10/14/2011

तीन कविताएँ


1. चेहरा

एक चेहरे के भीतर कितने होते हैं चेहरे
क्या कोई जान सका है आज तक

जिन चेहरों पर दिखती है शराफत
वही निकलते हैं सबसे बड़े दगाबाज
बिलौटे के रूप में सामने आता है
जब उन्हें दिखाया जाता है आईना

ज्ञान बघारते हैं जाति-धर्म के नाम पर
लिखते हैं पुलिंग का स्त्रीलिंग जैसा कुछ
लेकिन अपनी नस्ल की आदतें नहीं छोड़ते
जिस तरह कभी कुत्ते की पूंछ सीधी नहीं होती

सभ्य बनने का ढोंग रचते हैं वे
स्त्री के पक्ष में लिखते हुए 
उनके ही शरीर का नापजोख करते हैं 
स्त्रीवादी का लबादा ओढ़े हुए
उन्हें ही बनाते हैं दरिंदगी के शिकार

आदत है जिनकी रात रंगीन करने की
लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए
मौके-बेमौके पर हो जाते हैं गंभीर
जैसे उन्हें कोई ज्ञान ही नहीं
जैसे उनकी बीवी किसी और की रखैल
और वे किसी और को रखते हैं अपनी जांघों के बीच।
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2. भ्रष्ट

मेरी मानवीय संवेदनाएं खत्म हो रही हैं
भावनाओं की कसमसाहट अब नहीं बहती रगों में
वो आक्रामकता, जज्बा मिट्टी में दफन हो गई
बस, जिंदा लाश बनकर रह गया हूं मैं

मुझे नहीं होती चिंता, न अपनों की आैर न ही परायों की
भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी के खिस्से मुझे आहत नहीं करते
खबरों के दुकान में बिकने वाली चीजें मुझे अकुलाहट पैदा नहीं करते
बस, मशीन बनकर रह गया हूं मैं

इश्क की तड़पन नहीं बची है मुझमें
अपनापन और परायेपन की परिभाषा भी नहीं मालूम
दिन और रात का फर्क नहीं है इस शहर में
बस, रास्ते का पथिक बनकर रह गया हूं मैं

आतंकी मुझे अपनों से लगते हैं
बम तो बस पटाखे से दीखते हैं
भूकंप और सुनामी से नहीं होते हैं रोंगटे खड़े
और न ही किसी आकाशी चीज से परेशान होता हूं

बस, डर लगता है तो उन सफेदपोश नेताओं से 
जिसके बारे में लोग कहते हैं 
कि वह सामाजिक सरोकार वाला है
कि वह भ्रष्टाचारी नहीं है
कि वह धोखेबाज नहीं है
कि वह अपराधी नहीं है
क्योंकि लोगों का चरित्र बदलता है चेहरा नहीं।
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3. मन 
क्या मन एक कविता है?
क्या मन की बात सुनी जाती है?
क्या मन का कभी इंसाफ हुआ है?
क्या मन का काम हम कर पाते हैं?
क्या मन से हम सो पाते हैं?
क्या मन से हम जग पाते हैं?
नहीं दोस्त, नहीं
इंसान तो किसी तरह जी लेता है 
लेकिन यह मन खुद को हमेशा 
मारते, घुटते जिंदगी के सफ़र पर चलता रहता है
दरअसल, मन से बेहतर
कोई कविता नहीं
कोई कथा नहीं
और कोई राग भी नहीं
यह तो मन ही है जो इंसान को जिन्दा रखता है
तड़प सहने की शक्ति देता है
और सपनों को मरने नहीं देता
और हार के बाद जीत का रास्ता दिखाता है.  

10/13/2011

'नए समय में मीडिया' पर लेख आमंत्रित


बदलते वक्त के साथ मीडिया का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। भाषा, कंटेंट, प्रजेंटेशन, ले आउट से लेकर विज्ञापन और मार्केटिंग तक में बदलाव आया है। अखबार से लेकर 24X7 समाचार चैनलों तक खबरों से खेलने में माहिर हो गए हैं। आकाशवाणी से लेकर एफएम चैनलों ने संचार माध्यम के विकल्पों को व्यापक किया है तो सीटिजन जर्नलिज्म से लेकर सोशल मीडिया ने तो मीडिया की परिभाषा ही बदलकर रख दी है। वेब मीडिया से लेकर सोशल मीडिया नए इतिहास को लिखने में अग्रसर हो रहा है और अपनी उपयोगिता साबित कर रहा है। हाल के दिनों में दुनिया के तमाम कोनों में जिस तरह के जन आंदोलन हुए, उसमें फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, आर्कुट जैसे तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स की भूमिका अहम रही। ब्लॉग पर नित नई कहानियां लिखी जा रही हैं। जनतांत्रिक मूल्य व्यापक हो रहे हैं। फिल्मों में भी बदलाव साफ-साफ दिख रहा है. 
नए दौर का मीडिया काफी शक्तिशाली हो चुका है तो विज्ञापन का दवाब संपादकीय टेबुल पर पड़ने लगा है। पेड न्यूज से लेकर पीआर कांसेप्ट ने खबरों के चुनाव को बदलने का काम किया है और पाठकों/ दर्शकों को पता ही नहीं होता कि उनके सामने जो खबरें रखी गई हैं, वह वास्तव में खबर है या किसी पीआर एजेंसी की रपट। राडिया मामला सामने आ चुका है। पेड न्यूज पर संसद में बहस हो चुकी है। किसानों की आत्महत्या कर खबरें सुर्खियां नहीं बनती। सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए विभिन्न देशों की सरकारें एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। 
मीडिया अध्ययन के मामले में विदेशों को छोड़ दें तो भारत के विभिन्न विश्वविद्यालय में मीडिया में समान कोर्स के सिलेबस तक अलग-अलग हैं। संस्थानों में जो पढ़ाया जाता है, प्रैक्टिल लेवल पर छात्रों को उससे कम ही वास्ता पड़ता है। पत्रकारों और संपादकों को काम करने के घंटे अनिश्चित हैं। महिला पत्रकारों के शोषण का मामला अकसर यहां-वहां उठता दीखता है। बीबीसी और सीएनएन जैसे चैनलों में बुजुर्ग एंकर बखूबी समाचार पढ़ रहे होते हैं जबकि भारत में सुंदर महिला एंकर की डिमांड है। मीडिया में नौकरी की कोई सिक्योरिटी नहीं होती। मीडिया संस्थान का कारोबार पिछले दो दशक में जितना बढ़ा है, उतना कर्मचारियों का वेतन नहीं। भाषाई पत्रकारिता हर तरफ छा रही है।
वक्त का तकाजा है कि नए समय की मीडिया और इसके हालात, इसके कारोबार पर विचार-विमर्श किया जाए। मीडिया की अंदरूनी और बाहरी हालातों पर नजर रखी जाए जिससे वस्तुस्थिति सामने आए। आंकड़ों के खेल को भी समझा जाए। इसी के मद्देनजर त्रैमासिक पत्रिका 'पांडुलिपि" अपने नए आयोजन में 'मार्च-मई,२०१२' अंक को 'नए समय में मीडिया"पर केंद्रित कर रहा है। इसके लिए आप आलेख, शोधपरक/विमर्शात्मक आलेख, समीक्षा, साक्षात्कार, कार्टून, परिचर्चा, विदेशी मीडिया, सिटीजन जर्नलिज्म, वेब पत्रकारिता, वेब साहित्य मसलन कहानी, कविता, उपन्यास आदि 31 दिसंबर, 2011 तक भेज सकते हैं। अपने लेख ई-मेल, डाक, फैक्स तीनों से भेज सकते हैं। इससे इतर मीडिया से संबंधित किसी मुद्दे पर लिखना चाहें तो भी स्वागत है। खास पहलू पर विचार-विमर्श करना चाहें तो कर सकते हैं। पता है:-
विनीत उत्पल
अतिथि संपादक
पांडुलिपि
तीसरा तल, ए-959
जी.डी. कॉलोनी, मयूर विहार फेज-तीन, नई दिल्ली-110096
मो. +91-9911364316
ई-मेल: vinitutpal@gmail.com
http://vinitutpal.blogspot.com/
या
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी संपादक
पांडुलिपि
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ईमेल- pandulipipatrika@gmail.com
फैक्स- 0771-4240077

10/12/2011

भ्रष्टाचार, आन्दोलन और सोशल मीडिया


भ्रष्टाचार के विरोध और लोकपाल विधेयक के समर्थन में अन्ना हजारे के आमरण अनशन के साथ बाबा रामदेव का आंदोलन के कई मायने हैं. स्वतंत्र भारत के इतिहास के साथ इंटरनेट के इतिहास में ऐसा उदाहरण एक भी नहीं है, जहां इस तरह लोकतांत्रिक ढंग से कोई लड़ाई लड़ी गई हो। हालांकि यह बात और है की जहां अन्ना हजारे के आंदोलन ने आम जनमानस में भविष्य के नई उम्मीद जगाई थी वहीं बाबा रामदेव ने आंदोलन और इसके बाद की घटनाएं हर किसी को झकझोड़ने वाली रही हैं. जब समूची दुनिया भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी हुई हो तो राजनीति और राजनेताओं पर सवाल उठना लाजिमी है। फिर पिछले कुछ समय से नेटजन जो काम कर रहे हैं, वह पूरी दुनिया के सामने है। मध्य-पूर्व के लोग पहले ही सोशल मीडिया की ताकत देख चुके हैं। जन आंदोलन के सामने तानाशाह नतमस्तक हो गया। इतिहास गवाह है कि सभी सरकारों ने जन आंदोलन को दबाया ही है। आंदोलनकारियों को या तो जेल में ठूंस दिया गया या फिर मौत के घाट उतार दिया गया। यहि हाल भारत में भी हुआ, अन्ना और उनकी टीम पर कितने आरोप लगे हर कोई जनता है, बाबा रामदेव और उनके योग का क्या योग हो रहा है, यह किसी से छिपी हुई नहीं है.  
क्या किसी को भी इस बात का अंदाजा था कि नेटजन इस कदर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन से जुड़ेंगे? ई-मेल के जरिए आंदोलन हर घर में घुस जाएगा? क्या कोई सोच सकता था कि विद्यार्थी, बुद्धिजीवी, कलाकार, रंगकर्मी के साथ बॉलीवुड की हस्तियां एक मंच पर जुटेंगी? क्या कोई सोच सकता था की योग करने वाले विदेशी बैंकों में जमा काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने में सरकार की हालत ऐसी ख़राब करेंगे कि देर रात एक बजे सरकार कार्रवाई करने जैसा कदम उठाएगी और बाबा रामदेव को दिल्ली से पंद्रह दिनों के भीतर आने पर रोक लगा दी जाएगी. क्या कभी किसी ने सोचा था कि सोशल मीडिया के विभिन्न रूपों के जरिए लोग संबंधित खबरों की जानकारी पूरी दुनिया के सामने न सिर्फ रखेंगे बल्कि अपने विचार को बिना किसी डर या झिझक के लोगों के सामने पहुंचाने में सक्षम होंगे? कितनों को पता था कि ट्विटर पर महज 140 शब्द दुनिया में धूम मचाने का माद्दा रखता है या फिर हर हाथ में मोबाइल का कैमरा आंदोलन को नई दिशा देने का काम कर सकता है क्योंकि चंद सेकेंड में मोबाइल के कैमरे से खींची गई तस्वीरें यू-ट¬ूब के माध्यम से दुनिया के सामने होंगी।
वर्तमान वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य को लेकर कैलिफोर्निया में रह रहे अंतरराष्ट्रीय विकास और सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ रॉबर्ट क्लिटगार्ड कहते हैं, "विश्व के अधिकतर देशों के नेता दो तरह की मानसिकता वाले हैं। वे सीढ़ी-दर-सीढ़ी के भ्रष्टाचार को तवज्जो देते हैं और मानते हैं कि इसके मौजूद रहने से व्यक्तिगत और दलगत तौर पर सबको किसी न किसी रूप में फायदा होता है। वे इसे इस तौर पर देखते हैं कि बिना राजनीतिक खुदकुशी के यह समय के साथ बढ़ता रह सकता है। निजी हो या सरकारी, हर स्तर पर भ्रष्टाचार मौजूद है।' ऐसे में जब राजनीतिक विश्लेषक जेम्स मेडिसन कहते हैं कि यदि मनुष्य देवदूत हों तो किसी सरकार की कोई जरूरत नहीं होगी। यदि देवदूत लोगों पर शासन करेंगे तो किसी बाहरी या भीतरी नियंत्रण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। सरकार के तौर पर व्यक्ति ही व्यक्ति पर शासन करता है, इसी में कठिनाई होती है। इसलिए सबसे पहले सरकार को सक्षम बनाना होगा कि शासन कैसे किया जाता है और फिर दूसरे स्तर पर खुद पर नियंत्रण करना सिखाना होगा। 11 सितम्बर को वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद ऑन लाइन लेखक रोजर कंडेनहेड ने न्यूयार्क टाइम्स के पत्रकार एमी हार्मोन से कहा था कि यह अविश्वसनीय त्रासदी है। इंटरनेट को ईजाद करने का मूल कारण था नेटवर्क का विकेंद्रीकरण करना लेकिन आज किस काम के लिए इसका प्रयोग किया जा रहा है।
रॉबर्ट क्लिटगार्ड, जेम्स मेडिसन और रोजर कंडेनहेड ने अलग-अलग संदर्भ में ये बातें कहीं थीं लेकिन भारत के संदर्भ में तीनों बातें गंभीर हो जाती है। अन्ना हजारे के आंदोलन के संदर्भ में जरूरी है कि इनकी बातों पर गौर किया जाए क्योंकि इनके फार्मूले सिर्फ पश्चिम के देशों के लिए फिट नहीं हैं बल्कि भारत के लिए भी अहमियत रखते हैं। चाहे दुनिया के अमीर देश हों या गरीब, विकसित देश हों या विकासशील, भ्रष्टाचार से हर देश जूझ रहा है। गैर सरकारी संगठन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक, पहली दुनिया ने तीसरी दुनिया के घोटालों को जन्म दिया है। बेल्जियम, ब्रिटेन, जापान, इटली, रूस, स्पेन जैसे देशों की राजनीति भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द घूमती है। वेनेजुएला में भ्रष्टाचार मुद्दे को लेकर दो हिस्से में डिक्शनरी diccionario de la corruption en venezuela, 1989 तक प्रकाशित की जा चुकी है। अब भारत में अन्ना ने भ्रष्टाचार के विरोध में जो अध्याय लिखा है, उससे कभी भी इतिहास मुकर नहीं सकता। हालांकि बाबा रामदेव का आंदोलन भी सोशल मीडिया में खूब धूम मचाई, मगर सरकार के कदम के कारण इसे ज्यादा हवा नहीं मिल सकी. अपने ट्विटर पर विजय माल्या ने लिखा भी था कि यदि समाज के प्रतिष्ठित ;ओग भूख हड़ताल कर रहे हैं, तो यह लोकतंत्र का चेहरा है जो हमें गर्व करने के लिए मजबूर कर रहा है. लेकिन आश्चर्य कि बात है कि ऐसे में सांसद का क्या रोल है? अनुपम खेर ने भी लिखा था कि अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. 
विश्वव्यापी भ्रष्टाचार के दौर में सत्याग्रह और आमरण अनशन जैसी फौलादी हथियार से सरकार को झुकने के लिए विवश करना आसान काम नहीं है। तभी को समाजशास्त्रीय  आशीष नंदी कहते हैं, "सत्याग्रह शक्तिशाली को शर्मिंदा होने के लिए मजबूर करता है क्योंकि समाज के सामने नैतिक बात कहने का माद्दा रखता है। लेकिन यह प्रभावशाली तभी तक है जब तक सामने वालों के पास ऐसे एक्शन को समझने की नैतिकता बची हो। वहीं, गार्डियन लिखता भी है कि भूख हड़ताल, महात्मा गांधी की याद दिलाता है, जो भारत में काफी प्रचलित राजनीतिक रणनीति है। ऐसे में लोकपाल विधेयक को लेकर अन्ना हजारे के अनशन के जरिए यह बात तो तय हो गई कि भारत सरकार में नैतिकता बची हुई है।
ऐसे में कहीं न कहीं यह बात सामने आती है जो चीजें पिछले चार दशकों से अधिक समय में तय न हो पाई, वह चार दिन में कैसे हो गई। जाहिर सी बात है कि सोशल मीडिया ने मध्यपूर्व, उत्तरी अफ्रीका के बाद भारत में अपनी धमक दर्ज कराई। दुनिया के लोगों ने टीवी के जरिए इस आंदोलन को देखा वहीं सोशल मीडिया मसलन, फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, फ्लिकर, ब्लॉग्स, एसएमएस ने इस आंदोलन को बड़े पैमाने पर हवा दी। फेसबुक पर सौ से अधिक पेज अन्ना को समर्पित है, वहीं "अन्ना हजारे', "करप्शन', "जंतर-मंतर', "जन लोकपाल', "मेरा नेता चोर है' जैसे ट्विटर एकाउंट से भ्रष्टाचार, लोकपाल विधेयक आैर इसके आंदोलन से जुड़ी खबरें अपडेट होती रहीं। अन्ना के आंदोलन की हजारों क्लिपिंग्स यू-ट्यूब पर मौजूद है। इतना ही नहीं, स्वामी रामदेव के आंदोलन के दौरान योग, रामदेव, अनशन जैसे की-वर्ड हर सोशल मीडिया में मौजूद है.
इंटरनेट के कारण ही यह संभव हुआ कि दोनों आंदोलनों को अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस मुद्दे को हाथोंहाथ लिया। हालांकि अन्ना को व्यापक समर्थन मिला. देश के कोने-कोने से लोग अन्ना हजारे के समर्थन में जंतर-मंतर आते रहे। सोशल मीडिया इतना ताकतवर तो है ही जिससे हर पल की जानकारी मात्र सेकेंड भर में दुनिया के दूसरे कोने में बैठे लोगों को मिलती रही।
ब्रिाटेन के वरिष्ठ पत्रकार केनेथ पायने कहते हैं कि वर्तमान दौर में युद्ध के दौर में मीडिया का प्रयोग बतौर हथियार के तौर पर किया जाने लगा है। क्योंकि जीत की राजनीति, युद्ध के मैदान में हराने की अपेक्षा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय लोगों के विचारों पर अधिक निर्भर करता है। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार के झुकने के पीछे कई कारण हैं लेकिन सोशल मीडिया के बिना अन्ना हजारे को ऐसी अप्रत्याशित सफलता नहीं मिलती, इतना व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं हो पाता। आम लोगों ने इस आंदोलन को लेकर अपनी भावनाओं का इजहार किया। 
गौरतलब है कि कोसोवो की क्रांति को पहला इंटरनेट युद्ध कहा गया लेकिन इस आंदोलन को भारत का सोशल मीडिया रिवोल्यूशन कहा जा रहा है। फेसबुक पर अन्ना हजारे से संबंधित पेज बनने के पहले ही दिन 40 हजार फॉलोवर्स बनने से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सोशल मीडिया की व्यापकता भारत में कितनी है। अंतरराष्ट्रीय ऑन लाइन कम्युनिटी "आवाज' के जरिए अन्ना के आंदोलन को 75 लाख लोग समर्थन दे रहे थे। भारत के तहरीर चौक यानी जंतर-मंतर पर हो रहे आंदोलन और इससे इतर जानकारी "इंडिया अगेंस्ट करप्शन' नामक फेसबुक प्रोफाइल के जरिए दी जाती रही है। अन्ना हजारे के फेसबुक प्रोफाइल को लाइक करने वालों की संख्या सवा लाख से अधिक हो चुकी है। मीडिया प्रोफेशनल मनीष कुमार बताते हैं कि "सपोर्ट अन्ना हजारे' नामक फेसबुक प्रोफाइल बनाया तो महज 24 घंटे में 1,600 हिट्स रहा। इससे पहले जब चार अप्रैल को "इंडिया अगेंस्ट करप्शन' नामक फेसबुक प्रोफाइल पर पोस्ट किया गया, "आगे बढ़ो अन्ना, हम तुम्हारे साथ हैं!!!' तो देखते ही देखते 201,448  लोग इसे पसंद करने आ गए। फिर मिस कॉल करने को भी कहा जाने लगा और एसएमएस किया गया कि आंदोलन में शामिल हों, 25 लाख मिस कॉल की जरूरत है। साथ ही एसएमएस के जरिए भी अन्ना के समर्थन में आने का आग्रह किया जाने लगा। एक शोध के मुताबिक, अन्ना के अनशन के तीन दिन के दौरान इस मसले पर करीब सवा आठ लाख लोगों ने 44 लाख से अधिक ट्वीट किए। 79 शहरों से ट्वीट किए गए और इन शहरों में मुंबई सबसे अव्वल रहा। सबसे अधिक ट्वीट करने वालों में 36 से 45 साल के उम्र के लोग थे। शुरुआती दौर में सिर्फ 77 फीसद लोगों से अन्ना के अनशन को लेकर सकारात्मक रूख अख्तियार किए थे लेकिन तीन दिनों में यह आंकड़ा 86 फीसद हो गया। यहि हाल बाबा रामदेव के आंदोलन का भी रहा. इंटरनेट पर बाबा रामदेव के साथ सरकार कि भर्त्सना करने वालों कि कमी नहीं रही.
गौरतलब है कि सोशल मीडिया के चमत्कार के कारण वैश्विक मीडिया का ध्यान अन्ना के अनशन की ओर गया। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में लाखों भारतीय शामिल हुए। नेटजन ने इतिहास बदल कर रख दिया है। इंटरनेट की दुनिया से चाहे सामाजिक हो या राजनीतिक, सभी व्यवस्थाओं में परिवर्तन आया है। ट्यूनेशिया से लेकर मिस्र तक की खबरें अब पुरानी हो चुकी हैं जहां बिना किसी खून-खराबे के लोगों ने बदलाव देखा। कभी वक्त था जब आंदोलन को पूरी तरह दबा दिया जाता था। मनगढंत और अफवाहों का बाजार गर्म रहता था। आधा सच और आधा झूठ दुनिया के सामने आ पाता था। नेता नेतागिरी में और भ्रष्टाचार में डुबकी लगाए रहते थे और बेचारी जनता अपने चुने नुमाइंदे के मुंह ताकने के लिए विवश होते रहती थी। इंटरनेट ने लोगों को समझने की ताकत दी है। सोशल मीडिया किसी भी समाज या देश की बनी बनाई छवि कब पल भर में मिट्टी में मिलाने की क्षमता रखता है। कुछ बरस पहले जो काम पत्रकार किया करते थे वह काम अब सिटीजन जर्नलिस्ट बखूबी करने लगे हैं। हर व्यक्ति पत्रकार बन चुका है। उसे सरकार द्वारा मुहैया कराए जा रही पत्रकारीय सुविधाओं की दरकार नहीं है बल्कि उसकी एकमात्र चाहत है कि उसकी बातें "मैंगो पीपल' तक पहुंचे। इसके लिए वह हर एतिहासिक क्षण को अपने मोबाइल के कैमरे से शूट करने में नहीं चूकता। ऐसा भी नहीं है कि सिटीजन जर्नलिस्ट राजनेताओं या नौकरशाहों को ही अपनी गिरफ्त में लेता है बल्कि पत्रकारों को भी नहीं बख्शता। जैसा अन्ना हजारे के आंदोलन की लाइव रिपोर्टिंग के दौरान बरखा दत्त के साथ हुआ। उसकी हूटिंग की वीडियो यू-ट्यूब पर है जिसे देखते ही देखते पूरी दुनिया के लोगों ने अपने मोबाइल, लैपटॉप से लेकर डेस्क टॉप पर देखा।
सोशल मीडिया की सीमाएं अनंत हैं और इसकी जद में कभी भी कोई भी आ सकता है। किसी बयान पर कितनी जिल्लत झेलनी पड़ सकती है, उसका उदाहरण भी अन्ना के आंदोलन के वक्त सामने आया। रामविलास पासवान के एक बयान से नेटजन आक्रोशित हो गए और दनादन गालियों और अभद्र भाषाओं की शुरुआत हो गई। बार-बार सजग फेसबुक सदस्य दूसरे सदस्यों से अभद्र भाषाओं के इस्तेमाल न करने का आग्रह किया जाने लगा। हालांकि कौन गलत था और कौन सही, यह अलग मामला है। अन्ना के आंदोलन ने सोशल मीडिया के सोशलिज्म को भी नए सिरे से परिभाषित किया है। जहां क्रिकेट की आंधी में बड़े-बड़े शूरमा ध्वस्त हो जाते हैं वहीं अन्ना के आंदोलन एक हफ्ते से भी अधिक समय तक पहली खबर बने रहने का इतिहास रचने का काम किया।
गौरतलब है कि भारतीय संसदीय इतिहास में पहली बार लोकपाल विधेयक 1969 में संसद में पेश किया गया था। इसके बाद भी कई बार संसद के पटल पर यह रखा गया लेकिन कोई भी सरकार न तो इसका सही प्रारूप ही तैयार कर पाई और न ही इसे पास ही करा सकी। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि समाज में नैतिक मूल्य घटे हैं। राजनीति भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी हुई है। नीचे से लेकर ऊपरी तबके तक हर मोड़ पर भ्रष्टाचार विद्यमान है। सरकार की जगह नीतियों को स्वयंसेवी संगठन अपने हिसाब से बदलने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अन्ना के आंदोलन की सफलता ने लोगों में आशाओं का संचार किया है। आम जनता यह सोचने के लिए विवश हुई है कि राजनीतिक  प्रणाली के पतन के इस दौर में भी संभावनाओं के द्वार खुले हुए हैं। जनता सीधी कार्रवाई करने का माद्दा रखती है। मीडिया और घूमंतू प्रवृति ने लोगों की मानसिकता को व्यापक किया है। इंटरनेट के कारण लोगों की आवाज वैश्विक होने लगी है। सस्ते, नियंत्रण और सीधा संवाद, एक मानसिकता वाले लोगों के लोगों के एकजुट होने से इंटरनेट की दायरा व्यापक है। इंटरनेट की ताकत को विशेषज्ञ "न्यू फार्म ऑफ डेमोक्रेसी' के तौर पर काफी अरसे से देख रहे हैं। आंदोलन को लेकर चे-ग्वेरा ने कभी कहा था कि आंदोलन पके हुए सेब की तरह नहीं है कि पकने के बाद वह नीचे ही गिरेगा। तुम्हें इसे गिराने के लिए मजबूर करना होगा। वहीं एडमंड बुर्के के मुताबिक, किसी भी आंदोलन के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, भावनाओं, तौर-तरीके और नैतिक विचार। और ऐसे में जाहिर है कि भ्रष्टाचार के विरोध में हुए आंदोलन का परिणाम आना बाकी है, साथ ही बाकी है सरकार के साथ-साथ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के उन चेहरों को भी देखना जो अभी तक नहीं दिखा है. 
संदर्भ:  
1. The media as an instrument of war, Kenneth Payne, Parameters, spring, 2005, pp 81-93
2. James Madison, 'The structure of rhe government must furnish the proper checks and balances between the different departments, in Clinton Rossister', (ed.) The Federatest paper, New York, Signet Classic, 2003, 319
3. Reweaving the Internet, online news of sept. 11, Stuart Allan, 119: Journalism after sept.11, Barbie Zelizer and Stuart Allan (ed.), 2003, Routledge, Taylor and Francies Grocy, London and New York
4.Satyagraha has the power to shame the powerful, Avijit Ghosh, Times of India, p.14, 7th april, 2011
5.International Cooperation against corruption, Robert Klitgaard, Finance and Development, March, 1998
6.'The Internet as a site of Resistance: The case of tha Narmada Bachao Andolan', New Media and Public Realtion, Sandra C. Duhe, editor, 2007