10/28/2009

उत्तर आधुनिकता और जातीय अस्मिता

उत्तर आधुनिकतावाद एक ऐसा ग्लोबल खेल है, जिसमें हम सब शरीक है। वह हमारी ही भूमंडलीय अवस्था का रामायण है। मीडिया माध्यमों ने ‘यथार्थ’ के साथ हमारे रिश्ते को इस कदर बदल दिया है कि हमारी इंद्रियां अब यथार्थ को सीधे-सीधे ग्रहण नहीं करतीं। सूचना क्रांति ने हमारे ‘बोध’ में ऐसा उलट-पलट किया है कि हमें पता ही नहीं है कि हम कब स्थानीय है, कब भूमंडलीय। हम एक ऐसी चुनौतीभरी विचारधारा की दुनिया में जी रहे हैं जिसमें समस्त मानवीय चिंतन, साहित्य, व्यवस्था, विचारधारा, धर्म, दर्शन, इतिहास, आंदोलन, प्रवृत्तिवाद, सभ्यता, संस्कृति, मूल्य व्यवस्था सभी को ‘उत्तर’, ‘पोस्ट’ व्यतीत घोषित कर दिया है।
कृष्णदत्त पालीवाल ने अपनी पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकतावाद और दलित विमर्श’ के जरिए विमर्श, दलित चिंतन और प्रगति के फल पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया है। पिछले तीन दशकों में उत्तर-आधुनिकतावादी नव चिंतन का जो पूरा बिंब उभरता है, उसमें वैचारिक कलह बहुत है। उत्तर-आधुनिकतावाद के मूल तत्व में बहुलतावाद तथा बहु-संस्कृतिवाद, विकेंद्रीयता, क्षेत्रीयता, लोकप्रिय संस्कृति, परा-भौतिकवाद पर अविश्वास, नारीवाद, दलित आंदोलन, महान आख्यानों का अंत, विचारधाराओं का अंत, शाश्वत साहित्य सिद्धांतों का पतन, विरचनावाद कर्त्ता का अंत समाहित है। बहुराष्ट्रीय निगमों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मांग के अनुकूल पूरी शिक्षा व्यवस्था को ढाला जा रहा है, बदला जा रहा है।
पालीवाल वर्तमान परिदृश्य पर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि यह ‘मैनेजमेंट युग’ का ही प्रभाव है कि साहित्य-कला, दर्शन, इतिहास और समाजशास्त्र की कद एकदम कम हो गई है। ‘लेखक’ का अंत हो गया है। ‘विचार’ का अंत हो गया है। ‘मूल्यों’ पर आधारित पूरी समाज-व्यवस्था का अंत हो गया है। पुरानी ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नया आधुनिकीकरण है, जिसमें तकनीकी क्रांति की विजय यात्रा है। आलोचना का दायित्व है कि देश और काल में निरंतर बदलते हुए मनुष्य और संदर्भ को परिभाषित करे। नया दलित-विमर्श समतामूलक, शोषण मुक्त, आत्मसम्मानपूर्ण और छुआछूत रहित समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देता है। लोक जागरण के नाम पर नए किस्म के अंधकार युग को लेकर उनका मानना है कि इसमें न तुलसी के लिए स्थान है, न कबीर के लिए , न गांधी-अंबेडकर के लिए । दलित-साहित्य-विमर्श आज के साहित्य की यह राजनीति है, जिसमें धर्मवीरों की गुर्राहट है और नामवरों की लिए मुश्किल।
पालीवाल पुस्तक के जरिए सवाल करते हैं कि दलित साहित्य और गैर दलित साहित्य, अगड़ी जातियों द्वारा रचा गया वर्चस्ववादी साहित्य और पिछड़ी जातियों द्वारा सृजित पीड़ा-यातना का साहित्य जैसे विभाजन को मानने और मनवाने के प्रयास के पीछे दलित साहित्य की राजनीति का ‘हिडन एजेंडा’ क्या है? दलित साहित्य की राजनीति करने वालों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि कई मुद्राओं में यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकते हैं-अन्य गैर दलित क्यों नहीं? यहां ‘केवल’ पर विवाद है, भोगे हुए यथार्थ की प्रामाणिक अनुभूति और अनुभूति की ईमानदारी पर नहीं।
पुस्तक की भूमिका ‘विखंडन का विखंडन’ में कृष्णदत्त पालीवाल अपनी बात रखते हैं। उनका मानना काफी हद तक सही है कि हम एक ऐसा चुनौती भरे समय में जीवित हैं, जिसमें सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति, जातीय अस्मिता की तलाश जैसी जटिल अवधारणाओं का प्रयोग जरूरत से ज्यादा हो रहा है। बहरहाल, उत्तर आधुनिक परिदृश्य में दलित साहित्य एक तरह से क्रांतिकारी विचार-प्रवाह की निष्पत्ति की है। पिछड़े, अति पिछड़े, वंचितों, उपेक्षितों और परिधि पर यातना भोगते विशाल जन-समाज को इस साहित्य ने शब्द और कर्म के समाजशास्त्र की आ॓र प्रवृत्त किया है।
साभार : राष्ट्रीय सहारा

10/19/2009

कुत्ते या आदमी : एक कविता

कुत्ते या आदमी

कुछ लोग कुत्ते बना दिए जाते हैं
कुछ लोग कुत्ते बन जाते हैं
कुछ लोग कुत्ते पैदा होते हैं

कुत्ते बनने और बनाने का जो खेल है
काफी हमदर्दी और दया का है
क्योंकि न तो कुत्ते के पूंछ
सीधे होते हैं और न ही किए जा सकते हैं

आदमी थोड़ी देर पैर या हाथ मोड़कर
सोता है लेकिन थोड़ी देर बाद सीधा कर लेता है
लेकिन कुत्ते की पूंछ हमेशा टेढ़ी ही रहती है
न तो उसे दर्द होता है और न ही सीधा करने की उसकी इच्छा होती है

कुत्ता कुछ सूंघता है, लघुशंका करता है
और फिर वहां से नौ-दो-ग्यारह हो जाता है
लेकिन जो कुत्ते बना दिए जाते हैं
वह सूंघते तो हैं लेकिन करने लगते हैं चुगलखोरी और चमचागिरी
जो कुत्ते बन जाते हैं वे इसे इतर नहीं होते
उनके होते तो हैं दो हाथ व दो पैर
लेकिन दूसरों के जूठे, थूक-खखार व किए हुए उल्टी
चाटने में मजा आता है

हां, और जो लोग जन्मजात कुत्ते होते हैं
वे कुत्तेगिरी से बाहर नहीं निकल सकते
ऑफिस में नौकरी कम, बॉस के तलवे अधिक चाटते हैं
और रात होने पर बन जाते हैं महज एक नैपकीन।

10/18/2009

ग्रीन टैलेंट : सौमिता बनर्जी

पच्चीस साल की सौमिता बनर्जी दुनिया की उन पहली "ग्रीन टैलेंट' में शुमार है, जिनका ख्वाब है कि हमारी पृथ्वी साफ-सुथरी होने के साथ-साथ हरी-भरी भी हो। इसके लिए जहां र्इंधन के प्रदूषण मुक्त होने को लेकर शोध कर रही है, वहीं जर्मनी में आयोजित प्रतियोगिता के दौरान उन्होंने वहां व्यापक अध्ययन किया। जर्मनी के विभिन्न विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और कंपनियों में जाकर अध्ययन करना, उनके लिए काफी रोमांचकारी रहा। उनका यह दौरा जर्मन फेडरल मिनिस्टरी ऑफ एजुकेशन एंड रिसर्च द्वारा ग्रीन टैलेंट कंपीटिशन के तहत था। इस मौके पर पूरे विश्व के पर्यावरण वैज्ञानिक मौजूद थे।
सौमिता दुनिया के उन पंद्रह युवा वैज्ञानिकों में शामिल थीं, जो 43 देशों के 156 प्रतिभागियों में से चुने गए थे। उन्होंने स्कूली शिक्षा नागपुर में पाई और दसवीं व बारहवीं कक्षा में काफी अच्छे अंक हासिल किये। पर्यावरण को लेकर दिलचस्पी बढ़ने को लेकर, वह बताती हैं कि अंडरग्रेज्युएट के दौरान आनुवांशिक विज्ञान से प्रभावित हुई और कालांतर में बायोटेक्नोलॉजी की उच्च शिक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। वह फिलहाल नागपुर स्थित नेशनल इनवारामेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट¬ूट से पीएचडी की डिग्री हासिल कर रही है।
पीएचडी की डिग्री हासिल करने को लेकर वह कहती है कि उन्हें ढर्रे की जिंदगी पसंद नहीं। वह हर दिन अपने जीवन के साथ-साथ कार्य में बदलाव चाहती है। रिसर्च के कारण हर दिन नए प्रयोग करने के लिए वह स्वतंत्र हैं। सौमिता का शोध बोयोइथेनॉल को लेकर है, जिससे इको फ्रेंडली के लिए लाभदायक हो सकता है। इसका प्रयोग र्इंधन के तौर पर किया जा सकता है। वैकल्पिक र्इंधन के तौर पर बायोमॉस के इस्तेमाल पर उसका शोध जारी है। पर्यावरण को लेकर उसका मानना है कि जलवायु परिवर्तन सबके लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
साभार : राष्ट्रीय सहारा