12/31/2010

माँ, मैं आरुषि

यह कविता आरुषि की मौत के ५० दिन बीतने पर लिखी थी. तारीख थी Sun, Jul 6, 2008 . 

माँ, मैं आरुषि
 
माँमैं आरुषि
वहीजिसे करती थी तुम प्यार
वहीजिसके लिए पापा देते थे जान
मैंवही जिसे स्कूल और सेक्टर में 
सभी करते थे दुलार
 
माँक्यों हो इस कदर परेशान
क्यों हो चिंतित
पापा क्यों गए जेल
क्यों है हमारा घर
संगीनों के साये में माँ। 
 
माँतुम नही जानती
मुझे किसी ने नही मारा 
उसी तरह,
जिस तरह
जेसिका लाल को किसी ने 
नहीं मारा
 
माँक्या मैं बेहया थी
क्या बदचलन थी मैं
क्या पापा के थे ख़राब चरित्र
बोलो  माँ,
अनीता आंटी भी ठीक नही थी क्या.
 
माँमैं तो मारी गयी
लेकिन हेमराज को किसने मारा
क्या गुनाह था उसका
क्यामेरे मरने में 
कृष्णा और राजकुमार का भी हाथ था
 
माँमैं आरुषि
पचास दिन बीत गए
क्या जाँच हुई
क्या हुई फजीहत
कोई कह रहा कांट्रेक्ट कीलिंग
तो आनर कीलिंग की भी हो रही है बात
 
माँयह पुलिस ही कर रही थी ना जाँच
मीडिया ट्रायल भी तो जम कर हुआ माँ
सच्चाई से हटकर सब कुछ हुआ
कलंकित करने का जमकर खेला गया खेल।
 
मांक्या खुशी के दिन थे
किसकी लग गयी बुरी नजर
क्या सबसे ख़राब हम ही थे
घर में और मोहल्ले में
 
मांसच बतलाना
क्या हमलोगों को अपनी इज्जत का 
नही था ख्याल
क्या मोहल्ले में हमारी कोई 
इज्जत ना थी
क्या समाज में हम इतने बुरे थे
सच बतलानासच्चाई क्या थी
 
मांआज पूछती हूँ तुमसे
नोयडा पुलिस ने क्या 
सच में की थी जाँच
उन्हें क्या मिला था सबूत
फ़िर किस हक़ से
हमें कर दिया कलंकित
और इज्जत को तार-तार
मांचुप क्यों हो
जबाब दो ना मां
 
मांमैं आरुषि
अब तो सीबीआई कर रही जाँच
ला डिटेक्टर और नार्को टेस्ट
क्या कभी बतलाया है सच्चाई
अब क्या होगा मां
क्या और कोई टेस्ट नही है माँ 
जिससे दूध का दूध और  पानी का पानी हो जाए
 
माँ,मानो या ना मानो
मेरी मौत का खुलासा नही होगा
ना कोई रिपोर्ट आयेगी 
और ना किसी को होगी सजा
माँदेख लेना सजा भी होगी तो निर्दोषों को
लेकिन दामन पर दाग लगेंगे ही
मेरी जैसी और आरुषि मरेंगी ही
 
माँसुनो मेरी बात
चाहे पुलिसतंत्र हो 
या हो न्यायतंत्र
सभी 
अपनी खामियां छिपाएंगे
लोगों को बर्गालायेंगे।
 
माँमर्डर करने वाले
सरेआम घूमेंगे
कभी नही बदलेगी परिस्थितियां
मानवता की
उडती रहेगी धज्जियाँ
 
माँचुप हो जा
रो मत
इंसाफ होगाअपराधी पकड़े जायेंगे
तबजब दमन को दागदार
ठहराने वालों के घरों की
आरुषि की अर्थी उठेगी
तभी खुलेगी नींद
तभी जागेंगे
इनके जज्बात
माँ, मैं आरुषि

12/27/2010

यूथ, फैमिली और लाइफ

राजश्री प्रोडक्शन की पहचान जिस तरह की फिल्मों के लिए है, काफी हद तक ’इसी लाइफ में‘ उसी लीक पर है। विधि कासलीवाल ने स्वच्छ मनोरंजक पारिवारिक फिल्म की परंपरा को आगे बढ़ाया है। अंतर यह है कि पारंपरिक और संस्कार के ईद-गिर्द आधुनिकता भी है। ’इसी लाइफ में‘ के जरिए कई बातें सामने आती हैं, मसलन छोटे और बड़े शहर के लोग एक-दूसरे के बारे में क्या सोचते हैं, थियेटर को लेकर लोगों की सोच क्या है। सबसे अहम यह कि शहरी युवाओं में संस्कार होते हैं या नहीं। हालांकि बखूबी यह दिखाने की कोशिश की गई है कि युवा पीढ़ी बिना बगावत किए भी घर के बुजुर्गो से अपनी बात मनवाने का माद्दा रखती है। साथ ही, संदेश देने की कोशिश भी की है कि विवाह जिंदगी नहीं, उसका एक हिस्सा है।
कहानी अजमेर में रहने वाले रवि प्रकाश (मोहनीश बहल) के इर्द-गिर्द घूमती है। वे आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने संस्कार को दूषित होने से बचाना चाहते हैं। उनकी रूढिवादी सोच अखबारी और टेलीविजन की खबरों से प्रखर होती है। उनकी बेटी राजनंदिनी (संदीपा धर) राज्य की टॉपर बनती है। वह आगे की पढ़ाई करना चाहती है, लेकिन रविप्रकाश इसके खिलाफ हैं। विदेशी खाना बनाना सीखने के बहाने राजनंदिनी की मां उसे आगे की पढ़ाई के लिए मौसी के पास मुंबई भेज देती है। मुंबई के कॉलेज में दाखिला लेने के बाद राजनंदिनी यानी आरजे कॉलेज की ड्रैमेटिक सोसायटी में शामिल हो जाती है। वहीं उसकी दोस्ती विवान (अक्षय ओबेरॉय) से होती है, जो ड्रैमेटिक सोसायटी का चेयर पर्सन और प्ले डायरेक्टर है। नेशनल प्ले काम्पिटिशन के लिए विवान और उसकी टीम शेक्सिपयर के नाटक को प्ले करने की तैयारी करते हैं। नाटक का लीड रोल आरजे को मिलता है और वह अपना लुक भी बदल लेती है। आखिर तक दोनों अपने मन की बात एक-दूसरे से कह नहीं पाते। हालांकि नये और पुराने के बीच की यह कहानी दर्शकों पर कुछ खास असर नहीं छोड़ती।
’इसी लाइफ में‘ की स्क्रीन प्ले ’हम आपके हैं कौन‘ की तरह है। पहले एक घंटे तक कहानी उसी तर्ज पर है पर इंटरवल के बाद फिल्म रोचक बनी है। कहानी का प्लॉट नया कतई नहीं है। हां, थियेटरकर्मियों को परिवार से न मिलने वाले सपोर्ट का दर्द पूरी फिल्म में है। नई अभिनेत्री संदीपा धर ने बखूबी राजनंदिनी का किरदार निभाया है, जिसकी मुस्कान के साथ आंखें काफी कुछ कह जाती हैं। विवान के किरदार में अभिनय और डांस का बेहतर प्रदर्शन अक्षय ओबेरॉय ने किया है। सलमान खान का बस गेस्ट एपीयरेंस है। मोहनीश बहल ठीक-ठाक हैं। फिल्म का संगीत इतना आकषर्क नहीं बन पाया है जो दर्शकों को गुनगुनाने के लिए मजबूर करे। 
फिल्म : इसी लाइफ में 
मुख्य कलाकार : अक्षय ओबेरॉय, संदीपा धर, मोहनीश बहल, आदित्य राज कपूर आदि
निर्दे शक : विधि कासलीवाल
निर्माता : कमल कुमार बड़जात्या, राजकुमार बड़जात्या, अजीत कुमार बड़जात्या

12/20/2010

गंभीर मुद्दे पर भटकती फिल्म

क्षेत्रवाद के आंधी में राजनीति उठापटख खूब होती है लेकिन इसकी शिकार होती है आम जनता। खासकर पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र हो या असम, हर जगह क्षेत्रवाद का बोलबाला रहा। इसे भुनाने में फिल्मकार भी पीछे नहीं रहे। हालांकि यह और बात है कि ऐसी फिल्मों को दर्शकों ने कभी भी हाथोंहाथ नहीं लिया है। ऐसी ही मामले को लेकर कुछ अर्सा पहले फिल्म आई थी 'देशद्रोही"। इसके जरिए कमाल खान ने महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के संघर्ष को दिखाया था। इसी परंपरा की फिल्म '332-मुंबई टू इंडिया" भी है। 
फिल्म की कहानी सच्ची घटना पर आधारित है, जब 27 अक्तूबर 2008 को पटना के राहुल राज ने मुंबई में बेस्ट की एक बस का अपहरण किया था और जिसे पुलिस ने इनकाउंटर कर मार गिराया था। फिल्म '332-मुंबई टू इंडिया" में कुंठा में जी रहा राहुल अंधेरी-कुर्ला के बीच चलने वाली बेस्ट की डबलडेकर बस का अपहरण करता है और बस की ऊपरी फ्लोर पर मौजूद यात्रियों को बंदी बनाता है। फिल्म में सामानांतर तौर पर बीएचयू के हॉस्टल में रह रहे महाराष्ट्र के लड़के और उसके साथियों के अलावा मुंबई की लड़की और उत्तर भारत के लड़के के बीच के प्रेम-प्रसंग और विवाह की कहानी भी चलती है। लेखक निर्देशक महेश पांडे ने सच्ची और गंभीर विषय पर करीब पौने दो घंटे की फिल्म तो बनाई लेकिन सही तरीके से पूरे मामले को दर्शकों के सामने नहीं रख सके। क्योंकि फिल्म आखिर तक भटकती नजर आती है। पूर्वांचल में मनाए जाने वाले छठ पर्व और टीवी चैनल पर इससे और उत्तर भारतीयों को लेकर दिखाई जा रही खबरें भी फिल्म में अपरोक्ष किरदार के तौर पर दर्शकों के सामने है।
हालांकि उत्तर भारतीय बनाम मराठी विवाद को एक आम आदमी के नजरिए को दर्शाने वाली यह फिल्म है जिसमें आम आदमी सुबह से लेकर शाम तक रोजगार की लड़ाई लड़ता रहता है। मामले की गहराई में उतरने के साथ कुछ ट्विस्ट होता तो बेहतर हो सकता था। हालांकि नए स्टार्स ने काफी मेहनत की है, बावजूद इसके वे दर्शकों को खुद से बांध नहीं पाते। हालांकि बिहार के किसी पिता की बेचैनी और बस में यात्रियों के बेबसी दर्शकों को बखूबी फिल्म से जोड़ने का माद्दा रखते हैं। अंतिम दृश्य में एकता का संदेश देने के लिए ताज पर आतंकी हमले के बाद के परिदृश्य का सहारा लेना लगता है कि निर्देशक की मंशा फिल्म बनाने को लेकर यही दिखाने की थी। गंभीर विषय पर फिल्म बनाने के बाद भी फिल्म में कहीं गंभीरता नहीं है। बहरहाल, आम दर्शकों के मन में यह फिल्म भले ही कौतुहल पैदा न करे लेकिन 'क्षेत्रवाद" के नाम पर रोटी सेंकने वालों के साथ त्रस्त लोगों को आकर्षित करेगी।
फिल्म: '332-मुंबई टू इंडिया"
निर्देशक : महेश पांडेय
कलाकार : अली असगर, चेतन पंडित, विजय मिश्रा, शरबनी मुखर्जी, राजेश त्रिपाठी, हितेन मोंटी 
फिल्म समीक्षा 

12/12/2010

नहीं बजता दिमाग का बैंड


 फिल्म : बैंड बाजा बारात
निर्देशक : मनीष शर्मा
निर्माता : आदित्य चोपड़ा
कलाकार : रणवीर सिंह, अनुष्का शर्मा, मनमीत सिंह, मनीष चौधरी, नीरज सूद

दिल्ली की जिंदगी पर तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन डीयू के यंगस्टर्स और करियर कांसस बिहेवियर को लेकर 'बैंड बाजा बारात" शायद ऐसी पहली फिल्म होगी। यंगस्टर्स की जिंदगी पर आधारित यह फिल्म यंगस्टर्स को नए-नए करियर और उसकी संभावनाओं के नजरिए दिखाती नजर आती है। फिल्म की अधिकतर शूटिंग दिल्ली में हुई है लेकिन शुरुआत में ही दर्शक आसानी से कहानी के क्लाइमेक्स को समझ जाता है। क्योंकि अधिकतर फिल्मों या यों कहें हमारी जिंदगी में यही होता है कि एक साथ काम करते-करते एक-दूसरे को समझने लगते हैं और फिर प्यार भी करने लगते हैं।
चूंकि निर्देशक मनीष शर्मा खुद डीयू से हैं, इसलिए लगता है कि उनके दिमाग में पहले से ही कहानी और लोकेशन तय था। उन्होंने दिल्ली के उन लोकोशनों पर शूटिंग की है जहां अभी तक किसी भी फिल्म मेकर्स की नजर नहीं गई है। डीयू के रामजस कॉलेज में पढ़ने वाली श्रुति (अनुष्का शर्मा) और हंसराज कॉलेज में पढ़ने वाले उसके दोस्त बिट्टू शर्मा (रणवीर सिंह) की यह कहानी है। एक ओर जहां श्रुति पढ़ाई खत्म करने के बाद वेडिंग प्लानर का बिजनेस करना चाहती है वहीं बिट्टू मस्तमौला है। श्रुति को लुभाने के लिए जहां वह पूरी रात जग कर उसके डांस के कैसेट तैयार करता हैं वहीं गांव में पापा के गन्ने के बिजनेस में न जाने की इच्छा के कारण वह श्रुति के बिजनेस में पार्टनर बन जाता है। दोनों के बीच पार्टनरशिप का अहम सिद्धांत है, 'जिससे व्यापार करो, उससे कभी प्यार न करो"।
दोनों साथ मिलकर अपनी कंपनी 'शादी मुबारक" को पहले मिडिल क्लास फैमिली से लांच करते हैं और धीरे-धीरे उस मुकाम तक ले जाते हैं जहां बड़े-बड़े लोगों की इच्छा होती है कि उसके यहां की शादी का सारा तामझाम 'शादी मुबारक" संभाले। दिल्ली के सैनिक फार्म से लेकर राजस्थान की भव्य शादियों में इनकी कंपनी की ही मांग होती है। धीरे-धीरे दोनों अपने कामों में इतने मशगूल हो जाते हैं कि अपने पार्टनरशिप के सिद्धांत को भूलकर एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं। एक रात जब दोनों अपनी पहली सफलता मना रहे होते हैं तभी कुछ ऐसा होता है कि दोनों के बीच के समीकरण बदल जाते हैं और बाद में श्रुति उससे कंपनी छोड़ देने के लिए कह देती है। दोनों के बीच दूरियां बढ़ती हैं और श्रुति अपना अलग बिजनेस शुरू की लेती है। बिट्टू भी 'हैप्पी मैरिज" नाम से दूसरी कंपनी खोल लेता है लेकिन दोनों के काम सही नहीं होते और उन पर काफी कर्ज हो जाता है। हालांकि एक भव्य शादी की तैयारी की चुनौती मिलने पर दोनों एकसाथ हो जाते हैं।
फिल्मी दुनिया में डेबू कर रहे रणवीर सिंह इंटरवल के बाद थोड़े से जमे दिखाई देते हैं, बावजूद इसके उन्हें अभी काफी कुछ सीखना है। यशराज फिल्म के बैनर तले अनुष्का शर्मा की यह तीसरी फिल्म है, फिर भी एक्टिंग में खुद को और डुबोना बाकी है। यह फिल्म चूंकि यंगस्टर्स को ध्यान में रखकर बनाई गई है, इसलिए ठीक है, वरना कोई बड़ा स्टार होता तो दोनों पानी मांगते नजर आते। फिल्म में अनुष्का और रणवीर के बीच लंबा लिप टू लिप किसिंग सीन तो हर किसी को खटता है, यह मनीष शर्मा की असफलता कही जाएगी। डायलॉग में दिल्ली के शब्द दर्शकों को फिल्म से जोड़ते हैं। इसके गाने लोगों की जुबान पर भले ही न चढ़ पाए हों लेकिन धुनें कर्णप्रिय हैं। बहरहाल, जिस तरह 'मूंगफली" एक तरह टाइम पास है, खाते हैं और भूल जाते हैं, उसी तरह इंटरटेनमेंट के लिए यह फिल्म टाइम पास है। नाम तो बैंड बाजा बारात है लेकिन आपके दिमाग का बैंड बजाए, इतना मसाला इसमें नहीं है।

11/10/2010

भानुमति का पिटारा ई-साहित्य

इंटरनेट की दुनिया में जैसे-जैसे हिन्दी ने अपनी पैठ बनाई, वैसे-वैसे वे लेखक भी सामने आए जो कभी पत्र-पत्रिकाओं के अलावा किताबों के जरिए पाठकों तक पहुंचते थे। खासकर तब, जब हिन्दी में ब्लॉग लिखा जाने लगा तो शुरुआती दौर में हिन्दी के तथाकथित ठेकेदार और मठाधीश इससे दूरी बनाए हुए थे। वे खाते तो हिन्दी के थे, मगर फ्री में हिन्दी ब्लॉग लिखना उन्हें नागवार गुजरता था। समय के साथ जिस तरह परिस्थितियां बदलीं, उसी तरह उन लोगों की मानसिकता भी। बावजूद इसके, हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों, कॉलेज शिक्षकों और हिन्दी के नामी-गिरामी पत्रकार आज भी इससे दूर-दूर है। ऐसे में ’ज्ञानोदय‘ विवाद ने कई ब्लॉगरों को पहचान दी और हिन्दी प्रेमी उन ब्लॉगों पर आने-जाने के साथ गंभीरता से भी लेने लगे। 
हिन्दी साहित्य के कंटेंट के साथ पहले से कई वेबसाइट मौजूद थे, जो पाठकों के सामने कहानी, कविता, लेख, नाटक, संस्मरण आदि को पेश करते रहे। ब्लॉग की दुनिया भी इससे अछूती नहीं रही। फिर भी मुट्ठीभर हिन्दी ब्लॉग जरूर है, जहां पोस्ट पढ़ने के बाद पाठकों को संतुष्टि मिलती है। सब जगह अपनी-अपनी भड़ास है, दूसरों को कोई क्यों सुने या लिखे। गौर करने वाली बात यह भी है कि भले ही आज के दौर में साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र दिल्ली को माना जाता है, लेकिन वचरुअल स्पेस में तस्वीर अलग है। ’अनुभूति‘ और ’अभिव्यक्ति‘ नामक साहित्यिक पत्रिका का संचालन दुबई से की जाती है तो ’कल्पना‘ कनाडा से संचालित होता है। 
हिन्दी साहित्य पर तो कई ब्लॉग और वेबसाइट है, मसलन प्रतिलिपि, रचनाकार, साहित्य-शिल्पी, कविता कोश, गद्यकोश, कबाड़खाना, अनुनाद, अभिव्यक्ति, कथा चक्र, बैतागबाड़ी आदि। यहां गाहे-बगाहे देश-विदेश के साहित्यकारों की रचनाएं लिखीं और पढ़ी जा रही है। कभी अनुवाद के तौर पर, कभी गाने के तौर पर तो कभी संस्मरण के तौर पर सर्वकालिक रचनाएं यहां मौजूद है। हालांकि कई कम्युनिटी ब्लॉग या और भी वेबसाइट है, जहां साहित्यिक रचनाओं के साथ- साथ दिलचस्प घटनाएं और बातें भी दिख रही है। मसलन, ’जानकीपुल‘ ब्लॉग को ही लें। क्या आपको मालूम है कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण कविता और कहानी भी लिखते थे। उनकी कहानी ’टामी पीर‘ कितने लोगों ने पढ़ी होगी? क्या आप इससे इत्तेफाक रख सकते है कि भारतीय उपमहाद्वीप के लेखकों के लिए सफलता का बड़ा फामरूला विस्थापन है। वह भी तब, जब भारत में ही मेधा पाटकर की आवाज विस्थापन का दर्द है। क्या आपको मालूम है कि 2011 में  शमशेर और नागार्जुन के अलावा गोपाल सिंह नेपाली की भी जन्म-शताब्दी है। ऐसी तमाम जानकारियों का खजाना है यह। इस ’पुल‘ होकर दुनिया जहान की ऐसी तमाम जानकारियां हर रोज गुजर रही है, जो शायद ही एक जगह इकट्ठी कहीं मिलें। 
शायरों- अदीबों की गली बल्लीमारान के इतिहास में पाठकों को जाने के लिए मजबूर करते हुए ब्लॉगर प्रभात रंजन बताते है कि बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था। मुगलों की नाव यहीं से नाविक खेया करते थे। गुलशन नंदा और जासूसी उपन्यासकार ओमप्रकाश शर्मा के बारे में लिखते है, ’जनवादी विचारों को माननेवाला यह जासूसी लेखक बड़ी शिद्दत से इस बात में यकीन करता था कि ऐसे साहित्य की निरंतर रचना होनी चाहिए, जिनकी कीमत कम हो तथा समाज के निचले तबके के मनोरंजन का उसमें पूरा ध्यान रखा गया हो। मजदूर वर्ग की आवाज उनके उपन्यासों में बुलंद भाव में उभरती है। ‘ 
’जानकीपुल‘ से गुजरने पर संतुष्टि मिलती है। पढ़ने का एक संतोष भी मिलता है। पाठकों के बीच इसकी पैठ का बड़ा सबूत है इस ब्लॉग के फॉलोअर्स की संख्या एक सौ से अधिक होना। क्योंकि आज भी, यदि किसी ब्लॉग को फॉलो करने वालों का आंकड़ा सैकड़ा पार है तो इसके पीछे का कारण सिर्फ और सिर्फ कंटेंट होता है। यहां कई ऐसे मुद्दे है, जिन पर विस्तार से बातें की गई है, मसलन आखिर भारतीय मूल के कनाडाई लेखक रोहिंग्टन मिी के उपन्यास ’सच ए लांग जर्नी‘ की कहानी क्या है, जिसके कारण शिवसेना के आदित्य ठाकरे ने मुंबई विश्वविद्यालय के सिलेबस से हटवाकर ही दम लिया। 
बहरहाल, साहित्य या साहित्येतर जो भी हिन्दी ब्लॉग लिखे जा रहे है, उन पर रचनाएं या तो स्वमुग्ध है या फिर किसी दूसरे की। ’कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा‘ का अर्थ साकार हो रहा है। इसके जरिए ’की बोर्ड‘ के सिपाही को एक प्लेटफॉर्म तो दिया जा रहा है या रचनाएं किसी की टीपी जा रही है लेकिन मौलिकता देखने को नहीं मिल रही है। आज भी हिन्दी ब्लॉग लेखन में मुट्ठीभर संचालक ही है, जिनमें लेखन-क्षमता है और पाठक उन पर विश्वास करते है। इं साहित्य या साहित्येतर जो भी हिन्दी ब्लॉग लिखे जा रहे है, उन पर रचनाएं या तो स्वमुग्ध है या फिर किसी दूसरे की। ’कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा‘ का अर्थ साकार हो रहा है। यदि किसी ब्लॉग को फॉलो करने वालों का आंकड़ा सैकड़ा पार है तो इसके पीछे का कारण सिर्फ और सिर्फ कंटेंट है. 

11/01/2010

बेटी के अस्तित्व पर चुप्प!


इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की रिपोर्ट बताती है कि हर साल भारत में करीब 50 लाख मादा भ्रूण हत्या होती है। ऐसे में, मुट्ठीभर लोग बेटियों औ र उसकी रक्षा के लिए बात करें, तो नैतिकता पर सवाल उठना लाजिमी है। लेकिन दुखद बात है कि फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग की धौस सोशलिज्म पर छाने के बाद भी बेटियों और उनके अस्तित्व को लेकर कोई खास चर्चा कहीं नहीं दिख रही है
सोशल नेटवर्किग की दुनिया बड़ी ही दिलचस्प है। कभी ब्लॉगों की दुनिया में किसी मुद्दे पर हंसी-ठहाके, व्यंग्य की फुलछड़ियां छूटती रहती है तो कभी फेसबुक, ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म पर गंभीर विषयों पर गंभीर बातें शुरू हो जाती है। यानी यह कि भारतीय हो या अमेरिकी सरकार, हर की तह खुलनी या फिर इस वजरुअल स्पेस में ऐसी की तैसी होनी तय है। पिछले दिनों कुमार सवीर ने अपने फेसबुक अकाउंट पर अपने मित्र गुलाम कंदनाम की कविता स्क्रैप की,
’सुबह ही मैने दुर्गा को, धूपबत्ती दिखाई थी/ दोपहर में कन्याओं को, उत्तम भोज कराई थी/ शाम को भी मैने एक, बड़ा ही नेक काम किया/ घर आने वाली जगदम्बा को, गर्भ से सीधे स्वर्ग दिया।‘
कुछ साल पहले मोहल्ला लाइव के मॉडरेटर अविनाश ने ’बेटियों का ब्लॉगनाम से एक कम्युनिटी ब्लॉग का संचालन शुरू किया था और अभी उसमें 11 कंट्रीब्यूटर है, लेकिन दुखद पहलू यह है कि पांच मार्च, 2010 तक के बाद किसी ने भी कोई पोस्ट नहीं किया है। मॉडरेटर ने अपना अंतिम पोस्ट तब किया, जब उनकी बेटी सुर दो साल की हुई थी और वह पोस्ट सिर्फ फोटो फीचर जैसा था। हालांकि इसी ब्लॉग पर फिलहाल चेन्नई में रह रही विभारानी अपनी दोनों बेटियों- तोषी और कोशी की बातों, क्रियाकलापों को लेकर पोस्ट लिखती आ रही है। इसी ब्लॉग पर कभी रवीश कुमार ने भी अपनी बेटी ’तिन्नी‘ को लेकर लिखा है, ’बदलाव तिन्नी ला रही है। छुट्टी के दिन तय करती है। कहती है, आज बाबा खिलाएगा। बाबा घुमाएगा। बाबा होमवर्क कराएगा। मम्मी कुछ नहीं करेगी।‘ गौरतलब है कि ’बेटियों के ब्लॉग को लेकर अविनाश को पुरस्कृत भी किया जा चुका है। ’लाडली-बेटियों का ब्लॉगभी है लेकिन यहां कविताएं ही कविताएं है।
मुंबई में रहने वाले विमल वर्मा ने दो साल पहले 2008 में ’ठुमरी‘ ब्लॉग पर अपनी बेटी ’पंचमी‘ के जन्मदिन पर लिखा था। राजकुमार सोनी ने अपने ब्लॉग ’बिगुल‘ पर बेटियों की आड़ में‘ पोस्ट किया, जिसमें एक कविता है जो सही मायने में भारत में बेटियों की स्थिति को बयां करती है।
’बोए जाते है बेटे, उग जाती है बेटियां / खाद- पानी बेटों पर लहलहाती है बेटियां/ एवरेस्ट पर ठेले जाते है बेटे, पर चढ़ जाती है बेटियां/ रुलाते है बेटे/ और रोती है बे टियां/ पढ़ाई करते है बेटे, पर सफलता पाती है बेटियां/ कुछ भी कहें पर अच्छी है बेटियां।‘
वहीं अहमदाबाद में रहने वाले माधव त्रिपाठी मेरी भाषा डॉट वर्ड प्रेस डॉट कॉम पर ’बेटी बचाओ‘ का नारा लगाते नजर आते है। वहीं, एक ब्लॉग पर लिखा नजर आता है, ’मुझे मत मारो ! मां, मै तेरा अंश हूं और तुम्हारा वंश हूं।‘ साथ ही इंटरनेट की दुनिया में ’स्वाभिमान जगाओ-बेटी बचाओ‘ जैसे नारे भी लिखे जा रहे है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की रिपोर्ट बताती है कि हर साल भारत में करीब 50 लाख मादा घूणहत्या होती है। ऐसे में, मुट्ठीभर लोग बेटियों और उसकी रक्षा के लिए बात करें, तो नैतिकता पर सवाल उठना लाजिमी है। लेकिन दुखद बात है कि फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग की धौस सोशलिज्म पर छाने के बाद भी बेटियों और उनके अस्तित्व को लेकर कोई खास चर्चा कहीं नहीं दिख रही है। हां, यह जरूर है कि महिलाएं खुद के अस्तित्व को लेकर जागरूक हुई है, बावजूद इसके पुरुष- महिला का समान अनुपात कोसों दूर नजर आता है।

10/30/2010

जज्बा तो निजात आसान

आस्ट्रेलियाई सिंगर केली मिनोग को आप जानते ही होंगे। उनके गानों के दीवाने आप नहीं, तो आपके दोस्त जरूर होंगे। वह चहकती, चुलबुलाती सबको खुश कर देती है। उसके मुस्कराते चेहरे के पीछे का दर्द हर कोई नहीं जानता। 2005 से पहले 42 वर्षीय मिनोग को ब्रेस्ट कैसर था और उन्होंने इसका डॉयग्नोसिस करवाया। सर्जरी के साथ-साथ कीमोथेरेपी कराने के बाद एक साल के भीतर उन्होंने इंडस्ट्री में वापसी की। इसके बाद वह 21 देशों के टूर पर गईं और 11वां एलबम निकाला। उन्हें ’मोस्ट इंस्पायरेशनल‘ ब्रेस्ट कैसर सेलिब्रिटी का खिताब दिया गया।
सबकुछ पैसा या इलाज ही नहीं होता, सकारात्मक सोच भी बड़ी चीज होती है । यदि आपने बीमारी को छोटा आंका और तय किया कि यह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती और इसे ठीक करना है, तो इससे थोड़ी-बहुत परेशानी तो होगी, लेकिन कम से कम जान तो नहीं जा सकती
रिपोर्ट बताती है कि 2007 में भारत में जहां ब्रेस्ट कैसर से पीड़ित महिलाओं की संख्या 3.5 करोड़ थी, जो 2012 तक 6.4 करोड़ हो जाएगी। भारत में हर 22 महिलाओं में से एक को पूरी जिंदगी इसके होने का डर बना रहत है। हालांकि अमेरिका और आस्ट्रेलिया की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है। अमेरिका में हर आठ महिलाओं में से एक को इसका लाइफटाइम रिस्क रहता है, वहीं आस्ट्रेलिया में हर 11 महिलाओं में एक को यह डर सताता है। ब्रेस्ट कैसर होने का खतरा आनुवंशिक होता है।
वैसी भी उन्हीं महिलाओं को यह होने का खतरा होता है, जिनके पीरिएड्स 12 साल की उम्र से पहले या फिर 55 साल की उम्र के बाद जिन्हें मेनोपॉज होता है। जो महिलाएं कभी प्रेगनेंट नहीं होतीं, जो 30 साल के बाद पहली बार प्रेगनेंट होती है, ऐसी महिलाएं भी इसकी शिकार हो सकती है। हालांकि जो महिलाएं 20 साल की उम्र से पहले मां बन जाती है या जो कई बार गर्भवती होती है, उन्हें भी यह कैसर होने की आशंका रहती है लेकिन रिस्क काफी कम होता है। ब्रेस्ट कैसर से अधिक मौतें 50 साल की अवस्था या इसके बाद होती है। हालांकि पुरुषों में भी यह बीमारी होने लगी है लेकिन महज एक फीसद लोग ही इसके शिकार है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बीमारी के बारे में लोगों को जागरूक और बचाव करने व रहन-सहन ठीक करने से इस पर काबू पाया जा सकता है। नब्बे के दशक में इससे लोगों को जागरूक करने के लिए ’पिंक रीबन‘ सिंबल चुना गया था। 1996 में ’मेन गेट ब्रेस्ट कैसर टू‘ कंपेन के तहत नैसी निक ने पिंक और ब्लू रिबन को डिजाइन किया था।
बहरहाल, जागरूकता अहम मुद्दा है लेकिन केली मिनॉग से महिलाओं को सीख लेने की जरूरत है। केली मिनोग और उनका कारनामा महिलाओं को प्रेरणा देने का काम करता है। सबकुछ पैसा या इलाज ही नहीं होता, बल्कि सबसे जरूरी है- मन का सुख यानी सकारात्मक सोच। यदि आपने बीमारी को छोटा समझ लिया कि यह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती, इसे ठीक करना है तो यह थोड़ा-बहुत परेशान तो करेगी लेकिन कम से कम आपकी जान तो नहीं जाएगी। शोधकर्ताओं का कहना है कि ज्यादातर बीमारियां तो बेहतर डॉक्टर के पास जाने के साथ ही ठीक होने लगती है। ’मु न्नाभाई एमबीबीएस‘ फिल्म को याद करें। माहौल भी काफी अहम होता है। खुशनुमा माहौल से काफी फायदा होता है। केली मिनॉग का जज्बा यह विश्वास दिलाता है कि यदि डर पर विजय पा ली जाए और कुछ कर दिखाने का जज्बा हो, तो ब््रोस्ट कैसर जैसी बीमारी का इलाज मुमकिन है।

10/23/2010

अंग्रेजीदां ने हिन्दी कबूली

वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया द्वारा लांच ब्लॉ ग इंडिया रियल टाइम हिन्दी पर स्पष्ट लिखा हुआ है, जिन महत्वपूर्ण प्रसंगों पर विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र चर्चा कर रहा है, जिनका अभिन्न हिस्सा आप भी है, उन्हीं विषयों पर वाल स्ट्रीट जर्नल और डाव जोंस के पत्रकारों द्वारा लिखी गई व्याख्याएं आप यहां रोजाना पढ़ सकते है

कुछ साल पहले जब हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआत हुई थी तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि इंटरनेट की दुनिया में हिन्दी इस कदर छा जाएगी। यही कारण है कि जब आप गूगल पर अंग्रेजी में ’हिन्दी ब्लॉग‘ सर्च करते है तो 32 करोड़ रिजल्ट आपके सामने होता है। वही जब हिंदी में ’हिन्दी ब्लॉग‘ सर्च करते है तो यह आं कड़ा पांच लाख पार जाता है। पिछले दिनों जब वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया ने हिन्दी ब्लॉग लांच किया तो यह सोचना लाजिमी है कि आखिर हिन्दी किस तरह अंग्रेजी दुनिया में अपनी पैठ बनाने में सफल रही है। हालांकि वाल स्ट्रीट जर्नल का कहना है कि यह महज एक प्रयोग है और इसके जरिए इंडिक लैग्वेज कंजम्पशन पैटर्न को समझने की कोशिश की जा रही है। साथ ही क्वालिटी लेखकों और कंटे ट को सामने लाने की ओर ध्यान दिया जा रहा है। यह बात और है कि भारत की जिन मीडिया का काम हिन्दी में हो रहा है वह इंटरनेट की दुनिया में जरूर अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुके है या करा रहे है।

हिन्दी ब्लॉगर्स की ओर नजर डालें तो आलोक कुमार का ’9211‘ को हिन्दी का पहला ब्लॉग माना जाता है। 21 अप्रैल, 2003 में वह पहली बार लिखते है, ’चलिए अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं।‘ उस दौर में उनकी दुविधा जायज थी लेकिन कुछ ही समय में हिन्दी ने ब्लॉगिंग की दुनिया में जो तरक्की की है, वह काबिलेतारीफ है। शुरुआती दौर में तकनीकी तौर पर हिन्दी पिछड़ता नजर आया। 2006 तक हिन्दी ब्लॉग की संख्या महज सैकड़े में थी जो अब 15 हजार के पार हो गई है। छह लाख से भी अधिक प्रविष्टियां यहां मौजूद है तो दो लाख से भी अधिक सांकेतिक शब्दों के जरिए ब्लॉग की दुनिया में घूमा जा सकता है।

हिन्दी ब्लॉगों को लोकप्रिय बनाने में एग्रीगेटर ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 2005-2006 में जीतू ने ’अक्षरग्राम‘ शुरू किया और फिर ’नारद‘ की शुरुआत हुई। 2007 में ’ब्लॉगवाणी‘ और ’चिट्ठाजगत‘ अस्तित्व में आया। कालांतर में सब ठंडे पड़े है लेकिन ’चिट्ठाजगत‘ आज भी मौजूद है। हालांकि इसके बाद और भी कई एग्रीगेटर मैदान में आए है लेकिन लोकप्रियता के मामले में कुछ खास नहीं कर पाए है। वर्तमान दौर में हिन्दी ब्लॉगर्स कई विषयों पर खूब लिख रहे है। चिट्ठाजगत ने तो बकायदा तकनीक, कला, समाज, इकाई, खेल, मस्ती और सेहत जैसे कॉलम बनाकर संबंधित ब्लॉग और पोस्टों को पाठकों के सामने परोस रहे है।

ताज्जुब है कि अंग्रेजीदां लोग अब भारत और भारतीय भाषाओं को इतनी गंभीरता से ले रहे है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया द्वारा लांच ब्लॉग इंडिया रियल टाइम हिन्दी पर स्पष्ट तौर से लिखा हुआ है, ’जिन महत्वपूर्ण प्रसंगों पर विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र चर्चा कर रहा है, जिसका एक अभिन्न हिस्सा आप भी है, उन्हीं विषय पर वाल स्ट्रीट जर्नल और डाव जोंस के पत्रकारों द्वारा लिखे गए व्याख्याएं आप यहां रोजाना पढ़ सकते है।‘ बीबीसी ने काफी पहले ही भारतीय पाठकों की नब्ज को देखते हुए ब्लॉग या फिर हिन्दी में वेबसाइट लांच किया था। हालांकि चीन और जर्मन रेडियो काफी अरसा पहले से ही खबरों के साथ-साथ तमाम बातें अपनी हिन्दी वेबसाइट के जरिए हिन्दी पाठकों के सामने परोस रहे है।

10/22/2010

जिम्मेदार कौन?

आज भी बेटे और बेटियों में भेद किया जाता है। बेटे बाहर जाकर पढ़ेंगे लेकिन बेटियां घर पर रहकर बर्तन मांज-मांजकर रट्टा लगाने के लिए मजबूर है। शादी हुई तो तुरंत मां-बाप, सास-ससुर, ननद-भौजाई को संबंधों में ‘प्रमोशन’ पाने की ललक होने लगती है यह जाने बिना कि ‘लड़की’ शारीरिक और मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार है भी या नहीं। कितनी आमदनी है, कितना खर्च होता है, भविष्य के क्या सपने है, आदि-आदि बात पर कैसे कोई गौर करेगा, अहम सवाल है?

क्या आपने कभी सोचा है कि आपके काम पर न जाने और घर में रहने से घरेलू बजट पर क्या प्रभाव पड़ता है। क्या एक बार भी लगा कि आपने नौकरी छोड़ दी है या नौकरी नहीं कर रही है तो घर का कर्ज कैसे निबटेगा। घर खरीद लिया है, बच्चों की पढ़ाई है, फिर सामाजिकता है, खान-पान है तो जाहिर सी बात है कि खर्च तो होता ही है। हालांकि इस मामले को सोचने की जहमत शायद ही कोई भारतीय परिवेश में उठाता हो। यहां महिलाओं को तो बंद चारदीवारी में रहना, बच्चों को पालना, सास-ससुर की सेवा करना आदि से ही फुर्सत नहीं मिलती है। पुरुषप्रधान समाज में इस हिसाब-किताब के चक्कर में महिलाएं नहीं पड़ती। विश्वास न हो तो अपने घर क्या आस-पड़ोसी के यहां जाकर हालात पर नजर डाल लीजिए।
पिछले साल मंदी के दौर में बेरोजगार हो चुकीं करीब पचास हजार महिलाएं ब्रिटेन में नौकरी करने के लिए मजबूर हुईं। इनके घर में रहने से जहां कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा था वहीं घरेलू कामकाज में काफी खर्च भी हो रहा था। ब्रिटेन के ऑफिस फॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स के मुताबिक, पिछले तीन महीने में बेरोजगारी 25 लाख से घटकर 20 हजार पहुंच चुकी है। मंदी के दौर में करीब 25 लाख लोग बेरोजगार हुए और माना जा रहा था कि 2012 तक इनकी संख्या करीब 29 लाख हो जाएगी। महिलाओं के घर में रहने से परिवार पर काफी कर्ज हो गया और आर्थिक तौर से काफी परेशान रहने लगीं। कई घर कर्ज में डूब गए क्योंकि उन्होंने जो कर्ज लेकर घर खरीदा था उसे वे चुका नहीं पा रहे थे। हालांकि महिलाओं के घर में रहने से बच्चों को काफी फायदा हुआ और उनकी सही देखभाल और परवरिश होने लगी।
सर्वे के मुताबिक, काफी महिलाएं अपने काम पर लौटने के लिए विवश हुई है। Uswitch.com ने अपने सर्वे में यह सवाल किया था कि उनके बच्चे तीन साल से भी कम उम्र के है, फिर उन्हें काम पर लौटने की मजबूरी क्या थी। करीब 50 फीसद महिलाओं ने माना कि आर्थिक संकट खासकर कर्ज से वह परेशान थीं और उसे लौटना था। इस कारण वे काम पर लौटने के लिए विवश हुईं। इसके अलावा वे पार्ट टाइम जॉब करने के लिए मजबूर हुईं। माना जा रहा है कि करीब 80 लाख महिलाओं के साथ-साथ बच्चे भी पार्टटाइम जॉब करने के लिए मजबूर हुए है। पिछले दो सालों में ब्रिटेन में जहां करीब सवा सात लाख फुलटाइम नौकरी की कमी आई वहीं साढ़े चार हजार पार्टटाइम नौकरी में इजाफा हुआ है।
परिवार की गाड़ी पति और पत्‍नी रूपी दो पहियों के समन्वय से चलती है। आजादी के 62 साल बाद भी देश की स्थिति बदली नहीं है। शहर या फिर मेट्रो सिटी में तो हालात कुछ बदले है लेकिन गांव या छोटे शहरों के परिवारों को देख लें, आज भी स्थिति जस की तस है। परिवार में आज भी बेटे और बेटियों में भेद किया जाता है। बेटे बाहर जाकर पढ़ेंगे लेकिन बेटियां घर पर रहकर बर्तन मांज-मांजकर रट्टा लगाने के लिए मजबूर है। जिंदगी जीने का ककहरा सीखी नहीं, ग्रेजुएट होते-होते शादी की चिंता माता-पिता को सताने लगती है। शादी हुई तो तुरंत मां-बाप, सास-ससुर, ननद-भौजाई को संबंधों में ’प्रमोशन‘ पाने की ललक होने लगती है यह जाने बिना कि ’लड़की‘ शारीरिक और मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार है भी या नहीं। ऐसे में बाहरी दुनिया का दवाब कोई भी लड़की कितना झेल पाएगी, सवालिया निशान उठना लाजिमी है। फिर घर के मामले में कि कितनी आमदनी है, कितना खर्च होता है, भविष्य के क्या सपने है, आदि आदि बात पर कैसे कोई गौर करेगा, अहम सवाल है।

10/20/2010

लहर ये डोले कोयल बोले.. अनजान

बनारस के लालजी पांडेय यानी गीतकार अनजान बचपन से ही शेरो-शायरी के शौकीन थे। हिन्दी फिल्मों में उनका योगदान अतुलनीय है

'डान‘ का ’खइके पान बनारस वाला.,‘ या फिर ’मुकद्दर का सकिंदर‘ का ’रोते हुए आते है सब..‘ आज भी लोग इन गानों को सुनकर झूम उठते है। इन गीतों को लिखने वाले का नाम है अनजान! यह कोई अनजान नहीं बल्कि अनजान ही है जिनका असली नाम था लालजी पांडेय। 28 अक्टूबर 1930 को बनारस में जन्मे अनजान का बचपन से ही शेरो-शायरी के प्रति गहरा लगाव था। अपने इसी शौक को पूरा करने के लिए वह बनारस में आयोजित लगभग सभी कवि सम्मेलनों और मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे। हालांकिमुशायरांे में वह उर्दू का इस्तेमाल कम ही किया करते थे। जहां हिन्दी फिल्मों में उर्दू का इस्तेमाल पैशन था, वहीं अनजान अपने गीतों में हिन्दी पर ज्यादा जोर दिया करते थे।

गीतकार के रूप में अनजान ने करियर की शुरुआत 1953 में अभिनेता प्रेमनाथ की फिल्म ’गोलकुंडा का कैदी‘ से की। इस फिल्म के लिए सबसे पहले उन्होंने ’लहर ये डोले कोयल बोले ..‘ और ’शहीदों अमर है तुम्हारी कहानी..‘ गीत लिखे लेकिन इस फिल्म से वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। उनका संघर्ष जारी रहा। इस बीच अनजान ने कई छोटे बजट की फिल्में भी की जिनसे उन्हें कुछ खास फायदा नहीं हुआ। अचानक उनकी मुलाकात जी.एस. कोहली से हुई जिनके संगीत निर्देशन में उन्होंने फिल्म ’लंबे हाथ‘ के लिए ’मत पूछ मेरा है मेरा कौन वतन..‘ गीत लिखा। इस गीत के जरिये वह काफी हद तक अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।

लगभग दस वर्ष तक मुंबई में संघर्ष करने के बाद 1963 में पंडित रविशंकर के संगीत से सजी प्रेमचंद के उपन्यास गोदान पर आधारित फिल्म ’गोदान‘ में ’चली आज गोरी पिया की नगरिया..‘ गीत की सफलता के बाद अनजान ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अनजान को इसके बाद कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए। इनमें ’बाहरे फिर भी आएंगी‘, ’बंधन‘, ’कब क्यों और कहां‘, ’उमंग‘, ’रिवाज‘, ’एक नारी एक ब्राह्मचारी‘ और ’हंगामा‘ जैसी फिल्मों के गीत लिखे। इस दौर में वह सफलता की नई बुलंदियों को छू रहे थे और एक से बढ़कर एक गीत लिखे।

1976 में उन्होंने कल्याणजी-आनंदजी के संगीत में ’दो अनजाने‘ का गीत ’लुक छिप लुक छिप जाओ ना..‘ लिखा, जो अमिताभ बच्चन के करियर के अहम फिल्मों में से एक है। 80 के दशक में उन्होंने मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों के लिए भी गाने लिखे। आर.डी. बर्मन के लिए उन्होंने ’ये फासले ये दूरियां..‘, ’यशोदा का नंदलाला..‘ जैसी कालजयी गीत लिखे। लेकिन 90 के दशक में वे अस्वस्थ रहने लगे, बावजूद इसके उन्होंने ’जिंदगी एक जुआ‘, ’दलाल‘, ’घायल‘ के अलावा ’आज का अजरुन‘ के लिए ’गोरी है कलाइयां..‘ लिखा। उन्होंने अपनी जिंदगी का आखिरी गाना ’शोला और शबनम‘ फिल्म के लिए लिखा। ऐसा नहीं कि उन्होंने सिर्फ फिल्मों के लिए ही गाने लिखे।

60 के दशक में उन्होंने गैर फिल्मी गीत भी लिखे जिसे मोहम्मद रफी, मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर ने गाये। अनजान 20 वष्रांे तक हिन्दी फिल्मों की दुनिया में छाए रहे। उनके गानों में भोजपुरी के अलावा बनारस की खुशबू रहती थी। 13 सितम्बर, 1997 को वह दुनिया से अलविदा कह गए लेकिन इसके कुछ ही महीने पहले उनकी कविता की किताब ’गंगा तट का बंजारा‘ का लोकार्पण अमिताभ बच्चन ने किया था। विनीत उत्पल ’डॉ 60 के दशक में उन्होंने गैर फिल्मी गीत भी लिखे जिन्हें मोहम्मद रफी, मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर ने गाया। अनजान 20 वष्रांे तक हिन्दी फिल्मों की दुनिया में छाए रहे। उनके गानों में भोजपुरी के अलावा बनारस की खुशबू थी.


10/19/2010

टूटे या खुले झूले पर


सब कुछ खुला हो तो आप कुछ नहीं कर सकते
यह कम्प्यूटर की कोई फाइल हो सकती है
खुला व्यवहार या बातचीत का दायरा भी हो सकता है
नजर चुराने का मामला भी इसमें शामिल है
ऐसा मेरे सहयोगी का कहना है और वह इस मामले के विशेषज्ञ हो सकते हैं

जरूरी नहीं कि वह खुले दिल के ही हों
जरूरी नहीं कि वह अपनी पत्नी, बच्चे या बॉस से खुले हों
जरूरी नहीं कि मॉडर्न लड़कियों को लेकर उनकी सोच खुली हो
जरूरी यह भी नहीं कि उनका लिखा खुला न होकर घिचपिच ही हो

रेडियो को ऑन करने के बदले खोल दें तो कैसे बजेगा
दरवाजा खुला हो तो कैसे मन का राक्षस जीवित हो सकेगा
आखिर आदमीयत मारने के लिए कितना सहना पड़ता है
आत्मसम्मान, नैतिकता, शिष्टाचार से मुंह फेरना पड़ता है

आप खुले तौर पर कुछ भी नहीं कर सकते हमारे सहयोगी के साथ
दिन के उजाले के चोर की तरह हैं वो
जो नजरें चुराते फिरते हैं
क्योंकि वे करते हैं कामचोरी-सीनाजोरी
और चुगलखोरी तो धर्म है ही उनका
फिर सब कुछ खुला-खुला हो तो कैसे हो सकती है बेइमानी

खुल्लम खुला कैसे कर सकता है कोई किसी लड़की की छेड़खानी
पिटाई होने का डर जो है, बदनाम होने का भी
खुले तौर पर कैसे लड़की के चरित्र पर सवालिया निशान उठाया जा सकता है
जब सड़क के किनारे या फिर मेट्रो स्टेशन पर हो बैठने के लिए काफी जगह
आखिर थोड़ी-सी लज्जा भी छुपी है अंदर अभी तक

अपनी बहन-बेटी के चरित्रता की नहीं कर सकते बात
लेकिन ऑफिस में काम करने वाली महिला सहयोगी
या सामने वाली खिड़की में रहने वाली कोमलांगी को लेकर
खुले तौर पर नहीं बोल सकते, इसलिए क्यों न कर लें कानाफुसी

टूटे या खुले झूले पर
मन नहीं भर सकता खुलेआम हिंडोला
न ही जमाने के सबसे बड़े और खुले तकिए पर
मैं लिख सकता था अपना नाम
सेक्सुअल जमाने में
खुला हो सामने वाला तो घबराना जरूरी था
नहीं तो हम हो जाते बदनाम
आखिर हमाम में नंगे जमाने में
एक हम थे जो न तो नंगा पैदा हुए और न ही नंगे मरेंगे
यही भ्रम था जमाने से
आखिर खुला दिमाग जो न था।