9/15/2009

लेखक ही हो गए हैं पाठक : हरिनारायण, संपादक, कथादेश

हिन्दी पट्टी की जनसंख्या और साहित्यक पाठकों को देखें तो स्थिति काफी निराशाजनक है। किसी भी लघु पत्रिका का पाठक पांच- छह हजार से अधिक नहीं है। लघु पत्रिकाएं काफी सीमित संख्या में छप रही है। खाने-पीने वाले घरों के बच्चों खासकर कॉन्वेंट में पढ़ने वाले बच्चों में तो हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कतई नहीं पढ़ते, उनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं है। उन बच्चों का मन हिंदी सीरियल और फिल्में देखने में नहीं लगता। वर्तमान दौर में पत्रिकाएं अपने सीमित साधनों के बदौलत निकल रही हैं। यदि कोई सरकारी विज्ञापन मिल भी गया और दो-ढाई सौ प्रतियां छप भी गईं लेकिन उसके पाठकों वर्ग का दायरा नहीं बढ़ा तो क्या फायदा।

हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी अखबारों के पाठकों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन लघु पत्रिकाओं की स्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ है। लोगों की जिंदगी में लघु पत्रिकाएं, अखबारों की तरह जरूरत नहीं हंै। लेखक ही पाठक हो गए हैं। यहां तक कि विश्वविघालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक या विभिन्न संस्थानों में काम करने वाले हिंदी अधिकारी तक हिंदी की साहित्यिक पत्रिका नहीं खरीदते हैं।

1 comment:

Anonymous said...

पत्रिकाओं के आत्मावलोकन का समय है।