4/08/2009

हिन्दी फिल्मों के ज्यादातर अभिनेता राजनीति में हो जाते हैं गुम

दक्षिण के स्टारों की बजती है धुन
अभिनेता राजनेता तो बन जाते हैं लेकिन राजनीति में सक्रिय भागीदारी की कमी उनकी काबिलियत पर सवाल खड़े करती है। हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं की तूती आम जनता के बीच जमकर बोलती है लेकिन राजनीति की रपटीली राहों में वे खो जाते हैं। अभी तक मुट्ठी भर अभिनेता ही ऐसे हुए हैं जिन्हें केन्द्रीय कैबिनेट में शामिल होने का मौका मिला है। वहीं, दक्षिण भाषाओँ की फिल्मों के अभिनेताओं की लोकप्रियता और कामकाज का आलम यह है कि उन्होंने मुख्यमंत्री जैसे पद पर पहुँचने के साथ-साथ वर्षों तक जनता के दिलों पर शासन भी किया है।
कुछ समय पहले संजय दत्त का राजनीति में उदय हुआ। समाजवादी पार्टी ने उन्हें लखनऊ से उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया लेकिन वैधानिक आधार पर खड़े नहीं उतरने के कारण उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा देने के बाद नफीसा अली को टिकट दिया गया है। इससे पहले भी लखनऊ की सीट पर समाजवादी पार्टी ने मुजफ्फर अली को दो बार लोकसभा का टिकट दिया लेकिन वह जीत नही पाए। राजबब्बर भी समाजवादी पार्टी के टिकट पर सांसद बने, हालाँकि बाद में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। फ़िल्म अभिनेत्री जयाप्रदा भी उत्तरप्रदेश के रामपुर सीट से सांसद बनी।
गौरतलब है कि नेहरू-गांधी परिवार से निकटता के कारण अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से सांसद तो बने लेकिन जल्द ही राजनीति से उनका मोहभंग हो गया। आपातकाल के दौरान देवानंद ने अपनी पार्टी बनाकर राजनीति में प्रवेश किया लेकिन आखिरकार फिल्मी दुनिया में वापस हो गए। हिन्दी फिल्मों की मायावी दुनिया से निकलकर वैजंतीमाला, राजेश खन्ना, जया बच्चन, हेमामालिनी, धर्मेन्द्र, पूनम ढिल्लन और गोविंदा ने भी संसद की राह देखी है। सुनील दत्त, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा ऐसे अभिनेताओं में शुमार रहे जिन्हें कैबिनेट मंत्री बनने का मौका मिला। हालाँकि नरगिस दत्त और शबाना आजमी को राज्यसभा का सदस्य बनने का मौका मिला।
हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं के विपरीत दक्षिण भारत की फिल्मों के अभिनेताओं ने फिल्मों के साथ-साथ देश की राजनीति के इतिहास में जमकर जलवा बिखेरा है। उनमें कई को अपने-अपने राज्य में सत्ता भी हासिल हुई है। एमजे रामचंद्रन ऐसे पहले अभिनेता रहे जिन्हें पहली बार किसी राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी मिले। वह ५० का दशक था। जयललिता का फिल्मी परदे से हटकर राजनीति में उदय हुआ और वे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं। यही इतिहास करूणानिधि का भी है। दक्षिण फिल्मों के एक अन्य अभिनेता एनटी रामाराव ने अपनी काबिलियत की बदौलत न सिर्फ़ आँध्रप्रदेश की राजनीति बल्कि देश के राजनीति को भी प्रभावित किया। इसके अलावा, रजनीकांत, चिरंजीवी, विजयकांत, राजकुमार आदि ने भी फिल्मी दुनिया से आकर राजनीति में भी जलवे बिखेरे और उनकी लोकप्रियता अपार है।

3 comments:

संगीता पुरी said...

बिल्‍कुल सही लिखा है आपने ... अच्‍छे आलेख के लिए धन्‍यवाद।

Anonymous said...

बिल्‍कुल सही और सटीक कहा. थोड़ा और विस्‍तार से कहते तो और मज़ा आता.
सलाम

राकेश
rakeshjee@gmail.com

Anonymous said...

राजनीति के गुलदस्ते
उमेश चतुर्वेदी
चुनावी माहौल में इन दिनों नेता बने अभिनेता बेहद चर्चा में हैं। दोनों हिंदी फिल्मों के नामी-गिरामी सितारे हैं। दोनों का नाम उस फिल्म की सफलता की गारंटी होती है। लेकिन दोनों अपनी इस फिल्मी लोकप्रियता को सियासी मैदान में भुनाने के लिए मैदान में नहीं उतर सके। इनमें से एक को जहां सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी तो दूसरे को उसकी पार्टी ने ही इस काबिल नहीं समझा। जी हां, ठीक फरमाया। यहां चर्चा संजय दत्त और गोविंदा की हो रही है।
चुनाव लड़ने और ना लड़ने की खींचतान के बीच एक सवाल पूरी तरह से गायब है। वह सवाल है कि इन राजनेताओं की क्या कोई सियासी वकत भी है, जनता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही भी है या फिर ये राजनीति के ड्राइंग रूम में सजाने के लिए सिर्फ गुलदस्ते की ही भूमिका निभाते हैं। गोविंदा की मुंबई के कांग्रेसी मैदान से विदाई से साफ है कि फिल्मी पर्दे पर ये राजनेता जनता की चाहे जितनी सेवा कर लें, जनता के हकों की लड़ाई चाहे जितनी कामयाबी से लड़ लें – लेकिन अगर उनमें सचमुच जनता की सेवा करने का जज्बा नहीं है तो सियासी मैदान में उनकी उपयोगिता खत्म हो जाती है और संसद में एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी पार्टियां उन्हें चुनावी मैदान से निकाल बाहर करने में भी देर नहीं लगातीं। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, ये हालत राष्ट्रवाद के मुद्दे को जिंदा रखने वाली बीजेपी और डॉक्टर लोहिया और नरेंद्रदेव की चिंता करने वाली समाजवादी पार्टी सबके साथ है। डॉक्टर लोहिया के चेले मुलायम सिंह को तो जहां भी थोड़ी उम्मीद दिखती है, वहां उनके पास फिल्मी मैदान से उतारने के लिए एक नेता मिल जाता है। जयाप्रदा, जया बच्चन, संजय दत्त और राजबब्बर के अलावा उसे कोई दिखता ही नहीं है। ये बात और ही राजबब्बर आजकल कांग्रेस की बहियां थाम बैठे हैं। वैसे राजबब्बर सियासी अभिनेताओं से कुछ अलग जरूर हैं। उन्होंने समाजवादी युवजन सभा से छात्र राजनीति शुरू की थी। पुलिस की लाठियां भी खाईं थीं। लेकिन जया बच्चन हों या जया प्रदा या फिर संजय दत्त...उनका ऐसा क्या इतिहास रहा है।
1984 के आम चुनावों में राजीव गांधी ने कुछ वैसे ही अभिनेता-अभिनेत्रियों पर भरोसा जताया था, जैसे आज अमर सिंह कर रहे हैं। तब इलाहाबाद से अमिताभ बच्चन, चेन्नई से बैजयंती माला और ऐसे ही ना जाने कितने रजत पटी चेहरे मैदान में उतार दिए गए। उनकी फिल्मी लोकप्रियता बैलेट बॉक्स में भी जमकर बरसी और वे देश की सबसे बड़ी पंचायत में जा पहुंचे। लेकिन वहां उनका प्रदर्शन कैसा रहा, ये संसद की कार्यवाही के इतिहास में दर्ज है। अमिताभ को तो जल्द ही मैदान छोड़ना पड़ा और बैजयंती माला बाली भी राजनीति को बॉय-बॉय बोल चुकी हैं। गोविंदा उसी की अगली कड़ी हैं। 2004 के आम चुनावों में उन्होंने राम नाइक जैसे कद्दावर नेता को हरा तो दिया – लेकिन जनता से उनका वैसा संवाद नहीं बना, जैसी की उनसे बतौर एक राजनेता और सांसद अपेक्षा पाली गई थी। अकेले कांग्रेस की ही ये कहानी नहीं है। बीजेपी ने भी अपनी स्टार प्रचारक हेमा मालिनी के पति धर्मेंद्र को बीकानेर की सीट से दिल्ली के दरबार में दाखिल करा दिया- लेकिन जिस जनता के वोटों से जीतकर वे संसद की सपनीली पंचायत में पहुंचे, उसके प्रति वे अपना कोई फर्ज नहीं निभा सके। परिणाम ये हुआ कि उनके वोटरों को धर्मेंद्र के लापता होने का पोस्टर लगाना पड़ा।
ये सच है कि आज के दौर में बहुत सारे राजनेता ऐसे हैं – जो अपनी जनप्रतिबद्धता को सही तरीके से निभा नहीं पा रहे हैं। उन पर पैसाखोरी और अंधाधुंध कमाई के साथ ही भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं। उनकी तुलना में अभिनेता-अभिनेत्रियों की एक सामाजिक छवि होती है। फिल्मी पर्दे पर वे जनता की लड़ाई करते हुए दिखते-दिखाते कम से कम औसत मतदाताओं में उनकी ये सामाजिक छवि विकसित होती है। यही वजह है कि आम लोग टूट कर उन्हें वोट देते हैं। लेकिन जब यही अभिनेता उसकी समस्याओं को दूर कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता, उसे लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं जताता तो जनता उसके लापता होने का पोस्टर लगाने लगती है। फिर जो पार्टी उसे धूमधाम से संसद में अपना एक वोट बढ़ाने के लिए टिकट देकर जिता कर लाई होती है – वही उससे किनारा करने लगती है। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी उस जनता को होती है, जो बड़े अरमानों के साथ उस नेता को जिता कर संसद के गलियारे में भेजती है। पार्टी भले ही बाद में उसका टिकट काट दे – लेकिन नुकसान उस जनता को ही भुगतना पड़ता है, जिसने अपना कीमती वोट उस राजनेता बने अभिनेता को दिया होता है। उसका पांच साल बरबाद हो जाता है। डॉक्टर लोहिया कहते थे कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं कर सकतीं – लेकिन मजबूरी देखिए कि इस जिंदा कौम को पूरी सजगता के बावजूद पांच साल तक अपनी बदहाली दूर कराने , अपनी समस्याएं निबटवाने वाले राजनेताओं की खोज के लिए पांच साल तक इंतजार करना पड़ता है।
ऐसे में ये कहा जाय कि सियासी स्वार्थ के लिए पार्टियां ऐसे अभिनेताओं को अपने साथ लेकर आती हैं, उन्हें जिताती भी हैं। लेकिन उनकी भूमिका राजनीति के ड्राइंग रूम में सजे गुलदस्ते से ज्यादा की नहीं होती। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि सियासी ड्राइंगरूम में इन अभिनेताओं को गुलदस्ते की तरह सजाने की जरूरत क्या है। क्या संसद के गलियारे में अपना एक वोट बढ़ाने के लिए जनता के प्रति जवाबदेही को पांच साल तक स्थगित रखा जाना चाहिए। अभी तक तो जनता ये सवाल नहीं पूछ रही है। लेकिन देर-सवेर राजनीतिक पार्टियों से ये सवाल पूछे जाएंगे। तब शायद कोई मुन्नाभाई या विरार का छोकरा महज गुलदस्ता बनने राजनीति के आंगन में नहीं उतरेगा। लेकिन इससे वे पार्टियां भी अपनी सामाजिक भूमिका से बच नहीं सकतीं, जिनके हाथ इन गुलदस्तों को सजाने के लिए आगे बढ़ते रहे हैं।
उमेश चतुर्वेदी
uchaturvedi@gmail.com