5/22/2009

अच्छा तो यह है भागलपुर मेरी जान

भागलपुर, जिसे कभी दुनिया ने प्रसिद्ध उपन्यास देवदास को अपनी कलम देने वाले शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय या फिर अपनी अदाकारी और गायकी से सभी को मुरीद बनाने वाले किशोर कुमार की कर्मस्थली के रूप में जाना हो। साथ ही दादा साहब फाल्के अवार्ड विजेता अशोक कुमार 'दादामुनि' और बीते जमाने की सुप्रसिद्ध अदाकारा देविका रानी के साथ-साथ मशहूर फिल्म निदेशक तपन सिन्हा ने अंग जनपद की इस पवित्र माटी में अपने को जितना निखारा है, वह किसी से छिपा नहीं है।
इतिहास के पन्नों में भागलपुर का नाम अंकित कराने वाले इन प्रतिभाओं की इस कर्मस्थली के साहित्यकारों की निगाहें आज एक अदद प्रेक्षागृह को तरस रही हैं। कहने को तो यह दो निजी प्रेक्षागृह हैं, लेकिन आज वे भी बदलते परिवेश में काफी पीछे छूट गए। यह दीगर बात है कि काफी समय से शहर में प्रेक्षागृह की मांग उठती रही है। इसके पूरा नहीं होने की कसक साहित्यकारों के चेहरों पर साफ झलकती है। बगुला मंच के संस्थापक रामावतार राही कहते हैं कि प्रेक्षागृह नहीं होने से साहित्य कर्मियों को सांस्कृतिक कार्यक्रम कराने में कितनी पीड़ा होती है। यह किसी से भी छिपी नहीं है। वे कहते हैं कि इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि प्रसिद्ध साहित्यकारों की जयंती भी किराए पर भवन लेकर माननी पड़ती है। इसे कराने में हजारों का खर्च आता है।
'साहित्य सफर' के जगतराम साह 'कर्णपुरी' तो यह तक कहते हैं कि भागलपुर की सांस्कृतिक विरासत को भी राजनीति ने अपने आगोश में ले लिया है। वे कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में साहित्य कर्मियों की किसी भी पीड़ा को किसी भी सियासी दल ने अपने एजेंडे में नहीं लिया। परिधि के ललन कुमार तो साफ तौर पर कहते हैं कि प्रेक्षागृह के अभाव में नई प्रतिभाओं का दमन होता है। वे कहते हैं कि अपनी कला को बेहतर मंच नहीं मिलने से प्रतिभाएं कुंठित होकर दूसरी राह पर चल पड़ती हैं। उन्होंने कहा कि अगर आगे भी यह सिलसिला चलता रहा तो ऐसे तो सांस्कृतिक गतिविधियों पर ही विराम लग जाएगा। मयंक महेन्द्र बताते हैं कि सुशील मोदी जब भागलपुर के सांसद थे, तब उन्होंने मारवाड़ी पाठशाला स्थित जर्जर नेपाली प्रेक्षागृह के बेहतर रख-रखाव के लिए अपने कोष से दो लाख रुपये दिए थे, लेकिन आज तक प्रेक्षागृह में शेड का ही काम हो पाया है। उन्होंने कहा कि प्रेक्षागृह नहीं होने से गरीब साहित्य कर्मियों को दूसरों की दया पर निर्भर होना पड़ता है। यह हमारी हकीकत को बयां करने के लिए काफी है।
साभार : दैनिक जागरण

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