5/06/2009

बदले समीकरण : कौन किसका करेगा वरण?

बदले समीकरण : कौन किसका करेगा वरण?
तमिलनाडु दक्षिण भारत का वह राज्य है जहां हमेशा से चुनावी घमासान दो प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों के बीच होता आया है। हमेशा से इस गठबंधन में किसी न किसी द्रविड़ पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यहां वजूद रखने वाली सभी राष्ट्रीय या प्रमुख पार्टियों का अभी तक लगभग हर चुनाव में अपने से छोटी पार्टियों की सहायक पार्टी बनना ही नियति बन चुकी है। राज्य में इस बार लोकसभा चुनाव के दौरान श्रीलंका में तमिलों के कथित संहार का मुद्दा डीएमके व कांग्रेस गठबंधन के लिए सिरदर्द बन गया है जो लगता है कि काफी हद तक चुनाव को प्रभावित करेगा।

यघपि इसे लेकर राज्य में मतदाता अभी तक पसोपेश में ही बताया जाता है। लगता है कि यह स्थिति श्रीलंका में तमिलों को लेकर केंद्र सरकार के रवैये के कारण है जिसने पहले तो इस मामले में महेंद्र राजपक्षे की सरकार पर कोई दबाव नहीं बनाया लेकिन जब भारत में भी काफी होहल्ला होने लगा तो उसने तमिलों के खिलाफ कार्रवाई रोकने के लिए कूटनयिक प्रयास शुरू किए। लेकिन इससे ज्यादा अहम राज्य में पहली बार जातीय-राजनीतिक समीकरणों का बदल जाना है। इस हालत में यह अंदाज पाना लगभग कठिन हो गया है कि चुनाव में कौन मतदाता किसका वरण करेगा। इसके अलावा दूसरे राज्यों की भांति यहां भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का कुनबा बिखर चुका है। हाल के दिनों तक द्रमुक का सहयोगी रहा पीएमके ऐनवक्त पर साथ छोड़कर तमिलनाडु की छह सीटों पर जयललिता के नेतृत्व वाले गठजोड़ के बैनर तले मैदान में है। पीएमके ही नहीं, इस बार एमडीएमके, सीपीआई और सीपीएम जैसे दल भी अन्नाद्रमुक के साथ हैं जिसका नेतृत्व ब्राह्मण नेता जयललिता के हाथ है।



गौरतलब है कि तमिलनाडु ही वह राज्य है जहां 2004 के लोकसभा चुनाव में द्रमुक के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक प्रगतिशील गठबंधन (डीपीए) ने सभी सीटों पर कब्जा जमाया जबकि सत्तासीन अन्नाद्रमुक ने पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य की 234 सीटों के मुकाबले 224 सीटों पर अपनी जीत दर्ज की थी। अपनी विशष्टि जातीय संरचना के कारण यहां का राजनीतिक परिदृश्य हमेशा ही पूरे देश का ध्यान अपनी आ॓र खींचता है। द्रविड़ पार्टियों का उदय गैर ब्राह्मण आंदोलन के दौरान हुआ था लेकिन आज अन्नाद्रमुक जैसी बड़ी द्रविड़ पार्टी का नेतृत्व जयललिता के हाथ में है जो खुद ब्राह्मण हैं। इतिहास गवाह है कि ’91 के विधानसभा चुनाव में अन्नाद्रमुक को जहां 164 सीटें मिली थीं, वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी द्रमुक की झोली में महज दो सीटें आईं थी। इस संबंध में दिलचस्प है कि ’96 में जब अगला विधानसभा चुनाव हुआ तो द्रमुक ने 173 सीटें जीत लीं जबकि अन्नाद्रमुक को महज चार सीटों से संतोष करना पड़ा था।



सीएसडीएस की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य के उत्तरी हिस्से में द्रमुक काफी मजबूत हुआ है, वहीं पश्चिमी और कावेरी डेल्टा इलाकों में अन्नाद्रमुक जबकि दक्षिणी के अंदरूनी इलाकों में राष्ट्रीय पार्टियों ने अपनी पैठ बनाई है। राज्य में कभी जाति व समुदाय की पहचान दो बड़ी पार्टियों के जरिये होती थी। थेवर, गुंडर और अरूंधतीयरों का वोट पूरी तरह अन्नाद्रमुक के साथ होता था जबकि मुसलमानों, ईसाईयों और दलितों का कुछ समूह द्रमुक के साथ था। पीएमके का वोट बैंक वन्नियार हुआ करता था लेकिन अब इन समीकरणों में बदलाव आया है। दक्षिणी तमिलनाडु के अंदरूनी इलाकों से डीएमके का पारंपरिक वोट खिसका है। हालांकि कावेरी के डेल्टा इलाकों सहित उत्तर-मध्य क्षेत्रों में इसकी पकड़ मजबूत हुई है। माना जा रहा है कि मुदलियारों का वोट बैंक भी डीएमके के हाथों से निकल चुका है और वन्नियारों का वोट भी अब इसके पास नहीं है। शिवगंगा से खड़े हुए पी. चिदंबरम और मायलादुतुराई से मणिशंकर अय्यर को अपनी सीट बचाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ रही है।

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