9/01/2008

कोसी में समाया मेरा गाँव

आय ते तोरा से गप भए रहल छौ, लेकिन भेंट नहि हेतो।" यह शब्द मेरे उस चचेरे भाई शंकर भैया के हैं, जिनके साथ कभी साथ खेलते थे, साईकल पर बैठाकर उदा, किशुनगंज्, ग्वालपाड़ा, बिहारीगंज ले जाते थे. सुखसेना संस्कृत कालेज के टापर रहे भैया कि नियति ऐसी है कि आज वह अपने परिवार के साथ किशुनगंज में मौत को नजदीक से देखते हुए आलंगन की बाट जोह रहे हैं.
मधेपुरा-किशुनगंज रोड पर ग्वालपाड़ा से पांच किलोमीटर आगे उदा है। उदा पुल से महज आधा किलोमीटर आनंद्पुरा है जहां मेरे बचपन के दिन बीते. बगीचे में आम तोडकर खाये. भुट्टे चुराये और गन्ने चूसता था.लेकिन आज गांव में पानी है. घरों की पांच से छह फ़ीट पानी है.तेरह दिनों से कोशी का प्रकोप सभी झेल रहे है.
पापा और मम्मी भागलपुर में हैं। कुछ दिन पहले भागलपुर विश्वविद्यालय में हड़्ताल थी, तब पापा और मम्मी आनंद्पुरा गये थे. उनकी आत्मा तो बस आनंदपुरा में ही बसती है. हमेशा कह्ते, प्रोफ़ेसर की नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद तुम्हारे पास से जब मन उब जायेगा, तब गांव में ही रहुंगा. मां कह्ती एक बार नौकरी सी सिर्फ़ दस दिन की छुटी लेकर आ जाओ, गांव चल कर देखो. इस साल भी जब होली से पहली भागलपुर गया था तो मां ने जिद की थी जाने के लिये, लेकिन जा नही पाया था.
उस दिन चार बजे सुबह आफ़िस से आने की बाद अपने शकरपुर के कमरे पर सो रहा था, लगभग सात बजे मोबाइल पर चचेरे भाई चंदन भैया का फ़ोन देखकर नींद खुल गयी। वह दिल्ली में ही रह्ते हैं. उनसे हुई बात ने मेरी नींद उड़ा दी.बताया गांव में एकाएक पानी घुस आया है. सभी लोग छत पर दिन्-रात गुजार रहे हैं.
मैने तुरत पापा को फ़ोन लगाया। पापा ने कहा चाचा से तीन दिन पहले बात हुई थी, लेकिन अंदाजा था कि शायद पानी आ सकता है. फ़िर पापा ना जाने कहां-कहां फ़ोन कर सभी सम्बंधियों की खोज-खबर ले रहे हैं
बडे चाचा का पूरा परिवार किशुनगंज में फ़ंसा है। किशुनगंज से बिहारीगंज जाना मुश्किल है. बिहारीगंज से बनमनखी तक ट्रेन कल तक चल रही थी, बीबीसी ने खबर दी है कि आज ट्रेन चलना भी बंद हो गया.
छोटे चाचा, चाची और उनकी नतनी गुड़िया रविवार को किशुनगंज बीडीओ के परिवार के साथ किशुनगंज से बिहारीगंज के लिये निकल चुके हैं, लेकिन अभी कहां हैं। कुछ पता नहीं.पूरी बस्ती में कोई नहीं है, मालूम चला कि गांव के एक चाचा खोखा काका सिर्फ़ वहां गांव की रखवाली के लिये मौजूद हैं.बचपन से मैं ही नहीं लोगों ने उनके अदम्य साहस को देखा है.
सोच कर सिर दर्द करने लगता है। शरीर कांपने लगता है, बाढ़ की जानकारी पाकर्, जानकारी सुनकर्.वह भीत के घर की याद आती है, जिसे तीनों बहनों ने मिलकर, मां के साथ हाथ बंटाकर बनाया था. याद आ रहा है वह लकड़ी का वो सामान जो कभी मैने पूर्वजों के रोपे पेड़ को काट कर बनवाया था,वो आकर्षक डिजाइन का पलंग,वो कुर्सी.याद आ रही है अपनी दादाजी का समाधि स्थल्.
पापा कह रहे थे थोड़ा भी पानी कम हो तब तो वहां जा सकेंगे। सुबह से शाम तक गांव के लोगों को घर-घर फ़ोन कर कहते आप गांव छोड्कर बाहर आ जायें.बाद में सब ठीक हो जायेगा.
आज शंकर भैया बता रहे थे कि राहत सामग्री नही के बराबर है।कई-कई दिनों के बाद नाव आती है. हेलिकाप्टर से गिराये जा रही राहत सामग्री पानी में जा रहा है. यहां किसी का कोई सुनने वाला नही है. जीवन का क्या होगा, पता नहीं.
पापा की सबसे बड़ी बहन यानी मेरी बूआ लापता है। बूढ़ी आंखें पता नही अपनों को देख पायी होगी या पायेगी मालूम नही.
माना कि कोसी, गंडक और बागमती मिथिलांचल में हर साल कहर बन कर आती है।लेकिन इस बार जो हुआ इसके पीछे आप माने या माने मेरा मानना है कि यह विपदा मनुष्य की खुद की बनायी है.
बस, अब आगे लिखने की हिम्मत नही हो रही है. पता नही वो गांव्, वो गलियों में फ़िर से रौशन होगी कि नहीं, अपनी हाथों से बानाये घरोंदे को हमारे जैसे और परिवार देख पाएंगे कि नहीं.

5 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

इंन्सान के लिए इंन्सान ही कब्र खोदता है।

आशीष कुमार 'अंशु' said...

शायद यह पोस्ट मोहल्ला पर प्रतिक्रया के रूप में है.

Anonymous said...

कोसी के कहर से हन सभी दुःखी है । जो कष्ट ने हैं उन्हे भगवान शक्ति दे यही प्राथना है । विपदा के दिन शीध्र समाप्त हो भगवन ।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

सब कुछ शीघ्र सामान्य हो
यही मंगल कामना है.
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चन्द्रकुमार

AJAY GUPTA said...

कोसी ही नहीं, हम भी कसूरवार
यद्यपि यह अवसर कसूरवारों की शिनाख्त का नही है, लेकिन फ़िर भी जल प्रलय में डूबते-उतराते बिहार की चीखों से यह अग्नि प्रश्न जरूर सुनाई दे रहा है कि क्या इस महात्रासदी के लिए केवल और केवल कोसी ही जिम्मेवार है ? या फ़िर वह तंत्र और व्यवस्था भी जिस पर बिहार को इस " श्राप" से जितना हो सके अधिकतम सुरक्षित रखने की जिम्मेवारी थी ? कोसी का कोप नया नही है. बिहार के भाग्य के साथ यह त्रासदी सदियों से नत्थी है. लेकिन दुर्भाग्यग्रस्त इस राज्य से जो सूचनाएँ आ रही हैं वे न केवल समूचे राष्ट्र को शर्मसार करने वाली हैं बल्कि हमारी संवेदनहीनता और निष्ठुरता को भी रेखांकित कर रही है. वहां कोसी के कोप और उसके उतार-चढाव पर नजर रखने के लिए बने " कंट्रोल रूम " में लगे यंत्र अरसे से ख़राब पड़े थे. क्या यह अकेला सच राज्य के शासनतंत्र के मुंह में कालिख पोतने भर को पर्याप्त नहीं है ? यह तथ्य कि राज्य में उन कानों ने, जिन पर उन्हें सुनने की जिम्मेवारी थी, लगातार ऐसी चेतावनियों को अनसुना कर दिया, जो कोसी के कोप की आहटें बता रहीं थीं. राज्य में जारी इस मृत्यु-संघर्ष के लिए वे कान कोसी से कहीं ज्यादा कसूरवार लगते हैं.बिहार के ललाट पर कोसी ने जितना दुर्भाग्य लिखा है, उससे कहीं ज्यादा तो ख़ुद हमने लिख दिया. उस सत्ता और शासन ने लिख दिया जिस पर इस पिछडे-गरीब सूबे की हिफाजत और तरक्की की जिम्मेदारी है. सरकारों और नौकरशाहों के लिए जब तक बाढ़ और सूखा वार्षिक अतिरिक्त उगाही का साधन बनते रहेंगे तब तक उनकी रूचि इन आपदाओं से निपटने के लिए किसी किस्म के स्थाई उपायों तक नहीं जायेगी. काशी के दशाश्वमेध घाट पर बैठे डोम के लिए अर्थियां शोक नहीं, उल्लास का विषय हुआ करतीं हैं. कोसी पहली बार कृपित नही हुई... उसके तांडव से बिहार परिचित है. फ़िर आख़िर अभी तक कोई ऐसा तंत्र क्यों नही विकसित हो सका जो आपदा आने पर बिना समय गँवाए सक्रिय हो सके और जो इतना सक्षम हो कि नुकसान को न्यूनतम बिन्दु तक सीमित रख पाए? इस प्रश्न का उत्तर "साहिबों" की ईमानदारी पर अंगुली उठाता है. " टाईम्स" पत्रिका में सुर्खियाँ बटोरने वाले नौकरशाहों का भी बाढ़ राहत के नम पर लूट के कारोबार में संलिप्त पाया जाना शायद बिहार के लिए कोसी से भी बड़ा श्राप है. बिहार सिर्फ़ लालुओं,पासवानों या नीतीशों की सियासी बाजीगरी का मैदान भर नही है. लग्जरी कार में बैठकर बाढ़ पीडितों को पाँच-पाँच सौ के नोट बांटकर अपनी जय-जयकार कराने वाले नेताओं ने राज्य का शायद कई कोसियों से ज्यादा नुकसान किया है. त्रासदी के इन गहन क्षणों में भी राज्य के राजनेतिक योद्धा उस गंभीरता, समझ और संवेदनशीलता का परिचय नहीं दे पा रहे हैं जो मानवीयता की न्यूनतम कसौटी हैं. छिछले आरोप और दंभ से भरी उक्तियाँ राहत व् बचाव के पुण्य कार्य पर भारी दिख रही हैं. सम्भव है कि देर-सवेर कोसी के कोप को नियंत्रित कर लिया जाए या कोई ऐसा तंत्र विकसित हो जाए जिससे इसका कहर अगली बार कम हो जाए लेकिन राजनेताओं को संवेदनशील बनाने के लिए कोई मंत्र-तंत्र या टोना-टोटका फिलहाल तो तलाशने से भी दिखाई नहीं दे रहा है. जातीय उन्माद से प्राणऊर्जा पाने और अपराधियों की बैसाखियों के सहारे सत्तारोहण करने वाले राजनेता बिहार ही नहीं, देश के लिए गहरे दुर्भाग्य के प्रतीक हैं..... बिहार या यों कहें कि उस देश के लाखों लोग बीते पन्द्रह -सत्रह दिनों से जीवन और मृत्यु के बीच खींचतान से हलकान हैं, जहाँ केन्द्र सरकार विकास दर के आंकडे लेकर आत्ममुग्धता के चरम पर आसीन है. उसके पास खुश होने को विकासदर है और चिंता करने को परमाणु करार. रायसीना की पहाडियों पर स्थित सत्ता केन्द्र की नजर में कोसी से उपजे संकट कहाँ समाते हैं? करार पर वह आईऐईऐ में सौ से ज्यादा मुल्कों को अपने मसौदे पर राजी कर लेती है और एनएसजी में ४५ देशों की स्वीकृति जुटा लेने का भरोसा रखती है, लेकिन बिहार में बाढ़ के प्रश्नों पर स्थाई तौर पर विराम लगाने के लिए वह नेपाल जैसे छोटे पड़ोसी और मित्र राष्ट्र को राजी नहीं कर पाती है. आपदा प्रबंधन के नाम पर बने राष्ट्रीय प्राधिकरण की बाढ़ के मसले पर बैठक हुए अरसा हो गया, लेकिन हुकूमत-ए-हिन्दुस्तान के लिए ऐसे मसले प्राथमिकता सूची से बहुत दूर हैं. बाढ़ देश भर में तीन हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की वार्षिक क्षति करती है, इंसानी जानों का नुकसान अलग, लेकिन सत्ता और तंत्र चलाने वालों की चिंता-परिधि में यह सवाल अभी तक अपनी जगह नहीं बना पाया है.बाढ़ के नाम पर हर साल हजारों करोड़ का गोरखधंधा सत्ता प्रतिष्ठानों को रास आता है, लेकिन नदी जोड़ने जैसे विकल्पों पर उसकी नजर नहीं जाती. यहाँ एक बात और सारा दोष सरकार पर डालकर हम अपने दायित्यों से बरी नहीं हो सकते. बिहार की पीड़ा सरकारी शब्दकोष के शब्द "राष्ट्रीय आपदा" के एलान भर से समूचे राष्ट्र की नहीं हो सकती. खेद के साथ कहना पड़ेगा की बिहार की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने-मनने और उसके निराकरण के लिए सक्रिय होने के लिए शेष भारत को जो कुछ करना चाहिए था, वह सब नहीं किया जा रहा. बिहार पूरे देश का है, इस नाते यह पीड़ा भी पूरे देश की होनी चाहिए. लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हम आख़िर कैसे कहें कि हम इससे राष्ट्रीय आपदा की गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ जुड़े हैं ?