9/15/2009

लिखित शब्दों का विकल्प नहीं : रविन्द्र कालिया, संपादक, नया ज्ञानोदय

हिन्दी पाठकों की संख्या कम नहीं हो रही है। दिल्ली में आयोजित पुस्तक मेले में हमारी पत्रिका के करीब 120 वार्षिक पाठक बने और हजारों किताबें बिकीं। पत्रिका का सितम्बर अंक तीसरी बार री-प्रिंट कराना पड़ा। यह अलग बात है कि कभी ‘धर्मयुग’ के पाठक तीन लाख थे लेकिन वर्तमान दौर में किसी भी पत्रिका के इतने पाठक नहीं हैं।
इससे भी इतर बात यह है कि अधिकतर पत्रिकाओं के पास न तो कोई सोर्स है और न ही बड़ा नेटवर्क। पर अब भी बाजार में लघु पत्रिकाएं कम नहीं हैं। हजार पाठक तो हर पत्रिका के हैं ही लेकिन सही बाजार न हो तो लोगों तक पत्रिकाएं नहीं पहुंच पाती हैं। हिंदी के पाठकों की कमी नहीं है। जहां तक हिंदी ब्लॉग की बात है तो यह किसी भी पत्रिका के लिए चुनौती नहीं है। क्योंकि लिखित शब्दों का कोई विकल्प नहीं है।

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