4/19/2010

आपके हाथ आपका भविष्य

इंटरनेट ऐसा "हथियार' है जिससे आपने यदि दोस्ती कर ली तो आपकी मुट्ठी में दुनिया है। की-बोर्ड की सहायता से इतनी जानकारी आपके पास होगी जिसे आप सालों-साल स्कूल, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों या लाइब्रोरी में बैठकर भी हासिल नहीं कर सकते। लेकिन इसका उल्टा असर तब शुरू हो जाता है जब आप इंटरनेट एडिक्ट में तब्दील हो जाते हैं और आपको इसका पता भी नहीं चलता है। जब तक इसका दुष्परिणाम सामने आता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। पिछले दिनों हुए कई शोधों में यह बात सामने आई है कि इंटरनेट के अधिक प्रयोग से डिप्रेशन होने का खतरा काफी रहता है।
लीड्स विवि के मनोवैज्ञानिकों ने अपने शोध के जरिए इंटरनेट और नेट सर्फिंग के जरिए होने वाले मानसिक दुष्प्रभावों को सामने लाया है। उनके मुताबिक,ज्यादा समय तक नेट यूज करने से मानसिक स्थिति प्रभावित होती है। इसने रियल लाइफ के सामाजिक तालमेल को चैट रूम और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के रूप में बदल डाला है और लोग एक-दूसरे से मिलने के मुकाबले चैटिंग के जरिए बातें करना पसंद कर रहे हैं। अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि वेबसाइट्स की दुनिया ने लोगों की मानसिकता को काफी हद तक प्रभावित किया है और मनोवैज्ञानिक स्तर को बतौर डिप्रेशन और लत में तब्दील कर रखा है। अध्ययन का नेतृत्व करने वाले कैटरिओना मॉरिसन का मानना है कि सर्फिंग की लत लोगों के मानसिक स्वास्थ पर बुरा प्रभाव डालती है।
पश्चिमी देशों में इस तरह के कराए गए अपने तरह के पहले सर्वे में यह बात सामने आई है। इसमें 16 से 51 साल के 1,319 लोग शामिल हुए थे। शोध में शामिल 1।2 फीसद लोगों की लत में इंटरनेट शुमार है। इन लोगों का अधिकतर समय सेक्स से संबंधित साइटों, ऑन लाइन गेम्स, ऑन लाइन कम्यूनिटी आदि की सर्फिंग में बीतता है। सामान्य लोगों के मुकाबले इन लोगों में डिप्रेशन में जाने की आशंका अधिक होती है। फिलहाल इस बात का खुलासा नहीं हो पाया है कि इंटरनेट का अधिक प्रयोग करने वाले लोग पहले से डिप्रेशन के शिकार थे या फिर प्रयोग करते-करते डिप्रेशन के शिकार हो गए। यह भी पाया गया कि डिप्रेशन के दौरान लोग जमकर चैटिंग करते हैं और नई दोस्ती भी कायम करते हैं।
मनोवैज्ञानिक तथ्य काफी दिलचस्प है। जो लोग अकेले रह रहे हैं, वे अधिक समय तक नेट सर्फिंग कर चैटिंग के जरिए नए दोस्त बनाते हैं, दोस्तों का दायरा बढ़ाते हैं, सोशल वेबसाइट दोस्तों के साथ जमकर बातें करते हैं, संगीत सुनते हैं और अपनी रूचियों को शेयर करते हैं। हालांकि यह बात भी सामने आई है कि अधिक समय तक सर्फिंग करना छात्रों और भावुक लोगों के लिए फायदेमंद नहीं है और ये आदत उनके लिए चिंता का विषय है। नॉटिंघम विश्वविश्वद्यालय अस्पताल के शोधकर्ताओं के मुताबिक, जो लोग स्वस्थ्य की समस्याओं का निदान इंटरनेट पर ढूंढते हैं और अपने बच्चों का इलाज करते हैं, वह गलत है। साथ ही इंटरनेट पर स्वास्थ्य मामलों को लेकर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इंटरनेट पर लोग गंदी टिप्पणियां करते हैं। एक-दूसरों का अनादर करने से भी बाज नहीं आ रहे। साइबर धमकियां और बदतमीजी भी सामने आ रही हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि नवीनतम तकनीक के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष होते हैं।
बहरहाल, नेट सर्फिंग करना गलत बात नहीं है। संस्कृत के एक श्लोक "अति सर्वत्र वर्जयेत' के आधार पर सवाल है कि नेट सर्फिंग की सीमा क्या हो। क्या पोर्न साइटों के इर्द-गिर्द घूमा जाए या फिर पोर्न तस्वीरों में उलझ कर अपनी मनोदशा को विकृति की ओर धकेला जाए। लगाम आपके हाथ है। नियम-कानून या फिर कोई बंधन आपकी रचनात्मकता, आपके सोचने की क्षमता और आपकी प्रतिभा को कुंठित करती है। आपको जितना अधिक स्पेस मिलेगा, जितनी अधिक छूट मिलेगी, जितनी अधिक स्वतंत्रता मिलेगी, उतना ही अधिक प्रैक्टिकल कर सकेंगे, उतना ही आपके प्रतिभा का विकास होगा। विस्तृत दायरे का फायदा सकारात्मक या नकारात्मक, किस ढंग से आप उठाते हैं,यह आप पर, आपकी सोच पर, आपकी नैतिकता पर, आपकी विचारशीलता पर, आपकी कार्यक्षमता पर, आपकी भविष्यदृष्टा शक्ति पर निर्भर करता है। क्योंकि अच्छा या बुरा काम का नतीजा आपको ही आज न तो कल भुगतना ही होगा।

4/16/2010

ना देख इस कदर, ये दिल है बड़ा बेसबर...

ओल्ड मेलोडीज -3
‘ऐ मेरे हम सफर, ले रोक अपनी नजर, ना देख इस कदर, ये दिल है बड़ा बेसबर...’ इस गाने के एक-एक बोल कहीं न कहीं अपने से लगते हैं। और फिर आगे की लाइन है, ‘चांद तारों से पूछ ले, या किनारों से पूछ ले, दिल के मारों से पूछ ले, क्या हो रहा है असर’। तो मन और दिल की वेदना तुरंत दिलो-दिमाग पर छाने लगती है और तन्हाईयों में बात सामने आने लगती है कि तभी, ‘मुस्कुराती है चांदनी, छा जाती है खामोशी, गुनगुनाती है जिंदगी, ऐसे में हो कैसे गुजर’, की बोल सुनाई दे जाती है। फिर तो कुछ बचता ही नहीं, हर जवां दिल मचल उठता है। अंतर्द्वद यह जानने के लिए उत्सुक होता है कि आखिर यह आवाज किसकी है।
फ़िल्मी करियर में अलग-अलग किरदार निभाकर अभिनय का डंका बजानेवाली नूतन गीत और ग़ज़ल भी लिखती थीं। अपनी माँ द्वारा निर्देशित फिल्म 'छबीली' के दो गानों में अपनी आवाज भी दी थी
यह बात और है कि यह आवाज इस गाने के अलावा किसी और गाने में शायद नहीं है। हां, याद आया ए क और गाना। ‘लहरों पे लहर, उल्फत है जवां...’ में भी तो यह आवाज है लेकिन इसमें हेमंत कुमार भी साथ हैं। आप क्या सोच रहे हैं यह आवाज सुनकर, गीता दत्त गा रही हैं। अरे नहीं, यह आवाज गीता दत्त की नहीं है बल्कि अभिनेत्री नूतन की है। चौंक गए ना। ये दोनों गीत नूतन की मां शोभना समर्थ द्वारा निर्देशित फिल्म छबीली का है जो 1960 में रिलीज हुई थी। इस गीत को संगीतबद्ध किया था स्नेहल भाटकर ने।
आज के जमाने में कई अभिनेता और अभिनेत्रियां हैं जिन्होंने कई फिल्मों में गाने भी गाये हैं। लेकिन 50-60 के दशक में अभिनय भी करना और गीत भी गाना हर किसी के लिए चौंकाने वाली बात थी। संजीदा और भावनात्मक अभिनय से लगभग चार दशक तक लोगों के दिलों पर राज करने वाली नूतन के बारे में काफी कम लोगों को पता है कि वह अच्छा गाती थीं। हालांकि यह और बात है कि पूरी फिल्मी करियर में उन्होंने सिर्फ दो ही गाने गाए । और तो और नूतन की प्रतिभा केवल अभिनय तक ही सीमित नहीं थी वह गीत और गजल लिखने में भी काफी दिलचस्पी लिया करती थीं। लेकिन उसी दौर में गीता दत्त भी हुई थीं जिनकी आवाज नूतन से मिलती थीं। यही कारण था कि नूतन पर फिल्माए गए अधिकतर गानों में आवाज गीता दत्त ने दी है।
‘सुजाता’, ‘बंदिनी’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘सीमा’, ‘सरस्वती चंद्र’ और ‘मिलन’ जैसी फिल्मों में अपने उत्कृष्ट अभिनय से लोहा मनवानी वाली नूतन असीम प्रतिभा की धनी थीं। चार जून 1936 को मुंबई में जन्मी नूतन का मूल नाम नूतन समर्थ था और अभिनय की कला विरासत में मिली। उनकी मां शोभना समर्थ जानी मानी फिल्म अभिनेत्री थीं। फिल्मी माहौल घर में होने से जाहिर-सी बात थी कि नूतन को भी अभिनय में रूचि हुई। नूतन के प्रयोगधर्मी मानसिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म ‘दिल्ली का ठग’ में नूतन ने स्विमिंग कॉस्टयूम पहनकर सभी को चौंकने के लिए मजबूर कर दिया था। फिल्म ‘बारिश’ में उन्होंने काफी बोल्ड दृश्य दिए तो विमल राय की फिल्म ‘सुजाता’ ए वं ‘बंदिनी’ में अत्यंत मर्मस्पर्शी अभिनय कर लोगों को दांतों तले ऊंगली दबाने के लिए मजबूर कर दिया। दशकों तक लोगों के दिलों पर राज करने वाली पूतन 21 फरवरी 1991 को इस दुनिया से अलविदा कह गईं लेकिन लोग आज भी उनके दीवाने हैं।

वक्त ने किया--क्या हंसी सितम...

आज जब कभी भूले-भटके एफएम पर जब भी ‘नाचती-झूमती मुस्कुराती आ गई प्यार की किरण’ या फिर ‘भीगे हैं तन फिर भी जलता है मन, जैसे के जल में लगी हो अगन, राम सबको बचाए इस उलझन से’ गीत बजते हैं, तब पैर अपने आप थिरक उठते हैं, हम खुद को गुनगुनाने से रोक नहीं पाते। मन भर जाता है। और तो और ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम, तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम, बेकरार दिल इस तरह मिले, जिस तरह कभी हम जुदा ना थे, तुम भी खो गये, हम भी खो गये, एक राह पे चल के दो कदम। वक्त ने किया...’ यह गाना तो हर जवां दिल के मन को टटोलता है और एक अलग ही दुनिया में खोने के लिए मजबूर करता है।
कमाल की गायिका गीता दत्त शास्त्रीय संगीत की मधुर लय पर जब गाती हैं ‘ना ये चांद होगा- ना तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे’ और ‘मेरा सुन्दर सपना बीत गया’, ‘मेरा नाम चिन-चन चूं’ सुनते-सुनते पता नहीं मन कहां खोने लगता है। फिल्म के पर्दे पर नायिका से लेकर सहनायिका तक और नर्तकी से लेकर बंजारिन तक हर किसी की जुबां से निकले उनके बोल सुनने वालों को मदमस्त करते हैं।गीता दत्त का असली नाम गीता घोष रायचौधरी था।
वहीदा रहमान के साथ गुरूदत्त का नाम जोड़ा जाने लगा था, जिससे गीता दत्त काफी आहत थीं। आखिर दोनों अलग हो गए, जिसने गुरूदत्त को तोड़ कर रख दिया। अकेलेपन की इंतहा ने उन्हें नशे के आगोश में जाने के लिए मजबूर कर दिया और ऐसा किया कि मौत की नींद में सोने के लिए विवश हो गये।
बंगलादेश के फरीदपुर से मुंबई आकर बसा था उनका परिवार। पहली बार 1946 में फिल्म ‘प्रह्लाद’ के जरिए पार्श्वगायिका के तौर पर आईं लेकिन 1947 में प्रदर्शित फिल्म ‘दो भाई’ उसके सिने करियर में अहम साबित हुई। उसका गाना ‘मेरा सुंदर सपना टूट गया’ आज भी लोग गुनगुनाते हैं। गीता दत्त ने अपने सिने करियर में करीब 17 सौ गाने गाये। 1940 से 1960 का दशक हिन्दी फिल्मों का स्वर्णयुग माना जाता है। यह वही दौर था, जब गीता दत्त ने एक से एक बेहतरीन गाने गाकर अपने नाम का परचम लहराया।
1951 में फिल्म ‘बाजी’ के निर्माण के दौरान गुरूदत्त से मुलाकात हुई। फिर ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले’ की रिकार्डिंग के दौरान दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गए और 1953 में शादी कर ली। गीतकार के तौर पर एसडी वर्मन और आ॓पी नैयर के साथ गीता दत्त की जोड़ी काफी पसंद की गई। ऐसे ही दौर में उनकी जुबां से निकली ‘सुन सुन सुन जालिमा’, ‘बाबूजी धीरे चलना’, ‘ये लो मैं हारी पिया’ जैसे गाने के बोल। 1957 आते-आते गुरूदत्त और गीता की विवाहिता जिंदगी में दरार आ गयी। वहीदा रहमान के साथ गुरूदत्त का नाम जोड़ा जाने लगा था, जिससे गीता दत्त काफी आहत थीं। आखिर दोनों अलग हो गए, जिसने गुरूदत्त को तोड़ कर रख दिया। अकेलेपन की इंतहा ने उन्हें नशे के आगोश में जाने के लिए मजबूर कर दिया और ऐसा किया कि मौत की नींद में सोने के लिए विवश हो गये।
गुरूदत्त की मौत से गीता दत्त को भारी सदमा लगा और उसने भी खुद को नशे में डुबो लिया। परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी के कारण गीता अपने भाइयों के पास चली गई। लेकिन माली हालत खराब होने पर वापस मायावी दुनिया में आई और पहचान बनाने की कोशिश की। नशे की आदत उन्हें लग ही गई थी, सत्तर का दशक आते-आते उनकी तबियत खराब रहने लगी और फिर 20 जुलाई, 1972 को दुनिया का अलविदा कह दिया। उनके गानों में एक आ॓र जहां उमंग और उत्साह नजर आता है, वहीं गहरा दुख भी झलकता है। यही गीता दत्त की हकीकत थी। उनकी जिंदगी में दोनों तरह के तूफान आये और वह भंवर में डूबती चली गई और फिर उबर नहीं पाईं। बस एक कशिश छोड़ गईं।

4/13/2010

स्पेस है खुला

90 के शुरू में लोगों के आईडी और पासवर्ड ही इंटरनेट की दुनिया में घूमते रहते थे लेकिन अब इस लिस्ट में सीवी, एटीएम कार्ड, क्रेडिट कार्ड के अलावा उनका पिन नंबर भी ई-मेल बॉक्स में शामिल हो गया है। साइबर क्रिमिनल पैसों के लिए कोई भी जानकारी दुनिया के किसी भी कोने में पहुंचाने की क्षमता रखते हैं...
जिस तरह से दुनिया एक गांव के तौर पर सामने आ रही है, उसी तरह साइबर क्राइम का दायरा भी बढ़ता जा रहा है। आपके मेल के इनबॉक्स में हर रोज जंक मेलों की बाढ़ मिल रही है जिसमें लाखों डॉलर जीतने या फिर अरबों की संपत्ति का वारिस बनने के लिए आमंत्रित किया जाता है। यह बात और है कि आपमें से कई लोग इन मेल के शिकार बने होंगे या फिर सर्तकता बरती हुई होगी तो बच गए होंगे। इतना ही नहीं साइबर क्रिमिनलों का ध्यान उन सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी है जिससे आप जुड़े हुए हैं। गौरतलब है कि दुनिया के जिन देशों में सरकार जागी है वहां साइबर क्राइम एक्सपट्र्स ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स मसलन फेसबुक, ट्विटर, माई स्पेस आदि को कहा है कि वे उनका साथ दे जिससे साइबर क्राइम को रोका जा सके।
हर दिन पूरी दुनिया के लाखों लोग इन सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स के सदस्य बन रहे हैं। "एओएल' जैसे साइट्स के अलावा विभिन्न इंस्टैंट मैसेज और चैटरूम में साइबर क्रिमिनल अश्लील बातों को तवज्जो देते आए हैं। यही कारण है कि ट्विटर और फेसबुक ने मिलकर इससे जुड़े एक्सपट्र्स को सहायता देना शुरू कर दिया है। पिछले दिनों यह बात भी सामने आई है कि अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई के एजेंटों ने कई नकली सदस्यों को नाकाब किया है और चैटिंग के दौरान पता लगाया कि अपराध में शामिल लोगों के कौन-कौन दोस्त हैं और वे कहां से चैटिंग करते हैं। साइबर क्रिमिनल अब अपराध के नए रास्ते तलाश रहे हैं। विलायंट टेक्नोलॉजी के निदेशक डॉ। रमा सुब्राहृमण्यम का मानना है कि आने वाले समय में साइबर क्राइम महज एक मजाक नहीं रहेगा। इंटरनेट की दुनिया के इस खेल में अब आतंकवादी, सफेदपोश, हैकर्स आदि भी शामिल हो गए हैं। इसकी दुनिया पूरी तरह खुली हुई है। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ग्लोबल अंडरग्राउंड साइबर क्रिमिनल कम्यूनिटी का दिमाग भी ऐसा कुछ करने के लिए मचलता रहता है जो आम लोगों की पकड़ में न आए। 90 के उत्तरार्ध में लोगों के आईडी और पासवर्ड ही इंटरनेट की दुनिया में घूमते रहते थे लेकिन अब इस लिस्ट में सीवी, एटीएम कार्ड, क्रेडिट कार्ड के अलावा उनका पिन नंबर भी ई-मेल बॉक्स में शामिल हो गया है। साइबर क्रिमिनल रुपये के लिए कोई भी जानकारी दुनिया के किसी भी कोने में पहुंचाने की क्षमता रखते हैं।
शोध बताते हैं कि 2008-09 में व्यापक तौर पर अवैध तरीके से इंटरनेट के जरिए रुपये कमाने की बात सामने आई। खासतौर से ड्रग से संबंधित तमाम अवैध कारोबार सबसे ज्यादा इंटरनेट के जरिए ही हुए। ताज्जुब की बात है कि जनवरी 2010 में न्यूयार्क के एक बैंक की साइट को हैकर्स ने हैक कर लिया और इसके सुरक्षा तंत्र को तोड़ते हुए करीब 8,300 ग्राहकों के खाते चुरा लिए। इंटरनेट के शोध बताते हैं कि फंड उगाही के मामले में साइबर क्रिमिनल पहले नंबर पर है और सबसे ज्यादा उगाही पॉर्न इंडस्ट्री कर रही है।
पिछले दिनों एक वेबसाइट द्वारा कराए गए रिसर्च में यह बात सामने आई कि दुनिया में जनवरी, 2010 तक करीब 25 हजार लोगों के क्रेडिट कार्ड के पासवर्ड साइबर क्रिमिनल ने हैक कर लिए जिससे ग्राहकों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा और बाद में समझौता करने के बाद पासवर्ड हासिल हुए। जाहिर सी बात है कि इंटरनेट के जरिए हैकर्स ने लोगों के सामने विभिन्न जानकारियां उपलब्ध कराई हैं जिससे लोगों को जागरूक होने के लिए मजबूर होना पड़ा है।समाज में अपराध होने पर पीड़ित सहायता के लिए लोगों को पुकारता है लेकिन साइबर क्राइम से पीड़ित लोग इस कदर जागरूक नहीं हैं कि वे किसी से सहायता मांग सकें। ऑस्ट्रेलिया से लेकर दक्षिणी अमेरिका तक, एशिया से लेकर अफ्रीका तक, कहीं भी साइबर क्राइम की रिपोर्ट दर्ज नहीं होती है। हालांकि पीड़ित विभिन्न कंपनियां इसलिए मामले को दर्ज कराने के लिए मजबूर होती हैं क्योंकि कहीं न कहीं उन्हें लगता है कि ग्राहकों की तमाम जानकारियों को इंटरनेट पर उपलब्ध कराकर उन्होंने हैकर्स को जानबूझकर आमंत्रित किया है।
फिलहाल कई देशों में साइबर क्राइम से निपटने के लिए संबंधित एक्सपर्ट से सलाह ली जा रही है और इसके लिए स्पेशल सेल का गठन किया जा रहा है। डाटा लीक प्रोविजन सिस्टम को सही करना होगा और डिजिटल फॉरेनसिक लैब के जरिए अपराधी की पहचान किया जाना ही एकमात्र विकल्प फिलहाल दिखता है।
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा के रविवार परिशिष्ट उमंग में प्रकाशित हुआ है )

4/03/2010

आ॓बामा का अफगानिस्तान दौरा

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक आ॓बामा का अचानक अफगानिस्तान दौरा भारत और पाकिस्तान के लिए काफी अहम माना जा रहा है। अफगानिस्तान जिस दौर से गुजर रहा है, ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जो देश लगातार सैन्य कार्रवाई के चलते जर्जर हो चुका हो, उसका क्या भविष्य होगा। पिछले कई बरसों से चल रहे सैन्य अभियान के चलते अफगानिस्तान का बुनियादी ढांचा चरामरा चुका है। इसी वजह से वहां विभिन्न संस्थाएं निर्माण कार्य चला रही हैं। इससे इतर वहां काम कर रहे विभिन्न देशों के कर्मचारियों पर आतंकवादी लगातार हमले हो रहे हैं और वे अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिकी सैनिकों पर निर्भर हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली की बाट जोह रहे लोगों के अरमानों पर पानी फेरते हुए राष्ट्रपति चुनावों में गड़बड़ी का मामला आरोप-प्रत्यारोप की शक्ल ले चुका है। मादक पदार्थों का उत्पादन व उसकी तस्करी को लेकर अफगानिस्तान सुर्खियों में है और अगले साल तक कई देश अपने सैनिकों को वापस कर लेंगे। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि अफगानिस्तान में कब तक लोकतांत्रिक सरकार बनेगी और इसके लिए कौन से कदम उठाने जरूरी होंगे।

भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे त्रिकोण को लेकर अमेरिका की नजरिया क्या है? आखिर, आ॓बामा को अचानक अफगानिस्तान दौरे की क्यों सूझी और वह भी तब, जब आतंकवादी फिर से अपने पांव पसारने में लगे हैं?

भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ अमेरिका अपने रिश्तों को लेकर किस कदर कृतसंकल्प है, यह इस बात से जाहिर है कि इन दिनों आ॓बामा इन इलाकों की समस्याओं और उन्हें दूर करने के प्रयासों को लेकर पर्याप्त समय दे रहे हैं। उन्हें इस बात का अहसास है कि यहां की शांति और सुरक्षा-व्यवस्था अमेरिका के लिए अहम है। पिछले दिनों व्हाइट हाउस के प्रवक्ता राबर्ट गिब्स ने भी इस मामले को तवज्जो देते हुए कहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति इस क्षेत्र के देशों से बेहतर रिश्ते कायम करने के लिए पर्याप्त समय दे रहे हैं। 9/11 के बाद से अमेरिका ने तालिबान के खात्मे के लिए अफगानिस्तान में जो हालात पैदा किए, वह किसी से छिपे नहीं हैं। एक आ॓र जहां शांति का नोबल पुरस्कार मिलने के बावजूद बराक आ॓बामा अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या में इजाफा कर रहे हैं वहीं बरसों बाद भी न तो इराक की स्थिति सुधरी है और न ही अफगानिस्तान की। पिछले जून तक जहां अफगानिस्तान में करीब 80 हजार सैनिक मौजूद थे, वहीं बाद के दिनों में और तीस हजार सैनिकों की तैनाती की गई। बावजूद इसके विभिन्न देशों के कर्मचारियों पर आतंकवादी हमले कर रहे हैं। तीन बार भारतीय कर्मचारियों पर हमले किए जा चुके हैं। अफगान सरकार भारतीय कर्मियों को सुरक्षा देने में नाकाम रही है। यही कारण है कि भारत ने अफगानिस्तान में चलाए जा रहे सभी मेडिकल सहायता कार्यक्रम और शिक्षा से जुड़े प्रोग्रामों पर रोक लगाने का फैसला किया है। अफगानिस्तान से मादक पदार्थों की तस्करी जोरों पर है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, विश्व में 90 प्रतिशत मादक पदार्थों का उत्पादन अफगानिस्तान में किया जाता है और रूस में इनका सबसे ज्यादा सेवन किया जाता है।

राष्ट्रपति चुनावों में गड़बड़ी का मामला लगातार आरोप-प्रत्यारोप के तौर पर सामने आ रहा है। एक आ॓र जहां राष्ट्रपति हामिद करजई ने संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों पर पिछले साल हुए विवादित चुनावों के दौरान गड़बड़ी करने का आरोप लगाया था, वहीं इस बार संयुक्त राष्ट्र के पूर्व पर्यवेक्षक पीटर गॉलब्रेथ ने सफाई दी कि हामिद करजई के आरोप बेबुनियाद हैं। करजई अफगानिस्तान की चुनाव प्रक्रिया के लिए सभी पर्यवेक्षक स्वयं नियुक्त करना चाहते रहे हैं, जबकि संसद यानी जिरगा उन्हें ऐसा करने से रोक रही है। यह मामला किधर करवट लेगा, इसकी भविष्यवाणी करना आसान नहीं है। पिछले माह संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा भेजे गए विशेष दूत केई ऐड ने अफगानिस्तान की बिगड़ती स्थिति के लिए चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि अगर अब भी कोई समाधान नहीं निकला तो अफगानिस्तान के हालात को काबू करना मुश्किल हो जाएगा। उनका कहना था कि अफगानिस्तान सैन्य तरीकों पर ज्यादा निर्भर होता जा रहा है जबकि राजनीतिक व नागरिक मामलों पर उसकी रूचि घटती जा रही है।

9/11 के बाद अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ कार्रवाई में अमेरिका को कितनी सफलता मिली है, वह यक्ष प्रश्न है लेकिन वहां का बुनियादी ढांचा चरमरा चुका है, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं रह गया है। यहां तक कि हॉलैंड और कनाडा ने अपने सैनिकों को इसी साल वापस बुलाने का फैसला कर लिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति आ॓बामा ने भी घोषणा की है कि उनकी सेना जुलाई, 2011 में लौटनी शुरू हो जाएगी। अफगानिस्तान अब भी तालिबान या फिर स्थानीय लड़ाकुओं से जूझ रहा है, वहीं राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां लगातार वहां के लोगों के रहने-खाने जैसी मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने में लगी है लेकिन वे भी ज्यादा कारगर नहीं कर सकी हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार आ॓बामा ऐसे समय में अफगानिस्तान के दौरे पर आए, जब आ॓सामा बिन लादेन ने अमेरिका को एक बार फिर देख लेने की चुनौती दे डाली। ऐसे में सवाल है, आखिरकार भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे त्रिकोण को लेकर अमेरिका की नजरिया क्या है? आखिर, आ॓बामा को अचानक अफगानिस्तान दौरे की क्यों सूझी और वह भी तब, जब आतंकवादी फिर से अपने पांव पसारने में लगे हैं? कौन-सी रणनीति पर अमेरिका काम कर रहा है और उसमें भारत की क्या भूमिका होगी?

यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में तीन अप्रैल, २०१० को प्रकाशित हुआ है

4/02/2010

...तन्हाइयों में हमारी याद आएगी

ओल्ड मेलोडीज-1
‘डाल दी मैंने जल-थल में नय्या, जागना हो तो जागो खेवय्या, जागना हो तो जागो खेवय्या, देवता तुम हो मेरा सहारा, मैंने थामा है दामन तुम्हारा...’ यह गीत सुनते ही हर मन कहीं खो जाता था। जब कहीं दूर बजता था, ‘मुझको अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही...’ या फिर ‘कभी तन्हाईयों में हमारी याद आएगी...’ तो लगता था ऐसा जैसे किसी का प्यार किसी तन की आस में विरह की गीत गा रही है। गाने के ये बोल न तो अब सुनने को मिलते हैं और न ही बोलों की पीछे की आवाज को ही याद करते हैं। इन आवाज के पीछे वही दर्द महसूस होता है जो राजस्थान के रेतीले इलाके में आनेवाली आंधियों की हवाओं की होती है। आखिर इस आवाज के पीछे राजस्थान का नवलगढ़ और झुंझनूं जो था।
कशिश आवाज की मल्लिका मुबारक बेगम को संगीत के संस्कार जन्मजात मिले थे क्योंकि उनके पिता को तबला बजाने का शौक था। उस्ताद थिरकवा खान साहब के वो शार्गिद थे। चालीस के दशक में वह अपने अब्बा के साथ मुंबई आ गईं। वह वो दौर था जब मुबारक बेगम बड़े चाव से सुरैया और नूरजहां के गीत गाती थीं। मुंबई में किराना घराने के उस्ताद रियाजुद्दीन खान और उस्ताद समद खान साहब की शार्गिदी में गायन की तालीम हासिल की। मेहनत रंग लाई। कुछ दिनों के बाद ऑल इंडिया रेडियो पर भी गाना गाने के मौके मिलने लगे।
कभी सफलता की बुलंदियां उनके चरण चूम रही थीं लेकिन बदलते वक्त ने उस आवाज की मल्लिका को भुला दिया जिसे सिने जगत ने धोखा भी दिया था

पहली बार याकूब की फिल्म ‘आइए’ के लिए ‘मोहे आने लगी अंगड़ाई...’ गीत में अपना सुर दिया जिसके गीतकार थे शौकत हैदर देहलवी माने ‘नौशाद’। पचास के दशक में उनका सितारा चमक रहा था और फिर ‘मेरा भोला बलम’, ‘देवता तुम मेरा सहारा’, ‘महलों में रहने वाले’, ‘जल जल के मरूं’, ‘क्या खबर थी यूं तमन्ना’ गीतों के जरिए अपनी पहचान बना ली। 1959 में आई फिल्म ‘दायरा’ से लेकर 1961 में आई फिल्म ‘हमारी याद आएगी’ और जिसका टाइटिल सांग ‘कभी तन्हाईयों में यूं हमारी याद आएगी...’ ने उनकी जिंदगी पलट दी और वह एक ऐसे मुकाम पर खड़ी थी जहां कोई दूसरा न था। इसी दशक में ‘मुझको गले लगा लो’, ‘नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वाले’, ‘मेरे आंसुओं पे न मुस्कराना’ जैसे मशहूर गीतों को आवाज दी।
हालांकि इंसाफ हर किसी के साथ नहीं होता वैसा ही मुबारक बेगम के साथ हुआ। माना जाता है कि फिल्म ‘जब-जब फूल खिले ’ के गीत ‘परदेशियों से ना अंखिया मिलाना’ आ॓र फिल्म ‘काजल’ के गीत ‘अगर मुझे न मिले तुम’ को इन्होंने ही गाया था लेकिन बाजार में जब इसके कैसेट आए तो इनकी आवाज नदारद थी। आखिरकार मोह तो भंग होनी ही थी और 1980 में बनी फिल्म ‘रामू तो दीवाना है’ में ‘सांवरिया तेरी याद में’ गीत फिल्म में उनका आखिर गीत रहा और वह फिर उनकी आवाज स्टेज शो तक सिमट गई या फिर यदा-कदा किसी ने याद कर लिया तो गा दिया।