वाले, बहस करने वाले यहाँ तक की बदनाम करने वालों को जामिया के बारे में जरूर जानना चाहिए। जामिया कोई चावल की हांडी नही है, जो एक छात्र के आतंकवादी होने से वहां के सारे छात्र और टीचर आतंकवादी हो गए। जिसे इस तरह की गलतफहमी हो वह एक बार जामिया की तालीम और तह्बीज कर देखे। यहाँ के जैसा लोकतांत्रिक माहौल हर किसी को भायेगा, बनिस्पत आपके मन में कोई खोट न हो।
ऐसे में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे अशोक चक्रधर ने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है, उसका एक अंश :
जामिआ मिल्लिआ एक ऐसी संस्था है जिसका जन्म सन उन्नीस सौ बीस में असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन के दौरान गांधी जी की प्रेरणा से अलीगढ़ में टैंटों में हुआ था। बाद में दिल्ली के करोलबाग़ इलाके में 13, बीडनपुरा की एक पक्की इमारत में आ गई। सन उन्नीस सौ इकत्तीस में ओखला में इसकी संगे-बुनियाद अब्दुल अजीज़ नाम के एक बच्चे के हाथों रखवाई गई।
और चचा आपको हैरानी होगी कि आज जो सड़क मथुरा रोड से ओखला और बटला हाउस तक जाती है वह छोटे-छोटे बच्चों के श्रमदान से बनी है।
क्या ही जज़्बा रहा होगा, हमारा मुल्क है, हमारा इदारा है। तालीमी मेला लगता था। हिन्दोस्तान पर प्रोजेक्ट दिए जाते थे। अली बंधुओं की मां इस बात पर गर्व करती थीं कि उनके बेटे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ मुहिम में जेल चले गए। जामिआ में एक ख़िलाफ़त बैंड था, जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध तराने गाता-बजाता था। जामिआ का तराना मुहब्बत की बात करता है।
जामिआ में जितने भी रहनुमा हुए उन्होंने प्रेम और मुहब्बत का पाठ पढ़ाया और जामिआ के बारे में ये कहा कि पूरे भारत में यह एकमात्र संस्थान है जहां हर मज़हब का आदर करना सिखाया जाता है। इंसान-दोस्ती और वतन-परस्ती सिखाई जाती है। तालीमी आज़ादी, वतन-दोस्ती, क़ौमी यक़जहती, सांस्कृतिक आदान-प्रदान,ज्ञान की विविधता, सादगी और किफ़ायत, समानता, उदारता, धर्मनिरपेक्षता, सहभागिता और प्रयोगधर्मिता यहां के जीवन-मूल्य हैं। वो बच्चे जिन्होंने सड़क बनाई, अब उनमें से कुछ सड़क किनारे बम रखने लगे। मुझे सुबह-सुबह जामिआ के एक उस्ताद मिले। बड़ी शर्मिन्दगी से कहने लगे— लोग हमसे सवाल करते हैं कि क्या आप बच्चों को यही सिखाते हैं। पूछने वालों को क्या जवाब दें? किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं होता। लेकिन ये जो नई नस्ल आई है, हिंदू हो या मुसलमान, इसमें कई तरह का कच्चापन है।
जामिआ के सभी कुलपतियों ने विश्वविद्यालय के विकास को लगातार गति दी और इस मुकाम तक ला दिया कि इसकी एक अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी। तरह-तरह के सैंटर, नए-नए विभाग, बहुत तरक़्क़ी की जामिआ ने। और अब देखिए। बिगड़ैल बच्चों के कारण मां-बाप को भी शर्मिंदगी का सा सामना करना पड़ रहा है। यह जो अतीफ़ था, जो मारा गया, राजनीति विभाग में ह्यूमन राइट्स में एम।ए। कर रहा था। वो ह्यूमन राइट्स कितना समझ पाया? शायद उसके ज़ेहन में ह्यूमन की परिभाषा कुछ और ही रही होगी। इंसान-दोस्ती सिखाने वाले अध्यापक क्या करें कि बच्चे का कच्चा दिमाग़ इंसान-दुश्मनी तक न पंहुच पाए।
जामिआ के उसूलों की कहानी देश के हर मज़हब के बच्चे को फिर से सुनानी चाहिए और उनसे एक ऐसी सड़क बनवानी चाहिए जो देशवासियों के दिलों तक पंहुचे, जिसपर मुहब्बत के सीमेंट की गाढ़ी और मोटी परत चढ़ी हो।

9/14/2008

हजारों ख्वाईशें ऐसी...

हजारों ख्वाईशें ऐसी... विनीत उत्पल

फिल्म, फ़िल्म और फ़िल्म, यह शब्द है या कुछ और। इससे परिचय कैसे हुआ, क्यों हुआ, यह मायने रखता है। दीवारों पर चिपके पोस्टरों, अख़बारों में छपी तस्वीरें, गली-मोहल्ले में लाउडस्पीकरों में बजते गाने व डायलाग या घरों में रेडियो से प्रसारित होने वाले फिल्मी गाने मन मस्तिष्क पर दस्तक देते। उत्सुकता जगाते। शादी-ब्याह के मौके पर माहौल को मदमस्त करते फिल्मी गाने हों या २६ जनवरी या १५ अगस्त को बजने वाले देशभक्ति के तराने, बचपन की अठखेलियों के साथ कौतुहल का विषय होता। बचपन के वो दिन जब हजारों ख्वाईशें ऐसी कि फिल्मी पोस्टर पर हीरो को स्टाइल देते देख ख़ुद के अरमान स्मार्ट बनने और दीखने की कोशिश में खो जाते। उस दौर में तमाम हीरोइनें एक जैसी लगतीं। मन में उथल-पुथल कि गाने बजते कैसे हैं, डायलाग कैसे बोला जाता है, हीरो जमीन से उठकर परदे पर कैसे आता है, क्या पोस्टर पर दीखने वाला स्टंट वास्तव में होता है।

वो हसीन पल

मां बताती है कि सैनिक स्कूल, तिलैया में हर शनिवार को फ़िल्म दिखाया जाता था। फुर्सत मिलने पर घर के लोग फ़िल्म देखने जाते थे। पापा जब सैनिक स्कूल में गणित के टीचर थे तभी मेरा जन्म हुआ। मैं कुछेक महीने का होऊंगा, तभी पापा सैनिक स्कूल की नौकरी छोड़ भागलपुर विवि में लेक्चरर हो गए। अक्सर मां को याद आता है सैनिक स्कूल के वो पल।

यह आकाशवाणी है

जब मैंने होश संभाला तो घर में उसी रेडियो की आवाज को गूँजते पाया जो पापा को शादी में मिली थी। घर के जो लोग फुर्सत में होते आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले गाने सुनते, एफएम तो था नहीं। स्वाभाविक रहा होगा, मेरी रूचि गाने की ओर बढ़ी होगी। मेरे दादाजी गाना सुनने के शौकीन थे।

यह किसका डायलाग है रे...

घर में रेडियो के माध्यम से जाना कि गाना क्या होता है। मौके-बेमौके पर मोहल्ले में बजने वाले लाउडस्पीकरों से जाना कि यह शहंशाह का डायलाग है या गब्बर सिंह का। उसी दौर में पहली बार टेलीविजन से रूबरू हुआ। मन चंचल और स्वभाव जिद्दी। रविवार की शाम फीचर फ़िल्म दूरदर्शन पर दिखायी जाती। दूसरे के यहां फ़िल्म देखने जाता लेकिन इंटरवल तक। सालों दर साल यही क्रम चलता रहा।

भूखे पेट न भजन गोपाला

मैं उम्र के उस पड़ाव से गुजर रहा था जब मेरे दोस्त लुकछिप कर सिगरेट पीते, फ़िल्म देखने जाते, सेक्स की बातें करते, यहाँ तक कि मारपीट भी। लेकिन मेरी सोच उस वक्त भी और आज भी कुछ उल्टी थी। मेरा मानना था कि जो काम सभी करेंगे वह मैं नहीं करूँगा। यही कारण रहा कि कभी भी मेरे दोस्तों का ग्रुप नहीं बना। दोस्तों की देखा-देखी में सिगरेट को मुंह लगाया लेकिन छिपके कुछ भी काम करना अच्छा नहीं लगा, जो आज भी है। शाकाहारी तो बचपन से हूँ ही। फ़िल्म देखने की इच्छा हुई, लेकिन लगा कि तीन घंटे तक हाल में भूखा रहना पड़ेगा। घर के लोग फ़िल्म देखने जाते नहीं थे, मेरा अकेले जाने का सवाल ही नहीं था।

छुट्टियों में गाँव, गाँव के वो लोग

कालेज में गरमी और दशहरे की लम्बी छुट्टियाँ होती थी। सपरिवार गाँव जाते। वहां के लोगों को फ़िल्म देखने और उसके बारे में विस्तार से बातें करते देखता, चुपके से सुनता। जिसकी शादी होती वह पहली बार अपनी दुल्हन को फ़िल्म दिखाने जरूर ले जाता। मेरा बालमन सोचता और समझता कि फ़िल्म देखना रोमांचक होता होगा। कुछ न कुछ खास तो होगा ही क्योंकि गाँव के लोग शादी के बाद ही सिनेमा देखने जाते है। मैं तय करता पहले फ़िल्म देखने जाऊँगा तब शादी करूँगा।

पापा की मार और दुलार

मेरा सौभाग्य रहा कि पापा ही मेरे पथ-प्रदर्शक रहे। चाहे पढ़ाई की बात हो या दुनिया जहान की। खेल का मैदान हो या फिल्मी दुनिया की, राजनीति की रपटीली राहों की कहानियां हों या बीमारी से छुटकारा पाने की तरकीब, उन्हें आलराउंडर पाया। शायद फिल्मों की बातें भी उन्हीं से जाना होऊंगा, क्योंकि जीवन का सबसे अधिक समय मां के साथ नहीं बल्कि पापा के साथ बीता। सही काम न करने पर वो खुश, नहीं तो डांट-फटकार यहाँ तक कि पड़ती थी मार। पापा ने ही बताया था कि अमिताभ बच्चन एक हीरो है और उसके पिता हरिवंश राय बच्चन एक कवि और प्रोफेसर रहे हैं। मेरा मन सोचता आख़िर मैं भी तो एक प्रोफेसर का बेटा हूँ तो मैं भी क्यों नही...

पहले पढ़ाई फ़िर फ़िल्म

पापा का मानना था कि फ़िल्म देखने में सिर्फ़ समय और पैसे की बर्बादी होती है। तीन घंटे कोई बच्चा पढ़ाई कर ले तो क्लास में बेहतर या मैदान में खेल ले तो अच्छे स्वास्थ का स्वामी बन सकता है। पढ़ाई के मामलों में वे किसी भी तरह का सामंजस्य बिठाने के खिलाफ रहे हैं। यह अलग बात थी कि मेरे मामलों में उन्होंने अपना उसूल बदला। मैं उन दिनों फ़िल्म देखने जाता था, क्या समझता यह पता नहीं। शाम को दूरदर्शन पर फ़िल्म देखने के लिए जाने के लिए भूमिकाएँ बांधनी पड़ती थी। सुबह से शाम तक इतनी पढ़ाई करनी होती थी कि पापा खुश हो जायें। पापा द्वारा पूछे सवालों का जबाब नहीं दिया तो सारी योजना का वाट लगने का खतरा होता था।

जो जीता वही सिकंदर

पापा का कहना था कि क्लास में बेहतर करने के साथ-साथ मेरा दिया हुआ टास्क पूरा करोगे तभी तुम्हारी बात मानी जायेगी। बालपन में अपने सपने को हकीकत में बदलने का एक ही रास्ता सूझता, वो था जमकर पढ़ाई करने का। कभी पापा जीतते तो कभी मैं। शायद पापा को अपने बेटे से हारने के बाद भी गर्व होता, जैसा एक पिता को होता है। वे हंसकर मुझे अपनी मर्जी से जीने की छूट देते। लेकिन जब मैं हारता तो थोड़ी देर के लिए झल्लाता और अपनी खामियों को अगली बार दूर करने का प्रयास करता। ऐसे ही रोमांचक समय में अमर अकबर एंटोनी, नागिन, कालीचरण, शोले, रोटी , कपड़ा औए मकान, सीता और गीता, राम और श्याम, हाथी मेरा साथी, सत्यम, शिवम सुन्दरम, क्रांति आदि न जाने कितनी फिल्में इंटरवल तक देखी।

कल्पना की अनुगूँज

सत्तर व अस्सी के दशक में तारापुर महज एक छोटा सा क़स्बा हुआ करता था। यहां की गलियों में मेरा बचपन बीता। एक ही सिनेमा हॉल था, कल्पना टाकिज। कुछ अरसा पहले पता चला उसका अब नामोनिशान नहीं है। टाकिज के मालिक ने हॉल के बगल में ही एक वीडीओ हाल भी खोला था, जहाँ सीडी के जरिये नयी फिल्में दिखाई जाती थी। कल्पना सिनेमा हॉल की टिकटें १५ अगस्त और २६ जनवरी को उस दौर में भी ब्लैक में बिका करती थीं। ये सब जानकारी मुझे अपने दोस्तों से मिलती रहती थी। दीगर बात यह थी की तारापुर की जनसँख्या कम होने के कारण लोग एक-दूसरे को जानते थे। इस कारण जो भी बच्चे लुकछिप कर फ़िल्म देखने जाते, घर तो घर पूरा मोहल्ला और स्कूल तक में यह ख़बर फ़ैल जाती और लोग उसे अच्छी नजर से देखने से इंकार करते।

पैसे चुराकर देखी थी पहली फ़िल्म

आठवीं क्लास में था, जब पहली बार हॉल में जाकर बड़े परदे पर फ़िल्म देखी थी। घर में दादाजी के बटुए से साढे तीन रूपये चुराए थे। तीन रुपये में दो टिकटें आयीं और पचास पैसे का पसंदीदा नास्ता झालमुढी खाया था। फ़िल्म थी जंगबाज, हीरो थे गोविंदा और राजकुमार। गया तो था फ़िल्म देखने लेकिन जिज्ञासु मन होने के कारण फ़िल्म कम हॉल का सीन अधिक देख रहा था। आगे-पीछे के कुर्सियों की ओर झांक इस डर से भी रहा था कि कोई पहचान का न मिल जाए। डर था कि घर तक मामला बता दिया तो बिना पूछे सिनेमा देखने का दंड भुगतना पड़ सकता है। जिस साथी के साथ फ़िल्म देखने गया था उसे पहले ही मैंने सख्त हिदायत दे रखी थी कि इसकी जानकारी किसी को कानोकान न हो, तभी मैं टिकट का खर्चा दूंगा। हम अपने मिशन में कामयाब रहे थे।

माली तो दो पर फ़िल्म एक

जब आप एक बार किसी काम को पूरा करने में सफल हो जाते हैं तो आपकी इच्छा और मनोदशा कुछ और हो जाती है। तारापुर में फ़िर छिप कर किसी और दोस्त के साथ फ़िल्म एक फूल, दो माली देखने गया। फ़िल्म अच्छी लगी। जीवन के १८ साल तारापुर की गलियों में बिताये लेकिन हॉल में इन दो फ़िल्मों को छोड़ कोई भी फ़िल्म नहीं देखी। या तो छिपकर फ़िल्म देखने की कभी इच्छा नहीं हुई या कल्पना सिनेमा हॉल की बदतर हालत देखकर।

काश, आमिर जैसे स्मार्ट होता

उम्र के जिस मोड़ पर वास्तविक तौर से फ़िल्म जगत से रूबरू हुआ, यही वह वक्त था जब बालीवुड की मायावी दुनिया में आमिर खान, सलमान खान, माधुरी दीक्षित जैसे कलाकारों का पदार्पण हुआ। फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक का पोस्टर देख पसंदीदा हीरा आमिर खान बना तो जूही चावला के मनमोहक मुस्कान खूब भाती थी। माधुरी दीक्षित, दिव्या भारती, काजोल की अख़बारों में छपी तश्वीरें मेरे किताबों के जिल्द को आकर्षक बनाती। इसी कालखंड में घायल, दिल, आशिकी, आज का अर्जुन, हम आपके हैं कौन, कुली नंबर वन, कारण-अर्जुन, दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे, रंगीला, बार्डरतेजाब, मैंने प्यार किया, सौदागर, साजन, सड़क, मोहरा जैसी तमाम फिल्में विभिन्न चैनलों पर देखी।

मैं भी होता एक सितारा

सुनहरे परदे की चमकती दुनिया स्नातक की पढाई करने के दौरान सर चढ़ कर बोल रही थी। सोचता क्यों न फ़िल्म पत्रकार बन जाऊं। उसी दरम्यान एक बार इंदौर गया था, दीदी के पास। पास ही फ़िल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे रहते हैं। उनसे मिलने गया और भविष्य के सपनों को सामने रखा। उन्होंने जहाँ इस फील्ड में न आने की सलाह दी वहीं सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान से डिग्री लेने पर मुम्बई में कुछ बात बनने की बात कही। बस मामला जस की तस अटक गया।

कोलकाता की वो बारिश

इंटर करने के बाद इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तयारी कर रहा था। उसी दौरान कई-कई महीनों तक कोलकाता में रहा। मेरा ठिकाना सेन्ट्रल कोलकाता स्थित राजेंद्र छात्रावास हुआ करता था। वहां रहने के दौरान एक दिन की बात याद आती है। घनघोर बारिश हो रही थी। सुबह उठा, पता नहीं क्या सूझी, फ़िल्म देखने चला गया। अकेला था, मन परेशान था। लगातार चार शो देखा। राजा बाबू और सूर्यवंशम फ़िल्म इनमें प्रमुख था। बाद के साल में कोलकाता में अपने दोस्तों के साथ सरफ़रोश देखी, जिस दिन रिलीज हुई थी।

हॉल में ही सो गया

नब्बे के दशक के आखिर में तारापुर के रामस्वारथ कालेज से पापा का ट्रांसफर मारवाडी कालेज, भागलपुर हो गया। संयोगबस इसी कालेज से मैंने भी स्नातक की है। उस दौरान न तो कभी फ़िल्म देखने की इच्छा हुई और न ही मौका मिला। उस दौर में मेरा सबसे अधिक समय सामाजिक कामों में बीतता था, जिस कारण पापा की नाराजगी का सदैव सामना करना होता था। हाँ, एक बार दीदी और उनके ससुराल वालों के साथ भागलपुर के प्रतिष्ठित हॉल शारदा सिनेमा हॉल में फ़िल्म देखने गया था। संजय दत्त की कोई फ़िल्म थी। सुबह कोलकाता से लौटा था, थका था, हॉल ही में सो गया।

बाइस्कोप की पढाई

दिल्ली आया तो कभी फुर्सत ही नहीं मिली कि मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखने जा सकूँ। फ़िर भी इतने सालों में सिर्फ़ और सिर्फ़ तीन फिल्म देखी। मेरी बुरी आदत रही है कि जो कम मन से नहीं हुआ उसका बारे में ज्यादा ख्याल नहीं रखता, यही इन तीनों फ़िल्मों के साथ हुआ। दोस्तों का मन रखने गया था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से कोर्स करने के दौरान सही तौर पर फिल्मों और इसकी बुनयादी चीजों से अवगत हुआ। यहीं, गोविन्द निहलानी को सुना, अनवर जमाल व सेजो सिंह की बनी फ़िल्म स्वराज देखी। फ़िल्म के तकनीकी पक्षों को जाना। अशोक चक्रधर ने अपनी बनी टेली फ़िल्म दिखाई। निर्देशक के काम को जाना, स्क्रिप्ट राइटिंग सीखी। असगर वजाहत और जवरीमल पारिख जैसे टीचर मिले। विवेक दुबे ने दुनिया की बेहतरीन फ़िल्मों की जानकारी दी।

जिन्दगी की जीत पर यकीन कर

जामिया में पढाई के दौरान और अपने समय की बेहतरीन फ़िल्मों को देख कर सिने जगत के कई पहलुओं से अवगत हुआ। घर में भी इस बात के जानकारी दी। न तो मैं और न ही मेरे घर के लोग इस विधा को उस नजरिये से देखते हैं जिस नजरिये से आम पब्लिक देखती है। भले ही लोगों को फ़िल्म के मायावी दुनिया प्रभावित करती हों, लेकिन मेरे साथ ऐसा कभी नहीं रहा। वास्तविकता के धरातल पर जीना शगल है, भले ही कल्पना की उड़ान आसमान के इस छोड़ से उस छोड़ तक अपनी तान भरती रहे।

9/13/2008

बिहार के बाढ़ पीड़ितों के नाम एक शाम

Dear friends,

This is to inform you that Rag Virag Cultural and Educational Society, New Delhi is organizing "HAMAREE SANSAKRITIK DHAROHAR " for the relief of Bihar flood victims।This is the campaign to support or provide aids to the suffering people and this becomes our responsibility to help them and shows our humanity towards other human being।The disaster in North-eastern Bihar is not just a flood, but its a serious natural calamity of changing of path of a river।This calamity has caused 40 lakh people displaced and homeless for about two years, until the dam is repaired and river goes back to its old path।
Ms।Sheila Dikshit, Honorable Chief Minister of Delhi has given her kind consent to be the Chief Guest as per the following programme:
Date: 16th September (Tuesday)
Time: 6।०० शाम
Venue: Bal Bhawan, Kotla Road, ITO, New Delhi

We take this opportunity to invite you to join the programme। We hope you shall very kindly accept our invitation and hope to see you there with friends and family।
Thanking you and with warm regards,
Yours sincerely,
Punita
Secretary
www.punitaragvirag.com
N.B. Please do come with your family and friends. Kindly treat this letter of mine as the invitation card.

9/01/2008

कोसी में समाया मेरा गाँव

आय ते तोरा से गप भए रहल छौ, लेकिन भेंट नहि हेतो।" यह शब्द मेरे उस चचेरे भाई शंकर भैया के हैं, जिनके साथ कभी साथ खेलते थे, साईकल पर बैठाकर उदा, किशुनगंज्, ग्वालपाड़ा, बिहारीगंज ले जाते थे. सुखसेना संस्कृत कालेज के टापर रहे भैया कि नियति ऐसी है कि आज वह अपने परिवार के साथ किशुनगंज में मौत को नजदीक से देखते हुए आलंगन की बाट जोह रहे हैं.
मधेपुरा-किशुनगंज रोड पर ग्वालपाड़ा से पांच किलोमीटर आगे उदा है। उदा पुल से महज आधा किलोमीटर आनंद्पुरा है जहां मेरे बचपन के दिन बीते. बगीचे में आम तोडकर खाये. भुट्टे चुराये और गन्ने चूसता था.लेकिन आज गांव में पानी है. घरों की पांच से छह फ़ीट पानी है.तेरह दिनों से कोशी का प्रकोप सभी झेल रहे है.
पापा और मम्मी भागलपुर में हैं। कुछ दिन पहले भागलपुर विश्वविद्यालय में हड़्ताल थी, तब पापा और मम्मी आनंद्पुरा गये थे. उनकी आत्मा तो बस आनंदपुरा में ही बसती है. हमेशा कह्ते, प्रोफ़ेसर की नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद तुम्हारे पास से जब मन उब जायेगा, तब गांव में ही रहुंगा. मां कह्ती एक बार नौकरी सी सिर्फ़ दस दिन की छुटी लेकर आ जाओ, गांव चल कर देखो. इस साल भी जब होली से पहली भागलपुर गया था तो मां ने जिद की थी जाने के लिये, लेकिन जा नही पाया था.
उस दिन चार बजे सुबह आफ़िस से आने की बाद अपने शकरपुर के कमरे पर सो रहा था, लगभग सात बजे मोबाइल पर चचेरे भाई चंदन भैया का फ़ोन देखकर नींद खुल गयी। वह दिल्ली में ही रह्ते हैं. उनसे हुई बात ने मेरी नींद उड़ा दी.बताया गांव में एकाएक पानी घुस आया है. सभी लोग छत पर दिन्-रात गुजार रहे हैं.
मैने तुरत पापा को फ़ोन लगाया। पापा ने कहा चाचा से तीन दिन पहले बात हुई थी, लेकिन अंदाजा था कि शायद पानी आ सकता है. फ़िर पापा ना जाने कहां-कहां फ़ोन कर सभी सम्बंधियों की खोज-खबर ले रहे हैं
बडे चाचा का पूरा परिवार किशुनगंज में फ़ंसा है। किशुनगंज से बिहारीगंज जाना मुश्किल है. बिहारीगंज से बनमनखी तक ट्रेन कल तक चल रही थी, बीबीसी ने खबर दी है कि आज ट्रेन चलना भी बंद हो गया.
छोटे चाचा, चाची और उनकी नतनी गुड़िया रविवार को किशुनगंज बीडीओ के परिवार के साथ किशुनगंज से बिहारीगंज के लिये निकल चुके हैं, लेकिन अभी कहां हैं। कुछ पता नहीं.पूरी बस्ती में कोई नहीं है, मालूम चला कि गांव के एक चाचा खोखा काका सिर्फ़ वहां गांव की रखवाली के लिये मौजूद हैं.बचपन से मैं ही नहीं लोगों ने उनके अदम्य साहस को देखा है.
सोच कर सिर दर्द करने लगता है। शरीर कांपने लगता है, बाढ़ की जानकारी पाकर्, जानकारी सुनकर्.वह भीत के घर की याद आती है, जिसे तीनों बहनों ने मिलकर, मां के साथ हाथ बंटाकर बनाया था. याद आ रहा है वह लकड़ी का वो सामान जो कभी मैने पूर्वजों के रोपे पेड़ को काट कर बनवाया था,वो आकर्षक डिजाइन का पलंग,वो कुर्सी.याद आ रही है अपनी दादाजी का समाधि स्थल्.
पापा कह रहे थे थोड़ा भी पानी कम हो तब तो वहां जा सकेंगे। सुबह से शाम तक गांव के लोगों को घर-घर फ़ोन कर कहते आप गांव छोड्कर बाहर आ जायें.बाद में सब ठीक हो जायेगा.
आज शंकर भैया बता रहे थे कि राहत सामग्री नही के बराबर है।कई-कई दिनों के बाद नाव आती है. हेलिकाप्टर से गिराये जा रही राहत सामग्री पानी में जा रहा है. यहां किसी का कोई सुनने वाला नही है. जीवन का क्या होगा, पता नहीं.
पापा की सबसे बड़ी बहन यानी मेरी बूआ लापता है। बूढ़ी आंखें पता नही अपनों को देख पायी होगी या पायेगी मालूम नही.
माना कि कोसी, गंडक और बागमती मिथिलांचल में हर साल कहर बन कर आती है।लेकिन इस बार जो हुआ इसके पीछे आप माने या माने मेरा मानना है कि यह विपदा मनुष्य की खुद की बनायी है.
बस, अब आगे लिखने की हिम्मत नही हो रही है. पता नही वो गांव्, वो गलियों में फ़िर से रौशन होगी कि नहीं, अपनी हाथों से बानाये घरोंदे को हमारे जैसे और परिवार देख पाएंगे कि नहीं.

8/13/2008

मैथिली में ई-पेपर

ब्लॉग के जरिए जिस प्रकार हिंदी को ऑनलाइन बढ़ावा मिल रहा है, ठीक उसी तेजी से कई आंचलिक भाषाएं भी ब्लॉग जगत में कदम बढ़ा रही हैं। इसी प्रयास में बिहार की राजधानी पटना में कुछ महिलाएं मैथिली को ऑनलाइन बढ़ावा देने में जुटी हुई हैं। यहां की कुछ महिलाएं मैथिली का पहला ई-समाचार पत्र ''समाद'' ऑनलाइन प्रकाशित कर रही हैं।
वर्डप्रेस डॉट कॉम के सहयोग से 'समाद' को निकाला जा रहा है। इस ऑनलाइन समाचार पत्र को ब्लॉग की शक्ल में निकालकर ये महिलाएं एक अलग प्रयोग कर रही हैं। खास बात यह है कि इस ऑनलाइन समाचार पत्र को निकालने वाली छह महिलाओं का पत्रकारिता जगत से कोई संबंध नहीं है।
यहां पर पाठकों के लिए बिहार से जुड़ी तमाम खबरें मौजूद हैं। 'समाद' का मैथिली में अर्थ होता है संदेश। इस खास तरह के समाचार पत्र रूपी ब्लॉग की संचालक महिलाओं का कहना है कि इसके जरिए वे बिहार की एक अलग छवि लोगों तक पहुंचाने का प्रयास कर रही हैं।
ऐसी कई खबरें, जिसे समाचार पत्र या चैनलों पर नहीं देखा जा सकता है, उसे आप 'समाद' में पढ़ सकते हैं। मसलन, बिहार के मधुबनी जिले के ककरौल गांव में पांच इंटरनेट कैफे किस प्रकार यहां के युवाओं में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति लाने का प्रयास कर रहे है, इस संबंध में यहां एक खास रिपोर्ट है ।
विश्व में मैथिली भाषी लोगों की संख्या लगभग तीन करोड़ है। हालांकि, 'समाद' के अलावा भी मैथिली में कई ब्लॉग सक्रिय हैं, जहां साहित्य संबंधी ढेर सारी पोस्ट पढ़ने को मिल जाएगी, लेकिन समाद उन ब्लॉगों से भिन्न है। यहां ब्लॉग को समाचार पत्र के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। 'बेटा' संस्करण में होने के कारण यहां सामग्रियों को खास तरीके से पेश करने में सुविधा होती है।
'समाद' को कुमुद सिंह, प्रीतिलता मलिक, ममता शंकर, सुषमा और छवि नाम की महिलाएं चला रही हैं। इस ऑनलाइन समाचार पत्र को प्रकाशित करने में इन्हें 1100 रुपये प्रति माह खर्च करने पड़ते हैं।
साभार: अनुभव

8/04/2008

मोटा होना सबसे बड़ा गुनाह

मोटा होना सबसे बड़ा गुनाह

यदि आप मोटे हैं, तो आने वाले समय में जीना मुश्किल हो सकता है। अभी तो आप घर और आसपास मजाक का पात्र बनते थे लेकिन आने वाले समय में शायद ही हवाई यात्रा कर सकेंगे। एक एयरलाइन्स ने अभी तो मोटी एयर होस्टेस को नौकरी पर नही रखने का ऐलान किया है। वही एयर एशिया एक्स ने मोटे यात्रियों से अधिक भाडा वसूलने का फ़ैसला लिया है।

इंग्लैंड से छपने वाले अख़बार 'दी सन' ने ख़बर दी है की मलेशिया की कंपनी एयर एशिया एक्स भाडा बढ़ने को लेकर विचार कर रहा है। कंपनी का मानना है की तेल के दामों में वृद्धि होने के कारण ऐसा फ़ैसला लिया जा रहा है। अभी यात्रियों के साथ-साथ हवाई जहाज का वजन का लगातार आंकलन किया जा रहा है। कंपनी के जेनरल मैनेजर डारेन राइट ने बताया कि पूरी तरह आंकलन के बाद ही इस मामले में फ़ैसला लिया जाएगा। कंपनी का मानना है कि तेल के दाम में मार्च तक दो सौ अमरीकी डालर प्रति बैरल होने से एयर लाइन्स का खर्चा बढ़ जाएगा।

यहाँ मामला मोटे लोगों से अधिक भाडा वसूलने का नही है, बल्कि अपने शरीर का ख्याल रखने का है। आज की दुनिया जहाँ काफी प्रोफेशनल हो गयी है, वहां आपकी दिक्कतों को समझने वाला कोई नही है। बिजनेश सिर्फ़ बिजनेश होता है। यहाँ न कोई हमदर्दी न ही कोई मोह-माया। आपको हर समय ख़ुद के प्रति सचेत रहना होगा। न सिर्फ़ करियर को लेकर बल्कि ख़ुद के प्रति यानि शरीर को लेकर भी।

8/01/2008

भारत के न्यूक्लिअर रियेक्टर का होगा निरीक्षण

भारत के न्यूक्लिअर रियेक्टर का होगा निरीक्षण

माने या न माने जल्द ही भारत के न्यूक्लियर रिएक्टरों की जाँच अमरीकी न्यूक्लियर जाँच एजेंसी करेगी। इस के बाद भारत एटमी डील के और नजदीक हो जाएगा। इस मामले को लेकर washsingtan पोस्ट में विस्तृत ख़बर छपी है.

India moves a step closer to US nuclear pact
» Links to this article The Associated Press Friday, August 1, 2008; 10:23 AM
VIENNA, Austria -- The U.N. nuclear watchdog adopted a plan Friday for inspecting India's nuclear reactors, moving the country one step closer to a landmark nuclear deal with the United States.
The safeguards agreement approved by the International Atomic Energy Agency's 35-member board will effectively allow U.N. monitors access to 14 existing or planned Indian nuclear reactors by 2014.
The inspections agreement was an essential step toward India finalizing a pact with the United States that would end more than three decades of nuclear isolation. The deal will open India's civilian reactors to international inspections in exchange for the nuclear fuel and technology it has been denied by its refusal to sign the Nuclear Nonproliferation Treaty and its testing of atomic weapons.
Without IAEA safeguards, India cannot import nuclear technology from the 45-nation Nuclear Suppliers Group, which includes the United States. India must now strike a separate agreement with the Nuclear Suppliers Group. The U.S. Congress will then need to approve the U.S.-India अच्कोर्द।The deal is seen as the cornerstone of a budding strategic partnership between the United States and India, which was officially neutral during the Cold War but had warm relations with the Soviet Union।

The IAEA board of governors approved the safeguards agreement by consensus despite criticism that ambiguous wording in the deal could end up limiting international oversight of India's reactors, undermine the international nonproliferation regime and possibly help supply its arms programs with fissile material.
Britain hailed passage of the agreement as a "significant contribution to energy and climate security, as well developmental and economic objectives for India and the international community."
It also said it represents a gain for the nonproliferation regime, echoing comments by Washington leading up to passage.
India first conducted a nuclear test explosion 34 years ago after it broke out of its foreign-supplied civilian program to develop atomic arms।

साभार - वॉशिंगटन post

7/20/2008

विक्रम तलवार को जानना क्या भारतीयों के लिए आवश्यक है ?

विक्रम तलवार को जानना क्या भारतीयों के लिए आवश्यक है ?

यह सही है की बहुत कम ही लोग विक्रम तलवार के नाम से परिचित होंगे और उन्हें जानते होंगे। लेकिन अमेरिका के किसी भी बैंक के अधिकारी से पूछिये, शायद ही इसका जबाव कोई ना में दे। ५९ साल के विक्रम इईक्सैल सर्विस होल्डिंग के एक्जिक्यूटिव चेयरमैन हैं। नयी दिल्ली में पैदा हुए, भारत से एमबीए करने वाले विक्रम ने करीब २६ साल तक बैंक आफ अमेरिका के साथ काम किया।
बातचीत में वह कहते हैं कि जिस दौर में मैं पैदा हुआ उस वक्त बहुत कम ही माता-पिता दोनों नौकरी करते थे, ऐसे ही एक परिवार में मेरी पैदाइश हुई। उन्होंने मुझे सिखाया कि कैसे लोगों के साथ कम किया जाता है। दोनों से मैंने सीखा कि अपने सहयोगियों के साथ किस तरह सामान्य और नेचुरल तरीके से काम करना चाहिए।
वे कहते हैं कि भारत से एमबीए करने का बाद महज २१ साल की उम्र में बैंक आफ अमेरिका में नौकरी करनी शुरू की। मैंने बैंक के लिए अमेरिका, भारत सहित नौ देशों में काम किया। यह वही समय था जब कोई दूसरी नौकरी नही बदल सकता था।
२६ साल कम करने के बाद मैंने बैंक से अवकाश लेने का निश्चय किया। इसी क्रम में मैंने पत्नी से कहा मैं भारत वापस जाना चाहता हूँ और वहां जमकर गोल्फ खेलूंगा। उसने कहा, हमलोग देखेंगे। इसके महज छः महीने बाद उसने मुझे नौकरी करते हुए पाया।
मैंने दो साल तक एर्नेस्ट एंड यंग के लिए कम किया। बैंक आफ अमेरिका के पुराने सहयोगी रोहित कपूर के साथ इईक्सैल के स्थापना की। हाल में जहाँ मैं इसका चेयरमैन बना और रोहित चीफ आपरेटिंग आफिसर से सीईओ बन गया है। वह मुझसे करीब १५ साल छोटा है। हम दोनों अपनी समझदारी से काम करते हैं। मैंने कभी उससे यह नही कहा कि मैं तुमसे बड़ा हूँ और मेरा अनुभव अधिक है।
अधिकतर कंपनी के संस्थापक अपने काम में तेजी लाना चाहते हैं। इसके लिए वह अधिक से अधिक कम करते हैं। ऐसे में नए और युवा लोग पीछे रह जाते हैं और वह सोचते हैं कि इस कंपनी में उनके आगे बढ़ने के सम्भावना नही है। मैं इस बात को महसूस करता था इस कारण हमारी कंपनी में ऐसा नाम हो और युवाओं को कम करने का जमकर मौका दिया जाए।
हमारी कंपनी का मुख्यालय न्यूयार्क में है। लेकिन अधिकतर कारोबार भारत और फ्फिलिपिंस में है। मेरा आधा समय दुनिया को घूमने और आधा समय भारत में बीतता है।
वे कहते हैं कि पारंपरिक तौर से ओउत्सोर्सिंग के तहत कालसेंटर और नानक्रिटिकल त्रंजन्स्क्सन को माना जाता है। समुद्र पार की यह इंडस्ट्री आज के दौर में यह एक अलग मुकाम हासिल करने में सफल हुआ है।
दूसरों कि भांति हमलोग भी बैंकिंग और बीमा क्षेत्र में एक अलग मुकाम हासिल करने में लगे हैं।
मसलन, संपत्ति से जुड़े मामलों कि शिकायत को देखने के आलावा रिस्क मैनेजमेंट से सम्बंधित मामलों में लोगों को सलाह देने का काम हमारी कंपनी करती है।
पुराने दिनों को याद कर तलवार बताते हैं कि कई बार कंपनी को मुश्किल हालात का भी सामना करना पड़ा है। जब हमने १९९९ में कंपनी की शुरुआत की थी तब जीई कैपिटल सर्विस के चेयरमैन और सीईओ गैरी वेंदत्त बतौर चेयरमैन हमारे साथ थे। हमलोग भारत में सेवा मुहैया कराने के लिए तीसरी पार्टी के खोज कर रहे थे। हमलोगों को कोई फंड नही मिल रहा था उस वक्त गैरी हमलोगों कि सहायता की। जब वह कंसेको के चेयरमैन बने तब उन्होंने भारत में ओउत्सोर्स करने का निश्चय किया
इसे पाने के लिए २००१ में कंसेको ईक्शैल लाये लेकिन एक साल बाद कंसेको दिवालिया हो गया। उस दौर में नौबत ऐसी आ गयी कि अपने कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे नही थे। ऐसे ही समय में ओके हिल कैपिटल पार्टनर और ऍफ़टी वेंचर्स के साथ ईक्शैल को वापस लाये. नयी क्लईन्त को जोड़े और किसी भी नयी कर्मचारी को नही रखा। इस कारण बाजार में हमारी छवि खासकर कर्मचारियों के बीच एक अलग तरह के रूप में सामने आयी।
एक अच्छा सीईओ और सामान्य के बीच लीडरशिप का अन्तर होता है। कर्मचारी आप क्या चाहते हैं , उसे देखते और समझते हैं। इस बिजनेस में हमलोग घंटों में काम करते हैं। जब आप भारत में रहते हैं , आप दोपहर से काम शुरू करते हैं जो देर रात तक चलता है। लेकिन जब आप अमेरिका में होते हैं तब आपको भारत और अमेरिका दोनों समय के अनुसार काम करना होता है। आपको आपने मातहत से कहना होता है, जब किसी कम को मैं कर सकता हूँ तो आप भी कर सकते हो। कंपनी से जुडी कई परेशानियाँ सामने आती है फ़िर भी आपको उनके साथ हमेशा रहना होता है।
(न्यूयार्क टाइम्स में पैत्रिका आर ओल्सन की बातचीत पर आधारित )

7/18/2008

गूगल के मुनाफा ३५ फीसदी बढ़ा, फ़िर भी आशा के अनुरूप नही

गूगल के मुनाफा ३५ फीसदी बढ़ा, फ़िर भी आशा के अनुरूप नही

सन १९९८ में स्थापित गूगल इंक दूसरे तिमाही में मुनाफे में ३५ फीसदी का इजाफा हुआ है। इंटरनेट सर्च इंजन के इस हद तक लोकप्रिय होने के कारण १.२५ बिलियन अमरीकी डालर की अधिक की कमाई हुई है।

हालाँकि इन बात से इंकार नही किया जा सकता है की गूगल के शेयर होल्डरों को इस बार निराशा हाथ लगी है, क्योंकि आशा के अनुरूप मुनाफा नही हुआ है और उनके एक शेयर का दाम महज ३.९२ अमरीकी डालर है।

गूगल की कमाई ५.४ बिलियन हुई है जो इसी समय के पिछले साल की तुलना में ३९ फीसदी अधिक है। गूगल की सबसे अधिक कमाई आन लाईन विज्ञापन से होती है।

7/05/2008

शहर में तो सब बसेंगे पर कुछ तो...

पिछले कुछ दशकों से कई ऐसे मुद्दें हैं जो भारत और चीन दोनों के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को अलग भी कर दे तो भी दोनों देशों के पास आन्तरिक मुद्दे कई हैं जिससे निजात पाने की जद्दोजहद में दोनों देश जूझ रहे हैं। मसलन, जनसँख्या वृद्धि, प्रदूषण सहित शहरों की ओर पलायन व शहरीकरण गंभीर मसला है।
यह सच है की चीन ने अपने यहाँ शहरीकरण को एक नयी पहचान दी है। जिसे भारत ही नही पूरी दुनिया को अपने नजरिये से देखना चाहिए और सीख लेनी चाहिए। चीन में शहरीकरण लगभग चार हजार साल पहले शुरू हो चुका था। एक हजार साल पहले वहां की नदी-घाटियों में बसे गावों का अलग ही रूप था। १९४० के अंत तक वहां करीब ६९ शहर थे, जिनकी संख्या २००७ में ६७० हो गयी। ग्रामीणों का शहर की ओर लगातार पलायन के कारण ही इसमें करीब दस फीसदी की वृद्धि हुई।
विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती है की चीन के ८९ शहरों की जनसँख्या करीब एक मिलियन से अधिक है। जबकि ऐसे शहरों की संख्या अमेरिका में ३७ और भारत में ३२ ही है। पूरी दुनिया शहरीकरण से परेशान होने के बावजूद चीन एक नयी दिशा और इससे निबटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इससे सभी को सबक लेनी चाहिए। 1980 में चीन की शहरी आबादी १९१ मिलियन थी। चीन की आधी आबादी शहरों में बस्ती है।

वर्ल्ड बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री जस्टिन लीं कहते हैं, अधिकतर देशों में लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, मसलन चीन में ही नहीं बल्कि एशिया और अफ्रीका में हालत सही नही हैं। ग्रामीण विकास की यात्रा काफी चिंतनीय है। किसी भी देश के लिए शहर का ओउध्योगिक विकास महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और भविष्य में भी निभाएगा।

आख़िर क्या कारण है की चीन में शहरीकरण अपनी सही दिशा में बढ़ रहा है। वर्ल्ड बैंक के डेवलपमेंट रिसर्च ग्रुप के वरिष्ठ सलाहकार शाहिद युसूफ लिखते हैं की चीन ने सभी घरों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य किया है। प्रवासियों को छोटे और मध्यम शहरों में बसाया है। चीन ने आर्थिक विकास के साथ-साथ शहरी गरीबी पर अंकुश लगाने का कम किया है। वर्तमान में इसकी संख्या बमुश्किल चार से छः फीसदी है। शहरी बेरोजगारी भी काफी कम है। यह तीन से चार फीसदी है।

हालाँकि इस बात से इंकार नही किया जा सकता है की चीन के ग्रामीणों और शहरी लोगों की आमदनी के बीच गहरी खाई है। शहर में जल और वायु प्रदूषण काफी गहरे तौर से समस्या बन चुकी है। प्रवासियों के साथ-साथ गरीबों और बुजुर्गों की सुरक्षा की कोई गारंटी नही है। अभी भी कई ऐसे मसले हैं, जिनसे चीन को उबरना है। मसलन, बेरोजगारी, ऊर्जा, कृषि उत्पाद भूमि, जल ऐसे मामले हैं, जिन पर चीन को ज्यादा ध्यान देना है।

एक अनुमान के मुताबिक, २०२५ तक करीब २०० से २५० मिलियन लोग चीन में शहरों की ओर प्रवास करेंगे। इनकी नौकरी सबसे बड़ी चुनौती चीन सरकार की होगी। शहरी लोग ग्रामीणों की अपेक्षा ३.६ गुना açहिक ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं। जबकि यही आंकडा जापान में सात गुना और अमेरिका में ३.५ गुना अधिक है। सड़कों पर मोटर वाहन की संख्या में काफी इजाफा हुआ है। इससे प्रदूषण काफी बढ़ा है और इससे निजात पाना अपने में एक चुनौती है। पीने के पानी से भी फिलहाल चीन जूझ रहा है और इससे उबरना उसकी पहली प्राथमिकता होगी।

7/03/2008

भारत में हलचल, अमेरिका में डूब रही नाव

भारत में हलचल, अमेरिका में डूब रही नाव
इन दिनों जहाँ भारत में मीडिया में नौकरी, नए अखबार और चैनल के लॉन्च को लेकर कन्याकुमारी से लेकर जम्मू तक हलचल मची है। रीजनल अख़बारों के राष्ट्रीय संस्करण निकलने की होड़ है। वहीं इन दिनों अमेरिकी मीडिया में जमकर मायूसी है। पिछले एक हफ्ते में अमरीकी अख़बार मीडिया में करीब एक हजार नौकरियों को ख़तम किया गया है। साथ ही कई बड़े अखबार बंद होने के कगार पर हैं या अपने को बचाने के लिए जी-जान से लगे हुवे हैं।

इसमें सिर्फ़ छोटे अखबार ही नहीं हैं, बल्कि बल्त्मोर सन, बोस्टन ग्लोव, सन जोस मरकरी न्यूज शामिल हैं।अमेरिका में हालत यह है की सन फ्रांसिस्को जैसे अमीर शहर भी एक भी अख़बार को किसी भी तरह की सहायता नही कर पा रहा है। उसके अस्तित्व को सहेज कर रख पाने के लिए हाथ खड़े कर दिए हैं।

सबसे मजेदार बात यह है की यह समस्या उस दौर में है जब अखबर के इतने पाठक हैं, जो इसके इतिहास में कभी नही हुए। जैसे की हम जानते हैं इन्टरनेट ने दैनिक अखबारों के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह ला खड़ा किया है। लेकिन यह भी सत्य है की अख़बारों के पाठकों में भी लगातार वृद्धि हुई है।

नेल्सन आन लाइन सर्वे के मुताबिक, समाचार पत्रों के बेवसाईट ने २००८ के पहले तिमाही में करीब ६६ मिलियन नए दर्शकों को जोड़ा हैं। माना जा रहा है की एक साल में इन्टरनेट यूजर्स के संख्या में करीब बारह फीसदी वृद्धि हुई है। इतना ही नही एक अध्ययन में यह बात भी सामने आयी है की करीब चालीस फीसदी यूजर्स एक बार किसी भी अख़बार के बेवसाईट पर जरूर जाते हैं।

यह सही है की बेव की दुनिया आज का भविष्य है, लेकिन विघ्यापन के मामले में इसका हिस्सा महज दस फीसदी ही है। इससे किसी भी अख़बार को इतना भी धन नही आता की वह अपने रिपोर्टरों को तनख्वाह दे सके।

सबसे दुखद बात तब होती है जब अमेरिकी पत्रकार थामस जेफरसन कहते हैं की अख़बार में विज्ञापन ही एक मात्र सच होता है, जिस पर पूरी तरह विस्वास किया जा सकता है।

6/29/2008

धमाचौकडी मचाने और गिल्ली-डंडा खेलने में माहिर थे सोनू निगम, इंटरव्यू एक

धमाचौकडी मचाने और गिल्ली-डंडा खेलने में माहिर थे सोनू निगम

जाने-माने गायक सोनू निगम फरीदाबाद में पैदा हुए थे। एक दशक पहले फ़िल्म 'बेवफा सनम' में 'अच्छा सिला दिया तूने प्यार का... ' गाने से गीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने का उनका सफर शुरू हुआ, वह फ़िल्म 'धूम-टू के गाने 'माई नेम इज अली मूवी ' तक जारी है। दर्जन भर से अधिक अवार्ड बटोर चुके सोनू ने २००६ में फ़िल्म 'फ़ना', 'कभी अलविदा न कहना', 'कृष', 'लगे रहो मुन्ना भाई, 'जानेमन' और 'धूम-टू' जैसे हिट फिल्मों में अपनी आवाज देकर अपने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। इस जादूगर से विनीत उत्पल की बातचीत।
फरीदाबाद से आप कितना ताल्लुकात रखते हैं?
मेरे दादाजी दया प्रसाद निगम १९५३ में आगरा से आकर यहाँ बस गए थे।दादाजी का बिजनेश था। पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी के लिए बसाये गए परिसर नेबरहुड पांच में हमारा घर था। इसी घर में मेरा और मेरे चचेरे भाई का जनम हुआ। बाँके बिहारी मन्दिर के ठीक सामने घर होने के कारण अक्सर अपने चचेरे भाईयों के साथ मन्दिर परिसर में धमाचौकडी मचाया करता था।
आपको यहाँ की कितनी याद आती है?
जब मैं चार या पांच साल का था, तभी मेरे पापा दिल्ली बस गए थे। इसके बाद भी करीब १०-१२ साल तक अक्सर छुट्टियों में वहां जाया करता था। बड़े होने तक भी सभी भाई-बहन बाँके बि हारी मन्दिर में खेलते थे। मोहल्ले के पुराने दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेलने में खूब मन लगता था।
क्या अभी भी फरीदाबाद में आपका पैट्रिक घर है?
नही, हमारे परिवार के फरीदाबाद से दिल्ली बस जाने के बाद आसपास के लोगों के अतिक्रमण के कारण हमें वह मकान बेचना पड़ा। वैसे हमारी इच्छा थी इस घर में अपनी अतीत की यादें सँजोकर रखें, लेकिन वह सम्भव नही हो पाया। अब तो हमारा पूरा परिवार मुम्बई में ही बस गया है। मेरे पापा अगम कुमार, माँ शोभा निगम और दोनों बहनें भी साथ ही रहती हैं।
आख़िर बार यहाँ कब आना हुआ था?
सही तारीख तो याद नही, पर अन्तिम बार जब हमारा पूरा परिवार वहां गया था, तो उस घर की यादों को सँजोकर रखने के लिए तस्वीरें खींच लाये थे। उस वक्त हमने वहां की उन जगहों की भी तस्वीरों को भी कैमरे में उतारा, जहाँ कभी हम दोनों भाई दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेलते थे।
सार्वजानिक तौर पर कभी यहाँ आना हुआ?
घर बेचने के बाद अपने गीतों की प्रस्तुति देने के क्रम में कई बार शहर में आना हुआ है। नीलम सिनेमा हाल मुझे अभी तक याद है। जब भी मेरा शहर में आना होता है, ख़ुद को स्थानीय महसूस करता हूँ। वहां अभी भी मेरे काफी दोस्त हैं। अपने प्रोफेशन में इस मुकाम तक पहुँचने के बावजूद बचपन में बिताये वहां के दिन मुझे अक्सर याद आते हैं।
फरीदाबाद के लिए कुछ करने की बात आयी, तो क्या करेंगे?
फरीदाबाद की मिट्टी में पैदा होने का मुझे गर्व है। जब भी फरीदाबाद के लोगों को मेरी जरुरत महसूस होगी, मैं हमेशा उनके साथ रहूँगा। लोगों के प्यार और आशीर्वाद का फल ही तो है, जो आज मैं इस मुकाम पर हूँ।
साभार: हिंदुस्तान, २३ जनवरी, 2007

किस से बात करूँ, किस से न करूँ

किस से बात करूँ, किस से न करूँ

जब से पत्रकारिता या लेखनी का चस्का लगा, तब से ना जाने कितनों से बात हुई। कभी खास मुद्दों पर तो कभी किसी की अपनी निजी जिन्दगी को लेकर। इस कड़ी में तसलीमा नसरीन, सुरेन्द्र मोहन, किरण बेदी, इंदिरा गोस्वामी, अमृता प्रीतम, शोवना नारायण, सोनल मानसिंह, सोनू निगम, ऋचा शर्मा, देवन्द्र प्रसाद यादव, राजवर्धन सिंह राठोड हों या फ़िर कोई और, जम कर बात की। यहाँ तक की सिविल सर्विस के टापरों का इंटरव्यू लेने में भी अच्छे रूचि रही।

कभी दैनिक जागरण के लिए, कभी दैनिक भास्कर के लिए, कभी हिंदुस्तान के लिए तो कभी प्रभात ख़बर या किसी पत्र या पत्रिका के लिए। जम कर लिखा, लोगों ने जम कर सराहा। संपादकों ने जमकर छापा। यहाँ तक की ऐसी नौबत भी आयी जब हिंदुस्तान के लिए हर रोज एक इंटरव्यू लेना पड़ा, बिना नागा किए। लगभग दो महीने के भीतर यदि पापा की तबियत ख़राब न होती और मुझे भागलपुर नही जाना होता, तो शायद वह एक रिकार्ड होता।

फ़िर भी लगातार हर रोज एक इंटरव्यू लेना कम नही होता। हिंदुस्तान के लिए जो कालम मैं लिखता था, उसका नाम था, शख्सियत। लेकिन दुर्भाग्य यह की फरीदाबाद में लिखने के दौरान हिंदुस्तान के पुल आउट में उसके इंटरनेट संस्करण का पता तो लिखा होता था, लेकिन वहां की खबरें नही होती थी। इस कारण उनमे एक भी इंटरव्यू इंटरनेट पर नही है। और तो और कई इंटरव्यू को मैं सहजकर नही रख पाया।

बहरहाल, इन कड़वी बातों को यही विराम देते हैं और अगली पोस्ट से मेरे द्वारा ली गयी इंटरव्यू आपको पढने को मिलेगी, जो मौके-बेमौके ली गयी है।

6/26/2008

कपिल देव से एक बातचीत

कपिल देव से एक बातचीत

आज जब पूरा देश १९८३ में भारत को क्रिकेट विश्वकप जीतने के २५ साल पूरा होने का जश्न मना रहा है। कपिल देव का गुणगान कर रहा है। उस टीम को सम्मान दिया जा रहा है जिस टीम ने देश का सम्मान बढाया । वहीं कपिल देव के जीवन मैं कई मौके आए जब वे बीसीसीआई से नाखुश थे। उनके मन में काफी रोष था।
बात २००५-०६ की है, उस दौर में जहाँ भारतीय क्रिकेट टीम के कोच लगातार विदेशी रखे जा रहे थे, वही देश के काबिल खिलाड़ियों को नजर अंदाज किया जा रहा था। उसी दौर में कई बार मेरी बातचीत कपिलदेव से हुई। एक इंटरव्यू करनी थी, उनकी नजर में सफलता क्या है, को लेकर।

अभी भी बीसीसीआई को लेकर उनके मन में गुस्सा जो गुस्सा था, वह मेरे सामने गुजर जाता है। जब भी उनसे बातचीत हुई, उन्होंने सीधे तौर पर कहा की विदेशों में पढ़ना और विदेशी कोचों को रखना ही जीवन और टीम की सफलता का मूळ मन्त्र है। उनका कहना था की आज के दौर में जिस तरह लोगों का विचार बदला है, की लगता है कि विदेश जाना और विदेश में पढ़ना, विदेश में ट्रेनिंग लेना ही सफलता की निशानी है।
उस बातचीत में मुझे लगा कि भारत को विश्वकप दिलाने वाले एक सफल कप्तान में कितना रोष है, देश के नीति निर्धारकों के प्रति। उनका गुस्सा बातचीत में साफ झलक रहा था। उन्होंने सीधे तौर पर इंटरव्यू में कहा था कि आज जिस तरह की परिस्थितियां हैं के मैं कदापि ख़ुद को सफल नही मानता।

6/23/2008

कौन थी मधुबाला जिसकी मुस्कराहट पर फ़िदा थी दुनिया


कौन थी मधुबाला जिसकी मुस्कराहट पर फ़िदा थी दुनिया



मधुबाला ने काफी कम उम्र में जिस तरह लोगों के दिलों पर राज किया, वह काबिले तारीफ है। लेकिन हम और आप जिस मधुबाला को जानते हैं और परदे पर देखा है, उसका नाम कुछ और था।


मधुबाला का जन्म 14 फ़रवरी 1933 को दिल्ली में एक मुस्लिम पठान परिवार में हुआ था. उनका नाम रखा गया था मुमताज़ बेगम जहाँ देहलवी।

उनके पिता अताउल्लाह ख़ान के कुल 11 बच्चे थे. वे बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में मुंबई चले आए और फ़िल्म स्टूडियो में काम ढूंढने लगे. मुमताज़ ने 9 साल की उम्र में बसंत नामक फ़िल्म से काम शुरू किया लेकिन उस समय की मशहूर कलाकार देविका रानी ने उनकी अभिनय क्षमता को पहचाना और उन्हें मधुबाला नाम रखने का सुझाव दिया. देखते ही देखते मधुबाला हिंदी फ़िल्मों की मशहूर तारिका बन गईं. लेकिन उनकी सेहत अच्छी नहीं थी और 23 फ़रवरी 1969 में 36 साल की उम्र में मुमताज बेगम जहाँ देहलवी उर्फ़ मधुबाला का निधन हो गया.

6/21/2008

भारत में क्षेत्रीय सिनेमा की भूमिका

भारत में क्षेत्रीय सिनेमा की भूमिका

ललित मोहन जोशी


सत्यजीत रे की पथेर पांचाली ने भारत को विश्व सिनेमा में पहचान दिलाई
कलात्मक विधा के रूप में भारतीय सिनेमा की पहचान क्या है- बॉलीवुड या क्षेत्रीय सिनेमा ?
ग्लोबलाइज़ेशन के मौजूदा दौर में यह सवाल, बॉलीवुड को भारत की प्रतिष्ठा से जोड़ने वाले सिनेप्रेमियों या फिर ऐश्वर्या राय और शाहरुख ख़ान को भारत का राजदूत बताने वाले नेताओं और अफ़सरों को असमंजस में डाल सकता है.
सच्चाई ये है कि विश्व सिनेमा के मानचित्र पर भारतीय सिनेमा को स्थापित करने वाली पहली फ़िल्म सत्यजित राय की पथेर पांचाली (1955) थी जो विभूति भूषण बन्धोपाध्याय के कालजयी उपन्यास पर आधारित बंगाली भाषा की एक क्षेत्रीय फ़िल्म है.
1956 के अन्तरर्राष्ट्रीय कान समारोह में, पथेर पांचाली को एक हृदयस्पर्शी ‘मानवीय दस्तावेज़’ की संज्ञा दी गई। बाद में राय की फ़िल्म-त्रयी ( पथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1956) और अपूर संसार (1959)) विश्व सिनेमा को भारतीय सिनेमा की देन मानी गई.


अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान


अडूर गोपालाकृष्णन मलायली सिनेमा के दिग्गज फ़िल्मकार हैं
सत्यजित राय के समकालीन रित्विक घटक और मृणाल सेन की कृतियां भी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुईं हैं.
घटक की हर कृति में भारत विभाजन की त्रासदी को उप-कथानक अथवा कथावस्तु की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है- चाहे वो मेघे ढाका तारा (1960) सुबर्न रेखा (1962), अथवा तिसता एकती नदीर नाम (1973) हो.
आज के दौर में गौतम घोष, रितुपर्णो घोष और अपर्णा सेन सक्रिय सिनेकार हैं.
श्याम बेनेगल का मानना है कि सत्यजित राय के बाद आज के दौर में भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सिनेकार केरल के अडूर गोपालाकृष्णन हैं जिनकी मुखामुखम (1984), आज़ादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के अन्तर्विरोध, बिखराव व अस्मिता के संकट को दर्शाती है.
अपने पिछले 35 वर्षों के सिनेमाई कैरियर में अडूर ने मात्र 9 फ़िल्में बनाई हैं जो पिछले 60 वर्षों के किसी न किसी पक्ष को रेखांकित करती हैं. केरल के एक अन्य सिनेकार शाजी करुन की पिरवी (1988) ने 70 अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किये.
लोकप्रियता और व्यावसायिकता की कसौटी पर क्षेत्रीय सिनेमा के मुक़ाबले, मुंबई का हिन्दी सिनेमा (बॉलीवुड) नि:संदेह आगे रहा। पर कथानक, चरित्र विकास और चित्रांकन के नज़रिये से यह कभी भी क्षेत्रीय सिनेमा की गहराई हासिल न कर सका.


मराठी सिनेमा

श्ववास को भारत की ओर से ऑस्कर के लिए नांमाकित किया गया
1930 के दशक से ही मराठी सिनेमा ने सामाजिक कुरीतियों, अन्याय और राजनैतिक भ्रष्टाचार के कथानकों पर फ़िल्में बनाईं.
व्ही शान्ताराम की कुंकू (1937) और मानूस (1939) नारी मुक्ति और वैश्याओं के उद्धार के कथानकों का निर्वाह ऐसी सिनेमाई शैली में करती हैं जो समय से आगे कही जा सकती हैं और सिनेमाई भाषा के लिहाज़ से किसी भी तरह यूरोपीय सिनेमा से द्वयं न थीं.
मराठी सिनेमा में इस समय जब्बार पटेल और अमोल पालेकर जैसे सिद्धहस्थ सिनेकारों के अलावा नई पीढी के संदीप सावंत जैसे सिनेकार हैं जो महत्वपूर्ण फ़िल्में बना रहें हैं।


विचारों का दिवालियापन


1950 के दशक में हिन्दी सिनेमा की अगुआई राजकपूर, बिमल राय, महबूब ख़ान और गुरूदत्त ने की. 1960 के दशक तक हिन्दी सिनेमा के कथानकों में दमखम था.
पर धीरे धीरे विचारों का दिवालियापन नज़र आने लगा और हिन्दी सिनेमा मनोरंजन के एक पिटे-पिटाये फ़ार्मूले में बंध गया. 1970 के दशक में नई धारा के श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलाणी और सईद अख़्तर मिर्ज़ा सरीखे सिनेकारों उसे उबारने की कोशिश की पर 1980 के दशक के अन्त तक आते-आते ये आन्दोलन बिखर गया.
1990 के दशक में बम्बइया सिनेमा का नया नाम ‘बॉलीवुड’ प्रचलन में आया. भारत के प्रसार माध्यमों में विकसित हो रही ‘बॉलीवुड’ कार्यक्रमों की होड़ ने, धीरे-धीरे क्षेत्रीय सिनेमा की चर्चा को फ़िल्म महोत्सवों तक सीमित कर दिया.
आज चौबीस घंटों तक चलने वाले टेलीविज़न चैनलों और समाचार पत्रिकाओं में बॉलिवुड चर्चाओं की भरमार है जबकि क्षेत्रीय सिनेमा पूरी तरह उपेक्षित है.
स्वर्ण युग

पर बीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर से आज तक भारत के कई राज्यों में क्षेत्रीय सिनेमा की जड़े गहरी हुई हैं. 1960 और 1970 के दशक को भारत के क्षेत्रीय सिनेमा का ‘स्वर्ण-युग’ कहा जा सकता है जब बंगाल के बाद केरल, कर्नाटक, असम और उड़ीसा जैसे राज्यों में नई धारा का सिनेमा विकसित हुआ.
कन्नडा सिनेमा में गिरीश कारनाड, ब.व.कारंत व गिरीश कासरावल्ली ने अपनी फ़िल्मों से एक नई ‘सांस्कृतिक क्रांति’ पैदा की.
एक नाटककार के रूप में तुग़लक़ औऱ हयवदन से ख्याति प्राप्त कारनाड और कारंत ने वंशवृक्ष (1972) के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जित किया. पर कन्नडा सिनेमा में गिरीश कासरावल्ली की जगह वही है जो केरल में अडूर गोपालाकृष्णन की है.
कर्नाटक के एक और सिनेकार गणपति वेंकटरमण अय्यर ने कन्नडा के अतिरिक्त संस्कृत भाषा में आदि शंकराचार्य (1983) और भगवत गीता (1992) बनाई.
असम के सर्वाधिक चर्चित सिनेकार जहानू बरुआ की हलोदया चौराये बाओधन खाय (1987) और खगोरोलोये बोहु दूर (1994) जैसी फ़िल्में सामाजिक भ्रष्टाचार, उत्पीड़न और राजनैतिक दुष्चक्र में फंसे विपन्न व निम्न मध्यम वर्ग के जीवन संघर्ष को दर्शाती हैं.
उड़िया भाषा के सिनेकार नीरद महापात्र की माया मिरगा (1983) अर्थ-संघर्ष के बीच टूटते-बिखरते एक संयुक्त परिवार की कहानी है।


क्षेत्रीय सिनेमा की उपेक्षा

मीडिया में क्षेत्रीय सिनेमा की तुलना में हिंदी सिनेमा ज़्यादा चर्चा में रहता है
21वीं सदी के इस प्रारंभिक दौर में अगर इमानदारी और समग्रता से समूचे भारतीय सिनेमा का जायज़ा लिया जाय तो सरकार और प्रसार माध्यमों की उपेक्षा के बावजूद भारत का क्षेत्रीय सिनेमा न केवल ज़िन्दा रहा है बल्कि उसने नई ज़मीन तो़ड़ने की जद्दोजहद भी जारी रखी है.
इसके विपरीत लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा अपनी सार्थकता और अस्मिता पूरी तरह खो चुका है.
विडम्बना ये है कि वह अपने नाम तक की रक्षा नहीं कर पाया और उसने ‘हॉलीवुड’ की तर्ज़ में ‘बॉलीवुड’ कहलाया जाना स्वीकार कर लिया.
क्या ऐसे सिनेमा का अस्तित्व बना रह सकता है ? इस तरह की पलायन वादी फ़िल्मों से भारत के फ़िल्म निर्माता और सिनेकार पर्याप्त विदेशी मुद्रा तो कमा रहे हैं। पर क्या ऐसी फ़िल्में मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कोई सम्मान या उंचा मंच प्रदान कर रही हैं ?

साभार: बीबीसी

6/08/2008

किसे भूलूं किसे याद करूँ

जिन्दगी चलती रहती है। कभी उतार तो कभी चढाव रहना लाजमी ही है। कभी सुख का आनंद तो साथ ही दुःख पाना तो लगा रहता है। कभी घर में बैठ आराम फरमाते हैं तो घुम्म्कड़ बने रहने का आनंद कुछ और ही है। मौका मिला तो जम कर काम किया, नही तो बस यूं ही दिन ढल गया और रात बीत गयी।

कैसे आया ब्लाग की दुनिया में

नौ जून को ब्लाग की दुनिया में एक साला जीव हो गया हूँ। जब वक्त मिला जम कर लिखा नही तो गायब रहा। लेकिन मौका मिला तो अनुभव और लेखन को जम कर धार दी। आज याद आता है की मैंने किस तरह ब्लाग की दुनिया में आया और क्या पाया क्या खोया।

हिंदुस्तान में काम करने के दौरान बना बलागर

आज से एक साल पहले मैं दैनिक हिंदुस्तान में कार्यरत था, वह भी फरीदाबाद में। रिपोर्टिंग करता था। बौस थे राजू सजवान, जिन्होंने मुझे रिपोर्टिंग की बारीकियाँ बताई। जम कर रिपोर्टिंग की। बारह-तेरह बीट थे मेरे पास। सुबह से शाम तक बस जेहन में रिपोर्टिंग ही था। उसी दौर में हिन्दी ब्लाग का बाजार गर्म हो रहा था। मुझे जानकारी नही थी। राजूजी को साहित्य में रूचि थी। नयी-नयी जानकारी इकट्ठा करना और बांटना उनका शौक रहा है, लेकिन शर्त, सामने वाला जानने को उत्सुक हो।

किसने ब्लाग से रुबरु कराया

पहले उन्होंने ब्लाग बनाने की बात सोची। मैंने भी उन्हें उकसाया और कहा मुझे भी सिखाएं। कुछ सिखाया और कुछ मैंने ख़ुद से सीखी। संयोगवश जून के पहले सप्ताह में वे घर चले गए। मुझे मौका मिल गया और कोशिश की उनके लौटने से पहले अपना ब्लाग पूरी तरह तैयार कर लूँ और उन्हें चौका दूँ। बस यही हुआ।

मोहल्ले के अविनाश न होते तो

कुछ दिक्कतें हुयी तो तुरत मोहल्ले के अविनाश याद आए। गाहे-बगाहे फोन लगाया और तुरत दिक्कत की चर्चा की. कुछ ही सेकेंड में समस्या का समाधान। न तो मैंने कभी सोचा की उन्हें अभी फोन करू या नही और न ही उन्होंने कभी कहा की अभी व्यस्त हूँ। इस ब्लाग के एक साल पूरा होने में उनके योगदान को नही भुलाया जा सकता है।

कब लिखा कैसे लिखा

हिंदुस्तान में काम करने के दौरान लिखता रहा, लेकिन सीमित तौर पर। हमारे हिंदुस्तान के कुछ सहयोगी को मेरी रिपोर्टिंग और ब्लाग का काम पसंद नही आया। नए बौस के कान में शिकायते की। अपने जब बेगाने हो जाते हैं तो शिकायत किस से। हिंदुस्तान के उस सहयोगी ने मुझे जमकर परेशान किया। मैं माफ़ करता गया, यह सोच कर की जब समझ आयेगी, समझेगी। आखिरकार अक्तूबर में मैं बिना कोई गिला-शिकवा के हिंदुस्तान की नौकरी छोड़ अपने दोस्त से अलग होने का निश्चय किया। उस दौर में भी ब्लाग लिखता रहा।

जब जम कर लिखा

हिंदुस्तान छोड़ने के बाद आगरा चला गया और दुसरे दिन ही अकिंचन भारत में अपनी सेवा देने लगा। नया अख़बार था, जम कर काम किया। जम कर ब्लाग पर लिखा। आगरा में रहकर सबसे अधिक पोस्ट लिखी। कुछ ने हौसला बढाया, टिप्पणी लिखकर, कुछ ने गलियां भी दी बेनाम होकर। मैं मस्त होकर लिखता। देश के कोने-कोने में रहने वाले लोगों से ब्लाग के मध्यम से दोस्ती हुयी।

कुछ खट्टी कुछ मीठी

एक साल के सफरनामे में अनिता कुमार से हुयी चैट को प्रकाशित कर टेंशन मोल लिया। अलोक पुराणिक को लेकर लिखी पोस्ट को हटाना पड़ा। फ्रेंडशिप दिवस पर लिखी पोस्ट से कुछ लोगों से बहस हुयी, कुछ से बोलचाल अभी भी बंद है। बेटी के ब्लाग के जरिये बहन के बिछुड़ने के दर्द लेख पर टिप्पणी से मन रमा की लोग मेरा ब्लाग पढ़ते हैं। पहली बार अविनाशजी ने टिप्पणी की।

फिलहाल ब्लाग का सफर जारी है। किसे भूलूं किसे याद करू, अहम् सवाल है। जो मेरे ब्लाग पर आए उनका शुक्रगुजार हूँ, जो नही आए उनका भी।

5/22/2008

समाज में बरक़रार है भेदभाव

समाज में बरक़रार है भेदभाव
भारत में माना जाता है की हमारे यहाँ स्त्रियाँ काफी प्रगति कर रही हैं। कुछ हद तक यह बात ठीक भी है। लेकिन अभी भी कम पढी-लिखी महिलाओं में यह भावना गहरे तक धंसी हुयी है की स्त्रियाँ पुरूष के मुकाबले कमतर है। हमारे यहाँ स्त्रियाँ समर्पिता की भूमिका में है। धर्म का खासा दबाव है उन पर। पैदा होने से ही उसके अन्दर ऐसे संस्कार दाल दिए जाते हैं। कन्या भ्रूण हत्या एक ऐसा अपराध है जिसमें महिला की सहमति से इसे अंजाम दिया जाता है। उसके अन्दर बचपन से पड़े संस्कार और घर के पुरूष सदस्यों का दबाव उसे ऐसा करने के लिए मजबूर कर देते हैं।
इस सम्बन्ध में कत्थक नृत्यांगना पुनीता शर्मा से देशबंधु की बातचीत कुछ यूं है-

(पुनीता शर्मा राग-विराग नाम से ब्लाग भी लिखती हैं। यहाँ आप कत्थक की बारीकी से अवगत होंगे। और वह समाज के ज्वलंत मुद्दों पर जम कर शब्दबाण चलाती हैं...विनीत )

हर क्षेत्र में महिलाएं बराबरी से योगदान दे रही हैं, तब फ़िर लड़कियां अवांछित क्यों हैं?
- इसका कारण उनके साथ भेदभाव है। यहाँ शिक्षा और रोजगार में स्त्रियों के साथ भेदभाव की स्थिति है। मैं तो यही कहूंगी की नारी पुरूष के तुलना में अधिक योग्य है। इसीलिए पुरूष प्रधान समाज उसके साथ भेदभाव का रवैया अपनाता है। इसका उदाहरण है- शादी में लड़के और लडकी के उम्र में अन्तर करना। हमारे यहाँ विवाह में विवाह में लड़के की उम्र लडकी की तुलना में तीन से पांच साल अधिक रखी जाती है। क्योंकि लड़कियां लड़कों से शारीरिक व मानसिक रूप से पहले परिपक्व हो जाती है। इस तथ्य को विज्ञान भी मानता है। अगर लडकी की उम्र बराबर होगी, तो वह हर बात आंख मूंदकर स्वीकार नही करेगी। मेरा मानना है की जाति, वर्ग, लिंग, नस्ल के आधार पर भेदभाव नही होना चाहिए।
परवरिश और घर के संस्कार की इसमे कितनी भूमिका है?
-तकरीबन नब्बे फीसदी घरों में लड़के और लडकी के बीच भेदभाव किया जाता है। लड़कियों पर तरह-तरह की बंदिशें लगाई जाती है, जबकि लड़कों को हर तरह की आजादी मिलती है। दिल्ली जैसे महानगर में भी लड़कियों को कहा जाता है की शाम छः बजे तक घर आ जायें।
शिक्षा इस मानसिकता को बदलने में कितनी कारगर हो सकती है?
-शिक्षा खासतौर से लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई से निश्चित रूप से फर्क आया है। लेकिन इसके जरिये मानसिकता में बदलाव बहुत धीरे-धीरे आ रहा है। क्योंकि महिलाओं को बहुत अधिक दबाया गया है। इसके लिए कुछ कदम भी उठाने होंगे। इसके साथ ही भ्रूण हत्या और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार व भेदभाव को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना होगा।
समाज के नजरिये में बदलाव कैसे लाया जा सकता है?
-समाज में जागरूकता फैलाने कर लिए शिक्षा या भाषण व सेमिनार नाकाफी है। इसके लिए व्यावहारिक नजरिया अपनाने की जरुरत है। इसके लिए नुक्कड़ नाटक, बैले, सोप ऑपेरा, नौटंकी जैसे मनोरंजन के माध्यमों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। दिल्ली के नरेला में सत्यवती कालेज की और से नारी शोषण पर एक नुक्कड़ नाटक किया गया। नाटक खत्म होते ही वहां आयी कुछ औरतों ने अपने पतियों से लड़ाई शुरू कर दी की तुम भी तो ऐसे अत्याचार करते हो। यानी इनके जरिये कहीं न कहीं जाग्रति तो आयी है।
भ्रूण हत्या पर मैंने 'परचम बनी महिलाएं' नाम से एक बैले के कई शो किए हैं। अभी हाल ही में मैंने झारखण्ड के दुमका में इसका शो किया। दर्शकों में इसे लेकर जबरदस्त प्रतिक्रिया रही और यह झलक मिली की वे इस बुराई को लेकर जागरूक हुए हैं।
अगर आपको इस स्थिति को सुधारने की निर्णायक भूमिका दे दी जाए तो आपका पहला कदम क्या होगा?
-मैं सबसे पहले ऐसा करने वालों पर तगड़ा जुर्माना और दंड देने का प्रावधान करूंगी। लेकिन इसके लिए जांच की लम्बी प्रक्रिया , अदालत आदि की जरूरत नही होगी, बल्कि चीन की तरह मौके पर ही दण्डित किया जायगा.

5/21/2008

बाजार में हिन्दी

बाजार में हिन्दी

लगभग २२ लोक भाषाओं से समृद्ध हिन्दी का बाजार आज अंगरेजी वालों के लिए ईर्ष्या का विषय है। बाजार में हिन्दी आ रही है और छा रही है। संचार के सभी माध्यमों को भा रही है हिन्दी। विज्ञापन जगत को लुभा रही है हिन्दी। वह पूरे बाजार में अपने झंडे गाड़ रही है। टीवी, प्रिंट, इंटरनेट, मोबाइल जैसे सभी माध्यमों का हिन्दीकरण हो रहा है। हिन्दी में धडाधर ब्लाग महाराज छप रहे हैं। हिन्दी सिनेमा ने वैश्विक चोला पहले ही पहन लिया है। हालीवुड भी हिन्दी में आ रहा है। हिन्दी अख़बार तो पाठकों के लिहाज से अंगरेजी से आठ गुना आगे निकल गए हैं। अब तो बड़े-बड़े विदेशी प्रकाशन कम्पनियाँ भी हिन्दी पुस्तकों के प्रकाशन में कूद रही हैं। हिन्दी ने बहुत जगहों पर अंगरेजी के वर्चस्व को तोडा है। बाजार में हिन्दी के वर्चस्व की यह जंग दिलचस्प होने जा रही है।

फेर फेर का फेर है हिन्दी का बाजारवाद

विनीत उत्पल

हिन्दी के फेरे में बाजार या बाजार के फेरे में हिन्दी, यह एक ऐसा सवाल है जिसका न तो साहित्यकार जबाव दे सकते हैं और न ही बाजार के धुरंधर। इतना तो तय है की जिधर मुनाफे की बात होगी, वहां बाजार होगा। हालांकि, यह बात और है की जहाँ मुनाफे या घाटे की बात होगी, वहां हिन्दी मौजूद हो या न हो।

पिछले कुछ दशकों से हिन्दी पर जिस कदर बाजार का प्रभाव पड़ा है, वह गौरतलब है। संचार के माध्यमों मसलन, समाचार पत्र, टीवी, इंटरनेट, फ़िल्म ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ हिन्दी की पैठ लगातार बढ़ती जा रही है। हिन्दी का क्षेत्र की व्यापकता के बढ़ने के कारण जहाँ हिन्दी के समाचार पत्र और पत्रिकाएँ बाजार के बड़े हिस्से पर काबिज हो रही हैं, वही विज्ञापन की दुनिया ने भी हिन्दी के बाजार को और विस्तार प्रदान किया है। भारत में हिन्दी के समाचार पत्रों के पाठकों की संख्या सबसे अधिक है। पूरी दुनिया में सबसे अधिक फिल्म हिन्दी भाषा में बनती हैं।

इंटरनेट की दुनिया में जिस तरह हिन्दी ने घुसपैठ की है की गूगल और कई दूसरी वेबसाईटों ने हिन्दी में भी अपनी सेवा देना शुरू कर दिया है। कहीं न कहीं हिन्दी के बाजार का प्रभाव है की अब आप हिन्दी शब्दों को और उससे संबंधित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। ओरकुट पर आप हिन्दी में संवाद आदान-प्रदान कर सकते हैं। ब्लाग की दुनिया ने जहाँ आम लोगों को मन की बात खुले तौर से लिखने का स्पेस दिया, वही अब हिन्दी में चैटिंग करने की सुभिधा भी इंटरनेट यूजर्स को मिलने लगी है।

जहाँ तक ब्लाग की दुनिया की बात है, फिलहाल हिन्दी में करीब तीन हजार ब्लागर हैं, जो दुनिया के कोने-कोने से अपनी बात-जज्बात को पाठकों के सामने पेश कर रहे हैं। यह और बात है की जिस कदर अंगरेजी ब्लागर को विज्ञापन के जरिये पैसे आ रहा है, उस स्थिति में हिन्दी के ब्लागर नही पहुँच पाये हैं। लेकिन भविष्य में इसकी अपार संभावनाएं हैं।

इंटरनेट के बाजार की कहीं न कहीं हिन्दी उपभोक्ताओं पर नजर है, तभी तो गूगल ने गुडगाँव में ब्रांच स्थापित की है, जहाँ हिन्दी में विज्ञापन बनने की तैयारी की जा रही है। बताया जाता है की इसी वर्ष गूगल अपने यूजर्स के ब्लाग या ई-मेल पर हिन्दी में विज्ञापन पेश कर देगा। जहाँ तक विज्ञापन की बात है तो इसकी मनमोहक दुनिया को पंख लगे हुए हैं। वर्तमान में बाजार ने एक नयी हिन्दी ईजाद की है। वह है हिन्दी और अंगरेजी को मिलकर बनी हिंगलिश।

इसका जहाँ विज्ञापन की दुनिया में बखूबी प्रयोग किया जाता है, वही मेट्रो शहर में युवाओं की जुबान के भाषा बनती जा रही है। इतना ही नही, मोबाइल दुनिया में भी खासकर एसऍमएस करने में भी इस भाषा का बखूबी प्रयोग हो रहा है। विभिन्न कम्पनियाँ हिन्दी और अंगरेजी को मिलकर कुछ इस तरह विज्ञापन पेश कर रही हैं की उसकी पंच लाईन हर किसी के जुबान पर काबिज हो रही है। इस दौर में कहीं न कहीं बाजारवाद हिन्दी को प्रभावित कर रहा है। यह हिन्दी के बाजार पर वर्चस्व का ही प्रभाव है की हिन्दी फिल्मों के नाम और गाने भी हिंगलिश भाषा में प्रचलन में आ रहे हैं। चाहे फ़िल्म जब वी मेट का नाम हो या कोई और फ़िल्म।

फिल्मी गानों में भी हिंगलिश शब्दों का जमकर प्रयोग किया जाने लगा है। हिन्दी जगत में बाजारवाद इस कदर पैठ कर चुका है की सेंसेक्स जैसे शब्दों का हिन्दी अर्थ न धुंध कर उसी शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया जाने लगा है। हिन्दी ने वर्तमान अर्थशास्त्र की नयी परिभाषा को जनम दिया है।

बहरहाल, मामला बाजारवाद का है, मामला हिन्दी जगत का है। मामला मुनाफे का है, मामला puure हिन्दी क्षेत्र का है। लेकिन तय है की जिस कदर हिन्दी बाजार को प्रभावित कर रही है की आने वाले समय में बाजार पर हिन्दी का आधिपत्य होना तय है।

साभार- देशबंधु, नयी दिल्ली, १८ मई, २००८