11/08/2009

पंकज सिंह की कविता संग्रह 'नहीं' की समीक्षा

नहीं से हां तक की संभावना

वर्तमान दौर की जद्दोजहद और भविष्य को एक नए आयाम देने या पहुंचाने के दिवास्वप्न के इर्द-गिर्द के शब्द ही पंकज सिंह की कविताओं का यथार्थ है। यथार्थ की द्वन्द्वात्मकता को कविता के रूप में ढाल कर व्यापक अनुभव के दायरे और मनुष्य की आकांक्षा और संभावना को सामने लाने का काम कविता संग्रह ‘नहीं’ के जरिए किया गया है। तभी तो कविता ‘वहीं से’ में वह कहते हैं, ‘कौन विश्वासघात करता है/ कौन चुप रह गया था पेशेवर जल्लाद की तरह सर्द/सीधी आंखों घूरता हुआ/कौन था पाश्चाताप को जाहिर न करता।’

पंकज सिंह की इन 61 कविताओं की दृष्टि संपन्नता और आशय इन्हें कोरे नकार की निष्फलता से बचाकर संवेदना की उस मनभूमि में ले जाते हैं जो ‘नहीं’ की पवित्र दृढ़ता से अनंत संभावनाओं की प्रक्रिया और उसकी सहज-अबाध परिणतियों के प्रकट होते जाने की आश्वस्ति देती है। ‘उन्हीं पुराने शब्दों को’ कविता की पंक्तियां हैं, ‘आखेटक की हिंसा में सिर्फ आखेट नहीं करता/समयता के बियाबान में आखेटक को भी/राख करती जाती है उसी हिंसा/कोई नहीं बताता कब तक/मुक्ति के विज्ञान में रक्ताभ/अकेले उपकरण सी निनाद करेगी/प्रतिहिंसा।’ अनुभव-अनुकूलित शिल्प का सुघड़पन से सुसज्जित कवितायें बेबाक होकर वर्तमान समय से साक्षात्कार कराने का माद्दा रखती हैं।

'हम वापस लौटते हैं जाने कहां से कहां/एक फरेब की चोट खाये दूसरे फरेब में/ठहरे काले पानी वाली दु:स्वप्न में/हम कहते हैं खुद में हमें पुरानी वेबकूफियों से बचना/आ गये हैं इसी तरह किस्त-दर-किस्त/खुद को निपटाकर।’

छल-प्रपंचों और दुनियादारी की वस्तुस्थिति को पाठकों के सामने रखती हुई कविता ‘देखते हुए छिली त्वचा को’ में बखूबी वे कहते हैं, ‘हम वापस लौटते हैं जाने कहां से कहां/एक फरेब की चोट खाये दूसरे फरेब में/ठहरे काले पानी वाली दु:स्वप्न में/हम कहते हैं खुद में हमें पुरानी वेबकूफियों से बचना/आ गये हैं इसी तरह किस्त-दर-किस्त/खुद को निपटाकर।’ और जब वे टीवी चैनलों के पत्रकारों को आत्मविहीन होकर खबरें परोसते देखते हैं तो कुछ यूं काव्य की पंक्तियां सामने आती हैं, ‘कालाहांडी अगरतला तरन-तारन मंचरियाल गये/हिंदी-अंग्रेजी के पत्रकार दनदनाते/खूब हुई लिखी-पढ़ी आवाजाही/राष्ट्रीय पुरस्कार सनसनीखेज समाचार तेज टीवी चैनल/तेज तेज हुआ हुआ हुआ/हुआं हुआं।’

पंकज सिंह बखूबी जानते हैं कि जिस लोकतंत्र में भिखमंगों का राजसी गीत गाया जाता है, वहां कपास और गेहूं उपजाने वाले किसान आत्महत्या करते हैं। वे जानते हैं कि यहां की स्त्रियां और बच्चे जमकर भूधराकार चक्की में पिस रहे हैं। वह यह भी जानते हैं कि किनके हाथ उस निर्मम चक्की को चलाते हैं। कविता संग्रह ‘नहीं’ की सभी कवितायें जीवंत अनुभव-राशि के अंतर्विरोधों और द्वन्द्वों में शासित विडम्बनाओं और कई प्रकार के सामूहिक बोध के समुच्चय हैं जो निजी आवेग-संवेग, प्रेम और आसक्ति, आघात-संघात और अवसाद-विषाद के व्यापक फलक के तौर पर सामने आए हैं। अधिकतर कवितायें अतीत की स्मृतियों और भविष्य की व्यापक संभावनाओं को बेहद सुंदर कोलाज है जिनके अनेक रंग इस तरह घुले-मिले हैं कि तर्क और विवेक की शक्लें अख्तियार कर सार्वजनिक संलाप का हिस्सा मालूम होती है।

नहीं (कविता संग्रह)

पंकज सिंह

मूल्य : 175 रूपए

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा.लि। ए -बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002

1 comment:

शरद कोकास said...

यह अच्छी समीक्षा है लेकिन क्या आपको नही लगता कि अब समीक्षा की भाषा मे भी बदलाव आना चाहिये ? मैने तो शुरुआत कर दी है ।