9/12/2010

ये जमीं चुप है आसमां चुप है.. खय्याम

खय्याम का पूरा नाम मोहम्मद जहूर खय्याम हाशमी है, जिन्हें बचपन में सादात हुसैन के नाम से पुकारा जाता था। उनका जन्म अविभाजित पंजाब के नवांशहर जिले के राहोन गांव में 18 फरवरी, 1927 को हुआ था। अभिनेता बनने की चाहत रखने वाले खय्याम बचपन में घर से भागकर फिल्म देखने जाते थे। लेकिन अभिनेता बनने की ललक ने उन्हें महज दस साल की उम््रा में दिल्ली आने के लिए मजबूर कर दिया। दिल्ली में उनके चाचा रहा करते थे जिन्होंने उनका एडमिशन स्कूल में करा दिया। लेकिन समय इतिहास बनने की कोशिश में था।

संगीत की लय को समझना इतना आसान नहीं होता वह भी तब जब उसके बोल काव्यमय हों। फिर साठ साल के फिल्मी करियर में महज 50 फिल्मों में संगीत देना खय्याम जैसा संगीतकार ही कर सकता है। उनकी कोई भी फिल्म चाहे हिट रही हो या फ्लॉप हर नगमा नायाब है। ’इन आंखों की मस्ती में..‘ और ’दिल चीज क्या है..‘ का संगीत आज भी जवां है

चाचा ने जब देखा कि खय्याम का मन पढ़ाई में नहीं लगता और उसकी दीवानगी संगीत और फिल्म के प्रति है, तो उन्होंने उन्हें संगीत की तालीम के लिए प्रोत्साहित किया। खय्याम से बड़े तीन और भाई थे और सभी पढ़े-लिखे होने के साथ ही काव्य रचना करने और संगीत सुनने के शौकीन थे। उन्होंने संगीत की शुरुआती तालीम मशहूर संगीतकार पंडित हुस्नलाल भगतलाल भगतराम और पंडित अमरनाथ से हासिल की। उसी दौरान वे लाहौर भी गए और उनकी मुलाकात पाकिस्तान के बड़े शास्त्रीय गायक और फिल्म संगीतकार बाबा चिश्ती जीए चिश्ती से हुई जिनके साथ उन्होंने छह माह तक काम किया। 1943 में वह मुंबई से लुधियाना वापस आ गए और काम की तलाश शुरू कर दी। लेकिन जीवन गुजारने के लिए पैसे की जरूरत तो थी ही। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था। संयोगवश उनकी भर्ती सेना में बतौर सिपाही हो गई।

सेना के सांस्कृतिक दल का हिस्सा बनकर वे जगह- जगह नाटकों के माध्यम से लोगों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करते थे। हालांकि दो साल काम करने के बाद उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और फिर चिश्ती बाबा से जुड़ गए। कुछ दिनों में ही निर्माता-निर्देशक बी.आर. चोपड़ा की नजर इन पर पड़ी और उन्होंने बाबा चिश्ती को 125 रुपए प्रतिमाह देने के लिए तैयार कर लिया। 1946 में खय्याम अभिनेता बनने के इरादे से मुंबई आ गए और अपने गुरु हुस्नलाल भगतराम से मिले जिन्होंने ’रोमियो एंड जूलियट‘

में जोहराबाई अंबालेवाली के साथ युगल गीत ’दोनों जहां तेरी मोहब्बत में हार के..‘ गाना गाया। उसी दौरान खय्याम ने एसडी नारंग की फिल्म ’जिंदगी‘ में अभिनय भी किया। उन दिनों संगीत में मौका मिलना आसान नहीं था इस कारण उन्होंने अजीज खान बुलो सी रानी और हुस्नलाल भगतराम जैसे संगीतकारों के सहायक के रूप में काम शुरू किया। उनकी मेहनत रंग लाई और फिल्म ’हीर-रांझा‘ में संगीत देने का पहली बार मौका मिला। उनका नाम फिल्म ’बीबी‘ से चमका जब उनके संगीत दिये गीत ’अकेले में वो घबराते तो होंगे..‘ हिट हुआ जिसे मोहम्मद रफी ने गाया था। पहली बार जिया सरहदी ने ’फुटपाथ‘ फिल्म में स्वतंत्र संगीत निर्देशक के तौर पर काम करने का मौका दिया। इसी फिल्म का गाना है, ’शामे गम की कसम..‘ जिन्हें क्लासिक गीतों में शुमार किया जाता है। उन्होंने राजकपूर अभिनीत फिल्म ’फिर सुबह होगी‘ में संगीत दिया।

इसके बाद तो संगीत जगत में तहलका मच गया और फिर खय्याम और साहिर की जोड़ी ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत और दिलकश गीत लोगों को सुनने के लिए मजबूर कर दिया। अपने लंबे करियर के दौरान उन्होंने दो बार धमाकेदार बापसी की। पहली बार उन्होंने 1976 में यश चोपड़ा की फिल्म ’कभी-कभी‘ और दूसरी बार 1982 में मुजफ्फर अली की फिल्म ’उमराव जान‘ से। फिल्म ’रजिया सुल्तान‘ में संगीत देकर तो उन्होंने इतिहास ही रच दिया। जांनिसार अख्तर का लिखा, ’ऐ दिले नादां..‘ की पंक्ति ’ये जमीं चुप है, आसमां चुप है..‘ के दौरान जब सहरा की वीरानी और निस्तब्धता में संगीत भी मौन हो जाता है तो ऐसे में उन्हें दाद तो देनी ही होगी।

खय्याम ने हमेशा उन गीतकारों के साथ काम किया है जो कवि या फिर शायर रहे है। इनमें मिर्जा गालिब, दाग, वली साहब, अली सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, नक्श लायलपुरी, निदा फाजली और अहमद वसी की रचनाओं को संगीत दिया है। उन्हें तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया और 2010 में लाइफ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

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