11/05/2023

ओटीटी सीरीज का हथकंडा, कहीं हकीकत, कहीं एजेंडा


 ओटीटी सीरीज का हथकंडा, कहीं हकीकत, कहीं एजेंडा 

विनीत उत्पल 


लेखक अनंत विजय की पुस्तक ‘ओवर द टॉप का मायाजाल’ उस सत्यता को परिभाषित करती है, जो ओटीटी के विभिन्न प्लेटफार्म पर वेब सीरीज के खिस्सों के जरिये दर्शकों को दिखाया जाता है. देश में इंटरनेट का बढ़ता घनत्व और डाटा सस्ता होने के कारण ओटीटी प्लेटफॉर्म की व्याप्ति बढ़ी है और इन प्लेटफॉर्म पर दिखाई जाने वाली सामग्री में गलियों की भरमार, यौनिकता और नग्नता का प्रदर्शन, जबरदस्त हिंसा और खूंन-खराबा, अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणियां और कई बार सैनिकों की छवि ख़राब करने जैसे प्रसंग भी सामने आ चुके हैं. ऐसे में नौ अध्यायों ‘नग्नता और यौनिकता का बोलबाला’, ‘पाताल लोक में पक्षपात का समुच्चय’, ‘रंगबाज, महारानी और पुरबिया नाच’, ‘परदे पर काल्पनिक नैरेटिव’, ‘कहानियों के बदलते कलेवर’, ‘प्रमाण के बंधनों से मुक्ति या’, ‘वेब सीरीज: मंथन का समय’, ‘ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की चुनौतियाँ’, ‘मनोरंजन से वैश्विक होती हिंदी’ के जरिये अनंत विजय ने ओटीटी से जुड़े विभिन्न आयामों की विस्तृत जानकारी इस पुस्तक में दी है.

अनंत विजय पुस्तक की भूमिका में कहते हैं कि ओटीटी प्लेटफार्म भारत में मनोरंजन का अपेक्षकृत नया माध्यम है और कोरोना महामारी के दौरान देशव्यापी लॉकडाउन ने इस माध्यम को लोकप्रिय बनाया। उनका मानना है कि यहाँ दिखाए जाने वाले अधिकतर कंटेंट में एक प्रकार की अराजकता दिखाई पड़ती है. यही कारण है कि विभिन्न ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रदर्शित शिकायतों का आंकड़ा 6-7 हजार से अधिक है. वे लिखते हैं कि फरवरी, 2001 में सूचना प्रौद्योगिकी कानून लाया गया और इसके तहत ओटीटी की सामग्री पर नजर रखने का प्रावधान है और इसके लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था है, पहला, पब्लिशर के स्तर पर, दूसरा, स्वनियमन और तीसरा, सरकार के स्तर पर. इस पुस्तक में वे नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो, हॉटस्टार के द्वारा कंटेंट और ग्राहकीय रणनीतियों पर भी व्यापक रूप से प्रकाश डाला है. वे लिखते हैं, ‘नेटफ्लिक्स ने दिसंबर 2021 में ग्राहकों को काम मूल्य पर अपनी सेवाएं उपलब्ध करवाना आरम्भ किया। नेटफ्लिक्स ने दो तरह की रणनीति अपनाई थी-एक तो ग्राहकों को जो शुल्क देना पड़ता थी, उसको कम किया और अपने प्लेटफार्म पर भारतीय फिल्मों एवं भारतीय कहानियों पर बनी वेब सीरीजों को प्राथमिकता देना आरम्भ किया… प्राइम वीडियो, हॉटस्टार आदि ने भी भारतीय कहानियों को केंद्र में रखकर कहानियां पेश करनी शुरू कर दी.’

पुस्तक के पहले अध्याय ‘नग्नता और यौनिकता का बोलबाला’ में लेखक ने ‘लस्ट स्टोरीज’, ‘सेक्रेड गेम्स’, ‘घोउल’, ‘मिर्जापुर’ जैसे वेब सीरीज की स्क्रिप्ट का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ज्यादातर सीरीज अपराध कथाओं पर आधारित होती हैं, लिहाजा अपराध, सेक्स प्रसंग, गाली-गलौज, जबरदस्त हिंसा आदि दिखाने की छूट निर्देशक ले लेते हैं. ऐसे में वेब सीरीज में परोसी जाने वाले नग्नता और हिंसा को लेकर निर्माताओं को स्वनियमन के बारे में सोचना चाहिए. 

दूसरे अध्याय ‘पाताल लोक में पक्षपात का समुच्चय’ में ‘पाताल लोक’, ‘लैला’, ‘जामताड़ा’. ‘रसभरी’, ‘आर्या’, ‘पंचायत’ जैसे सीरीज के विषयों को लेकर अनंत विजय कहते हैं कि कला की सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर समाज को बाँटने की छूट ने तो लेनी चाहिए और न ही दी जानी चाहिए. यथार्थ के नाम पर कहानी के लोकेशन और गालीवाली भाषा को पेश करने की जो भेड़चाल वेब सीरीज में दिखाई देती है उस पर भी विचार करना होगा. यथार्थ के चित्रण के लिए जिस कौशल की जरूरत होती है, वह गले-गलौच और अश्लीलता दिखनेवाले निर्देशकों में नहीं दिखता। इस तरह के लोग अपनी कमजोरियों को ढकने के लिए गालियों, हिंसा और यौनिक दृश्यों का सहारा लेते हैं. यही कारण है कि फिल्म या वेब सीरीज के क्राफ्ट या निर्देशकों के कौशल पर बात नहीं होती है और साड़ी चर्चा गलियों और फूहड़ता पर केंद्रित हो जाती है. 

अनंत विजय इस मामले में तर्क देते हुए लिखते हैं, ‘समांतर सिनेमा के दौर में भी यथार्थ दिखाया जाता था, चाहे वे गोविंद निहलानी की फ़िल्में हों या श्याम बेनेगल की या महेश भट्ट की. इनकी फिल्मों में भी यथार्थ होता था, वैसा यथार्थ जो बगैर लाउड हुए जीवन को दर्शकों के सामने पेश करता था.’ लेखक लिखते हैं कि ‘पाताल लोक’ पत्रकार तरुण तेजपाल के उपन्यास ‘द स्टोरी ऑफ़ माई एसेसिंग’ पर बनाई गई प्रतीत होती है वहीं, ‘रसभरी’ में असंवेदनशीलता में एक छोटी बची को पुरुषों के सामने उत्तेजक नाच करते हुए, एक वस्तु की तरह दिखाना निंदनीय है. वेब सीरीज के विषयों को लेकर वे चिंतित दिखाई पड़ते हैं और कहते हैं ‘वेब सीरीज कई अराजकता का दायरा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है. जो पुस्तकें दशकों पहले फुटपाथ पर पीली पन्नियों में छिपाकर बेची जाती थीं, अब उसी स्तर की कहानियां और उस पर बनी फ़िल्में इन प्लेटफॉर्म पर वेब सीरीज के रूप में उपलब्ध होने लगी हैं.’

तीसरे अध्याय ‘रंगबाज, महारानी और पूरबिया नाच’ में ‘रंगबाज’, ‘महारानी’ ‘रामयुग’ जैसे वेब सीरीज का विश्लेषण किया गया है और बताया गया है कि जी-5 पर प्रदर्शित ‘रंगबाज’ में उत्तर प्रदेश के खतरनाक अपराधी श्रीप्रकाश शुक्ल के कारनामे को दिखाया गया है जबकि दूसरे सीजन में राजस्थान के गैंगस्टर आनदपाल सिंह के अपराध की कहानी चित्रित की गई थी. गौरतलब है कि आईपीएस राजेश पांडे और वरिष्ठ पत्रकार और प्रोफ़ेसर राकेश गोस्वामी की हाल में आई पुस्तक ‘ऑपरेशन बजूका’ श्रीप्रकाश शुक्ल की अपराध गाथा है जो काफी चर्चित रही है, ‘महारानी’ वेब सीरीज बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए लालू प्रसाद यादव जब घोटाले के भंवर में फंसे तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया था. उस घटना पर केंद्रित यह वेब सीरीज थी. वहीं लेखक ‘रामयुग’ को लेकर कहते हैं कि इस सीरीज में भले ही राम को आधुनिक रूप में दिखने की कोशिश की गई हो, लेकिन उनके मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित्र को उसी तरह से पेश किया गया है, जैसा कि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में या तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में किया है. 

अनंत विजय अध्याय चार ‘परदे पर काल्पनिक नैरेटिव’ में ‘लैला’, ‘द फैमिली मैन’, ‘तांडव’ के विषयों को लेकर कहते हैं कि पाबंदी या बंदिश या पाबंदी के कानून आदि की अनुपस्थिति में स्थितयां अराजक हो जाती हैं. उन दिनों जिस तरह की वेब सीरीज आ रही थी, उनमें कई बार कलात्मक आजादी या रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ में सामाजिक मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को मिटाकर नई रेखा खींचने की कोशिश भी दिखाई देती है. ‘द फैमिली मैन’ में आतंकवाद को जस्टिफाई करने की कोशिश दिखाई देती है. वहीं, ‘तांडव’ को लेकर वे कहते हैं कि इसकी ऐसी कहानी है, जिसमें न तो निरंतरता है और न ही रोचकता। कहानी के लेखक को भारतीय समझ तक नहीं है. इसकी कहानी में सिर्फ एजेंडा भरा गया था और अख़बारों से उठाकर घटनाओं का भोंडा कोलाज बनाने का प्रयास किया गया था. 

अध्याय पांच में ‘कहानियों के बदलते कलेवर’ के जरिये लेखक ने ‘बिच्छू का खेल’, ‘स्कैम 1992’ सहित विभिन्न वेब सीरीज के जरिये लेखक का मानना है कि उनमें भारतीय कहानियों की मांग बढ़ी है. वह चाहे ‘आर्या  हो, ‘पाताललोक’ हो, ‘आश्रम’ हो, ‘बंदिश बैंडिट्स’ हो, ‘पंचायत’ हो, इन सबमें हमारे आसपास की कहानियां हैं. न सिर्फ कहानियों में, बल्कि इन सीरीज की भाषा और मुहावरों में भी देसी बोली के शब्दों को जगह मिलने लगी है. वहीं, ‘जुबली’ नामक वेब सीरीज की कहानी बताती है कि कैसे कम्युनिस्टों ने हिंदी फिल्मों में अपना एजेंडा सेट किया और विचार संग विचारधारा का प्रोपेगंडा कैसे सेट किया। 

अध्ययन छह ‘प्रमाणन के बंधनों से मुक्ति या..’ में ‘गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल’ के जरिये हुए विवाद और रक्षा मंत्रालय द्वारा 2023 में जारी निर्देशों की चर्चा की गई है. लेखक नेटफ्लिक्स पार आई एक फिल्म ‘गिल्टी’ का विश्लेषण करते हुए लिखते हुए कहते हैं, ‘इस फिल्म की कहानी मी टू के इर्द-गिर्द घूमती है. कॉलेज के छात्रों के बीच एक छात्र का रेप होता है और फिर सोशल मीडिया और मीडिया पर उठे बवंडर के मध्य कहानी चलती है.’ वे लिखते हैं कि निर्देशक शूजित सरकार की फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ को ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज किया गया था, जो भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन के इतिहास में एक अहम् मोड़ पर देखा गया. इसके बाद फिल्मों के रिलीज होने का ट्रेंड बदल गया. सलमान खान की फिल्म ‘राधे, ओर मोस्ट वांटेड भाई’ को जी-5 पर रिलीज किया गया था और रिलीज के साथ इतने दर्शक पहुंचे कि वह प्लेटफार्म थोड़ी देर तक दर्शकों का बोझ ही नहीं उठा सका और हैंग हो गया था. 

‘वेब सीरीज: मंथन का समय’ नामक सातवें अध्याय में ओटीटी को लेकर भारत सहित दूसरे देशों के मौजूदा कानूनों की व्याख्या की गई है. भारत सरकार ने दिशा-निर्देश में कहा था कि कलात्मक स्वतंत्रता की आड़ में कोई भी ऐसी सामग्री दिखाने की अनुमति नहीं होगी, जो कानून सम्मत नहीं है, लेकिन सरकार ने दिशा-निर्देश जारी करते हुए सेवा प्रदाताओं को इसका तंत्र विकसित करने को कहा था. लेखक लिखते हैं कि कई देशों में ओटीटी के लाइट स्पष्ट दिशा-निर्देश है, सिंगापुर में बाकायदा इसके लिए एक प्राधिकरण है वहीं ऑस्ट्रेलिया में इस तरह के प्लेटफॉर्म पर नजर रखने के लिए ई-सेफ्टी कमिश्नर है. 

आठवें अध्याय ‘ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के चुनौतियाँ’ नामक अध्याय में कंटेंट के बदलाव, गुणवत्ता, पाइरेसी आदि की चर्चा की गई है, वहीं नौंवे अध्याय ‘मनोरंजन से वैश्विक होती हिंदी’ में फिजी के नाँदी में विश्व हिंदी सम्मलेन के आयोजन में हुई हिंदी फिल्मों की चर्चा की गई है. पुस्तक के आख़िरी में परिशिष्ट के माध्यम से विभिन्न देशों के नियमन को भी शामिल किया गया है. 

बहरहाल, अनंत विजय की पुस्तक ‘ओवर द टॉप का मायाजाल’ ओटीटी और इस पर दिखाई जाने वाली वेब सीरीज की कहानियों पर विचार-विमर्श का नया रास्ता खोलती है. भारतीय परंपरा और कहानियों पर वेब सीरीज बनाने के रास्ता प्रशस्त करती है और भारतीय सामाजिक स्थिति में कानून बनाने और वैश्विक कानूनों पर सोचने के लिए यह पुस्तक मजबूर करती है.   


पुस्तक: ओवर द टॉप का मायाजाल 

लेखक: अनंत विजय

पृष्ठ: 214 

मूल्य: 300 रुपये 

प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली 


समीक्षक विनीत उत्पल भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू परिसर में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और डिजिटल मीडिया कोर्स के समन्यवक हैं.  


7/12/2023

कुछ तो लोग कहेंगे....लोगों का काम है कहना

कुछ तो लोग कहेंगे......लोगों का काम है कहना

डॉ. विनीत उत्पल 


संजय द्विवेदी महज एक नाम है. वह नाम नहीं, जिसके आगे प्रोफ़ेसर या डॉक्टर लगा हो. वह नाम नहीं, जिसके बाद महानिदेशक या कुलपति लगा हो. वह नाम है ऐसे शख्स की, जो समाज के एक तबके से लेकर किसी संस्थान या फिर राष्ट्र की तकदीर बदलनी की क्षमता रखता है. वह राख की एक छोटी-सी चिंगारी को भी विराट स्वरूप में लाने की क्षमता रखता है. वह किसी अनगढ़ पत्थर को छू ले तो वह खुद को तराश कर सुन्दर बन जाता है. 

संजय द्विवेदी वह नाम है, जिसे हर कोई चुनौती देता है और मगर यह संजय द्विवेदी आग की भट्टी से जलकर कोयला नहीं बल्कि तपकर सोना बनकर निकलते हैं. इनके तमाम परममित्र इनकी योग्यता और नियुक्तियों को कोर्ट में जाकर चुनौती देते हैं और फिर कोर्ट को ‘मुहर’ लगाने के बाद ही इन्हें खुलकर खेलने के लिए पूरी फिल्ड खाली कर देते हैं. इनके प्रिय मित्र तमाम जगह इनकी बड़ाई या बुराई ऐसे करते हैं कि लोगों को समझ में आ जाता है कि संजय द्विवेदी में कुछ बात तो है, कुछ दम तो है, जो सामने वाला शख्स अपना समय. अपना तन-मन-धन उनके बारे में सोचने में लगा रहा है तो फिर संजय द्विवेदी से बेहतर कोई विकल्प नहीं है. संजय द्विवेदी खुद ही संजय द्विवेदी के विकल्प हैं और कोई नहीं। 

संजय द्विवेदी पत्रकार, शिक्षक, नौकरशाह, राजनेता सहित आम लोगों के दिलो-दिमाग पर छाये रहते हैं. उनके मित्र तो उन्हें दिलोजान से चाहते ही हैं, उनका विरोध करने वाले भी इतने मुस्तैद से उनके सामने खड़े रहते हैं, जिससे वे अपने कर्तव्यपथ से विचलित न हों तथा समाज व राष्ट्र को नई दिशा देते रहे. संजय द्विवेदी के पास जीवन बदलने वाले शब्द एक वाक्य में जिह्वा पर समाये हुए हैं जिन्हें सुनकर और आत्मसात कर कोई भी अपनी जीवन की दिशा और दशा बदल सकता है.

लोकेन्द्र सिंह द्वारा सम्पादित “… लोगों का काम है कहना: प्रो. संजय द्विवेदी पर एकाग्र” नामक पुस्तक में संजय द्विवेदी को काफी बेहतरीन ढंग से परखा गया है. इस पुस्तक में सिर्फ 15 आलेख हैं जो संजय द्विवेदी की चारित्रिक विशेषता सहित उनके कार्यों, कार्य पद्धति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं. कृपाशंकर चौबे, लोकेंद्र सिंह, गिरीश पंकज, प्रो. प्रमोद कुमार डॉ. सी. जयशंकर बाबु, प्रो. पवित्र श्रीवास्तव, यशवंत गोहिल, बी.के. सुशांत, डॉ. धनंजय चोपड़ा, डॉ. शोभा जैन, दीपा लाभ, आनंद सिंह, मुकेश तिवारी, डॉ. पवन कौंडल ने बड़ी गहराई से प्रो. संजय द्विवेदी को पहचाना है, चिंतन किया है और उनके कार्यों को रेखांकित किया है. 

इसी पुस्तक में फ्लैप पर साहित्य अकादेमी की उपाध्यक्ष प्रो.कुमुद शर्मा लिखती हैं कि प्रोफ़ेसर संजय द्विवेदी के लेखन की सबसे ख़ास बात है कि वे देश की अस्मिता से गहराई से परिचित कराते हैं. संजय परम्परा से जुड़कर राष्ट्रीयता और भारतीयता को निरंतर व्याख्यायित करते हैं. युवा पीढ़ी तक बहुत आसान शब्दों  की चेतना को  वे निरंतर कर रहे हैं. जड़ों से जुडी हुई भारतीय चेतना के वे सजग व्याख्याकार हैं. नए भारत के विमर्शों को वे सामने लेकर आ रहे हैं. 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि संजय द्विवेदी की सृजन सक्रियता विस्मयकारी है. यही बात कृपाशंकर चौबे भी कहते हैं. लोकेन्द्र सिंह भी कहते हैं कि किसी के लिए वे एक गंभीर लेखक हैं. किसी ने उनमें ओजस्वी वक्ता देखा है. संपादक की छवि भी उनके व्यक्तित्व में दिखाई देता है. वे कुशल राजनीतिक विश्लेषक हैं. कुछ के लिए वे सिद्ध जनसम्पर्कधर्मी हैं. विद्यार्थी उन्हें एक आदर्श शिक्षक के रूप में देखते हैं. वे जिस भूमिका में होते हैं, उसके साथ न्याय करते हैं. लेखक और पत्रकार की भूमिका होती है कि वे अपने समय  चुनौतियों से संवाद करे और नागरिकों  का प्रबोधन करे. कलम से लेकर की-बोर्ड का सिपाही बनकर इस भूमिका का निर्वहन प्रो. द्विवेदी ने कुशलता से किया है. 

प्रो. संजय द्विवेदी ने अब तक दर्जनों पुस्तकें लिखीं हैं और करीब दो दर्जन पुस्तकों का संपादन किया है. मीडिया विमर्श उनके संपादकीय कौशल की साक्षी है. पत्रकारीय जीवन से लेकर अकादमिक जगत में सक्रिय रहते हुए प्रो. संजय द्विवेदी ने विविध भूमिकाओं में रहते हुए समाधानमूलक दृष्टि को प्रोत्साहन  करने का काम किया है. समाधानमूलक एवं सकारात्मक पत्रकारिता के लिए के विमर्श स्थापित करने पर बल दिया है. यही कारण है कि संजय द्विवेदी कहते हैं, ‘मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उनसे उपजी सफलताएं हैं. मैं चाहता हूँ कि सफलताओं के पीछे का परिश्रम सामने आये और यह अन्य के लिए प्रेरणा का काम करे.” उनकी सफलताएं अनेक लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन सकती हैं. 

अपने लेख में गिरीश पंकज कहते हैं कि संजय द्विवेदी पत्रकारिता के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से जुड़कर लिखते हैं. जो विचारवान होता है, लिखता-पढता है, वह यशार्जन भी तो करता है. संजय का सृजन बोलता है, उसके भीतर की बेचैनी लेखकीय हस्तक्षेप के रूप में बाहर आती है, उसके मौलिक चिंतन में एक आग है, जो  परिवर्तनकामी है. करुणा का भाव ही संजय जैसे लोगों को बड़ा बनाता है, सफल बनाता है. निर्मल मन के स्वामी बनकर जीवन जीते रहें. निरंतर लिखते रहें. उन्होंने अनेक संभावनाशील युवा पत्रकारों की टीम खड़ी कर दी. वे आगे लिखते हैं, संजय का सृजन बोलता है, उसके भीतर की बेचैनी लेखकीय हस्तक्षेप के रूप में  बाहर आती है. उसके मौलिक चिंतन में एक आग है जो परिवर्तनकामी है. संजय को अभी और आगे जाना है. अभी तो यह अंगड़ाई है. लंबा जीवन पड़ा है. इस जीवन को और अधिक चमकदार बनाना है. और यह संतोष की बात है कि जीवन और ज्यादा चमकदार कैसे बने, इसका नुस्खा तो संजय के पास पहले से ही मौजूद है. 

गिरीश पंकज  कहते हैं कि संजय उसी विश्वविद्यालय में कुलसचिव बने और प्रभारी कुलपति बने. उनको भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) का महानिदेशक बना दिया गया. तीन साल से दिल्ली में रहकर संस्थान को इतना सक्रिय बना दिया कि सब चमत्कृत हो गए. हर शुक्रवार को पत्रकारिता और अन्य विषयों पर ऑनलाइन संवाद होते रहे. बाद के उन आयोजनों में जुए विमर्शों को लिपिबद्ध करके एक पुस्तक ‘शुक्रवार संवाद’ भी प्रकाशित हो गई और एक तरह का ऐतिहासिक दस्तावेज ही बन गया. संस्थान इसके पहले कभी भी इतना सक्रिय नहीं रहा. सभी दंग हैं कि ऐसा भी हो सकता है. व्यक्ति की अपनी ऊर्जा, संकल्प-शक्ति और सतत चिंतन के कारण सृजन का रास्ता खुलता चला जाता है. गौरतलब है कि जो श्रमवीर होते हैं, जो लगनशील होते है, उनके लिए नये-नये रस्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं. 

प्रो. प्रमोद कुमार लिखते हैं कि प्रो. संजय द्विवेदी का का लेखन अथक, अविरत जारी है. मीडिया गुरु, पत्रकार, लेखक और प्रभावी संचारक प्रो. द्विवेदी के व्यक्तित्व का एक पक्ष है. दूसरा पक्ष है एक दूरदृष्टा प्रशासक और कुशल योजक. आईआईएमसी को लेकर उनके मन में कुछ ठोस कल्पनाएं पहले से स्पष्ट थीं, जिन्हें मूर्त रूप प्रदान करने के लिए  उनके पास ठोस योजनाएं भी थीं. उनके व्यक्तित्व के प्रशासकीय पक्ष पर जब मैं विचार करता हूँ तो स्पष्ट नजर आता है कि वे कड़े निर्णय लेने में संकोच नहीं करते. 

भारतीय जन संचार संस्थान को लेकर प्रो. प्रमोद कुमार कहते हैं, प्रो. द्विवेदी द्वारा आईआईएमसी में जो ने प्रयोग किये गए हैं, उनमें एक है, ‘शुक्रवार संवाद।’ शिक्षा संस्थानों के क्लासरूम में पाठ्यक्रम की मर्यादा रहती ही है, परन्तु मीडिया विद्यार्थियों के लिए ऐसे बहुत से विषय है जो पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं होते, परंतु उन पर उनका प्रबोधन आवश्यक है. उदाहरण के लिए भारत की निर्वाचन प्रक्रिया की समझ, पर्यावरण, संविधान, मीडिया और लोक कलाओं की समझ, एक संचारक के रूप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, तिलक, आंबेडकर, दीनदयाल उपाध्याय, मदन मोहन मालवीय, अटल बिहारी वाजपेयी आदि महापुरुषों के बारे में जानकारी. ‘संचार माध्यम’ और ‘कम्युनिकेटर’ आईआईएमसी द्वारा प्रकाशित दो यूजीसी-केयर सूचीबद्ध शोध पत्रिकाएं हैं. दोनों शोध पत्रिकाओं के अलावा प्रो. द्विवेदी की पहल पर राजभाषा हिंदी को समर्पित पत्रिका ‘राजभाषा विमर्श’ का नियमित प्रकाशन हो रहा है. ‘संचार सृजन’ नाम से एक नई पत्रिका और ‘आईआईएमसी न्यूज़’ नाम से एक मासिक न्यूज़लेटर भी आरम्भ किया गया है. डिजिटल मीडिया पर केंद्रित एक नया स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू किया गया है. 

प्रो. प्रमोद कुमार कहते हैं, एक बात जो प्रो. द्विवेदी को एक कुशल प्रशासक बनाती है, वह है लीक से हटकर सोचना. भारतीय जन संचार संस्थान के पुस्तकालय का हिंदी पत्रकारिता के आदि संपादक पंडित युगल किशोर शुक्ल के नाम पर नामकरण. ‘उदंत मार्तंड’ के संपादक पंडित युगल किशोर शुक्ल के नाम पर यह देश में प्रथम स्मारक है. प्रो. द्विवेदी के लिए संस्थान में काम काम करने वाला कोई भी व्यक्ति अनुपयोगी नहीं है. वे हर व्यक्ति से उसकी क्षमतानुसार काम ले लेते हैं. एक सफल प्रशासक और योजक के लिए इससे बड़ा  गुण और क्या हो सकता है. 

वहीं, डॉ. सी. जयशंकर बाबु का कहना है कि संजय द्विवेदी के लेखन में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना उनके विराट आत्मीय व्यक्तित्व की तमाम विशेषताओं के साथ उपस्थित हो जाती है. वे जहाँ गंभीर तेवर के साथ भी अपनी लेखनी चलाते हैं, उस लेखन के अंतस में कई कोमल भावनाएं होती हैं. उनकी लेखनी में जनहित, राष्ट्रहित के साथ ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना की प्रबलता हम देख सकते हैं. संजयजी अपने विशिष्ट व्यक्तित्व, विराट चिंतन, विनम्रता, शालीनता, श्रद्धा, प्रेम, भाईचारा, मानवता जैसे विराट मूल्यों से सींचकर अपनी बात को अपने पाठकों के ह्रदय तक प्रभावशाली ढंग से पहुंचा देते हैं. संजय जी की शोध दृष्टि में परंपरा के प्रति आदर है और आधुनिकता के प्रति सजगता है. वे भारत के हर अंचल के हर पत्रकार के प्रदेयों को, मीडिया के हर किसी प्रवृति [पर सार्थक विमर्श को अपने शोध में भी आत्मीयतापूर्वक जगह देते हैं. एक जाग्रत पत्रकार और निष्ठावान शिक्षक के रूप में वे सदा लोकजागरण में अपनी सक्रीय भूमिका अदा कर रहे हैं. संजय जी एक लेखक से बढ़कर पत्रकार हैं. लेखक से ज्यादा तेज वे गंभीर चिंतन के वे स्वामी हैं. 

प्रो. (डॉ.) पवित्र श्रीवास्तव लिखते हैं कि हर समय मैंने उन्हें कुछ नया करने की ऊर्जा से लबरेज पाया. संजय द्विवेदी का सामाजिक जीवन, पत्रकारिता प्रोफेशन एवं शिक्षण-प्रशिक्षण में लगभग तीन दशक से अधिक का अनुभव है और इस दौरान उन्होंने मीडिया जगत, अकादमिक जगत और जनमानस में जो पहचान बनाई है, उससे यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि संजय द्विवेदी अब एक ब्रांड बन गए हैं. अपनी व्यवहार कुशलता, रिश्तों को सहेजकर चलने की उनकी अदा से वे कब सीनियर से हमारे मित्र, पारिवारिक सदस्य, मार्गदर्शक और सहकर्मी बन गए, पता ही नहीं चला. उनके  पहलू बड़े साफ़ हैं. वे अपनी सहमति-असहमति और नाराजगी स्पष्ट रूप से जाहिर करते हैं और यही गुण उन्हें एक अच्छे पत्रकार और एक अच्छे लेखक के रूप में स्थापित किया करता है. वे किसी सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम के बाद उस सन्दर्भ में पूरी पृष्ठभूमि को समझकर केवल सार्थक टिप्पणी एवं विश्लेषण नहीं करते, बल्कि पूर्ण निष्पक्षता और गंभीरता के साथ उस पर अपनी राय  करते हैं. 

इस पुस्तक में यशवंत गोहिल, बी.के. सुशांत, डॉ. धनंजय चोपड़ा, डॉ. शोभा जैन, डॉ. दीपा लाभ, आनंद सिंह, मुकेश तिवारी, डॉ. पवन कोंडल ने भी संजय द्विवेदी पर अपने विचार रखे हैं. पुस्तक के संपादक लोकेन्द्र सिंह लिखते हैं कि एक कुशल संचारक की भांति संजय द्विवेदी लगातार अपने समय से संवाद भी कर रहे हैं और लेखन एवं संपादन के माध्यम से भी सामाजिक विमर्श में अपना योगदान दे रहे हैं. वे जिस विश्वविद्यालय से पढ़े, वहीं पत्रकारिता के आचार्य हुए और कुलपति का गुरुतर दायित्व भी संभाला. उनकी विशेषता यह है कि अपनी इस यात्रा में उन्होंने अपने पत्रकारीय, शैक्षिक और प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन करने के साथ ही सामाजिक दायित्व को भी समझा और समाज के लिए उपयोगी साहित्य की रचना की. 

बहरहाल, यश पब्लिकेशंस के प्रकाशित पुस्तक ‘...लोगों का काम है कहना’ संजय द्विवेदी के यश को पाठकों के सामने रखती है और लोगों के दिलो-दिमाग पर किस तरह वे छाये रहते हैं, इसकी भी बानगी भी इस पुस्तक के पृष्ठों पर मिलती है. कुल मिलाकर 160 पृष्ठ की यह पुस्तक पढ़ने और गुनने योग्य है, जिसे हर किसी को पढ़नी चाहिए. 

7/05/2023

फिल्म उद्योग को भा रहा जम्मू कश्मीर

फिल्म उद्योग को भा रहा जम्मू कश्मीर

डॉ. विनीत उत्पल

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्मकारों को एक बार फिर से जम्मू कश्मीर लुभा रहा है. यहाँ करीब तीन सौ से अधिक फिल्मों और ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए बनने वाली सीरीजों की शूटिंग हो रही है. नए-नए लोकेशन ढूंढे जा रहे हैं और उनकी जानकारी फिल्मकारों के साथ-साथ आम जनता को मुहैया कराया जा रहा है. राज्य सरकार ने जम्मू कश्मीर फिल्म विकास परिषद् (जेकेएफडीसी) का गठन किया है और इसके पोर्टल के जरिये दुनिया भर के फिल्मकारों को करीब 1500 से अधिक स्थानीय अभिनेताओं, अभिनेत्रियों, कलाकारों, कला निर्देशकों, कैमरामैन, सिनेमाटोग्राफर, निर्देशक, डांसर, लोकेशन मैनेजर, मॉडलिंग एजेंसी, प्रोड्यूसर, गायक आदि से संपर्क साधने और काम देने का मौका मिल रहा है. राज्य सरकार की पहल पर राज्य के करीब 250 विभिन्न लोकेशनों की जानकारी के साथ-साथ तुरंत ऑनलाइन बुकिंग कराने का मौका भी फिल्मकारों को पोर्टल के जरिये मिल रहा है. इन लोकेशनों में किला, गोल्फ कोर्स, झील, बांध,जलप्रपात, घास के मैदान, घाटी, संग्रहालय, महल, पार्क, धार्मिक स्थल, बर्फबारी वाले स्थल, हिलटॉप आदि शामिल हैं.

जी-20 सम्मलेन के तुरंत बाद श्रीनगर में 26 मई को कश्मीरी निर्माता-निर्देशक की बनाई फिल्म ‘वेलकम टू कश्मीर’ का प्रीमियर हुआ. बीते 34 वर्ष के दौरान आम कश्मीरियों की जिंदगी पर आधारित यह फिल्म थी और इसमें अभिनय करने वाले मुख्य कलाकार भी कश्मीरी थे. राज्य के सोपोर के पास के गांव के तारिक बट इस फिल्म के निर्देशक हैं और यह फिल्म श्रीनगर के आइनॉक्स सिनेमा में दिखाया गया था. जम्मू कश्मीर फिल्म नीति-2021 के लागू होने के बाद तो राज्य का परिदृश्य ही बदल चुका है. स्थानीय लोगों का टैलेंट उभर कर सामने आ रहा है. क्षेत्रीय भाषा और कम बजट वाली फिल्मों की शूटिंग हर जगह जमकर हो रही है. दिन-रात फिल्म निर्माण का कार्य चल रहा है. फिल्म की नीति को वर्ष 2026 तक ध्यान में रखकर तैयार किया गया है, जिसके तहत अगले पांच वर्षों में फिल्म शूटिंग के लिए जम्मू कश्मीर को मुफीद जगह बनाने, अधिक से अधिक स्थानीय कलाकारों को अपने टैलेंट दिखाने और स्थानीय लोगों को रोजगार मुहैया कराने, राज्य की कला, संस्कृति, इतिहास और परम्पराओं को सामने लाने की है. यहाँ शूटिंग को बढ़ाने और फिल्मकारों को आकर्षित करने की पहल उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के प्रयासों से हुई, जिस कारण कश्मीर की हसीं वादियों में शाहरुख़ खान, रणवीर सिंह, आलिया भट्ट आदि अपनी फिल्म की शूटिंग करने के लिए आ चुके हैं.

कश्मीर फिल्म विकास परिषद् (जेकेएफडीसी) की स्थापना जम्मू कश्मीर के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के  अंतर्गत किया गया. फिल्म प्रभाग के जरिये लघु और शिक्षाप्रद फिल्मों को राज्य के विभिन्न सिनेमाघरों में दिखाए जाने का प्रावधान किया गया है. राज्य में फिल्म शूटिंग के लिए सब्सिडी उपलब्ध कराने के साथ-साथ विभिन्न उपकरण भी आसानी से उपलब्ध कराये जाने की योजना को अमलीजामा पहनाने का कार्य चल रहा है. यदि कोई व्यक्ति जम्मू कश्मीर की विशेष ब्रांडिंग जैसे विषय पर फ़िल्में बनाता है. तो उसे निर्माण में होने वाले खर्च का 50 फीसदी यह पांच करोड़ रुपये तक की आर्थिक सहायता मुहैया कराने का प्रावधान जम्मू कश्मीर फिल्म नीति-2021 में है. ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ जैसे विषयों सहित बच्चों व महिला सशक्तिकरण कैसे विषयों पर बनने वाली फिल्मों को भी सब्सिडी प्रदान की जा रही है. पुरस्कृत फिल्मकारों को भी विशेष सब्सिडी प्रदान करने की योजना पर कार्य राज्य सरकार कार्य कर रही है.

जम्मू कश्मीर में फिल्म निर्माण को लेकर राज्य और केंद्र सरकार किस तरह सजग है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार ने फिल्म उद्योग को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2026 तक पांच सौ करोड़ रुपये का बजट रखा है. राज्य सरकार के द्वारा क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के निर्माण में छूट प्रदान की जा रही है. फिल्म सिटी से लेकर स्टूडियो के निर्माण में भी आर्थिक सहायता मिल रही है. बंद पड़े सिनेमाघरों का पुनरुद्धार किया जा रहा है. मौजूदा सिनेमाहाल को अपग्रेड किया जा रहा है. नए मल्टीप्लेक्स और सिनेमा हाल के निर्माण करने को बढ़ावा दिया जा रहा है. और तो और जम्मू कश्मीर फिल्म आर्काइव का गठन किये जाने का का कार्य किया जा रहा है, जिससे फिल्मों का डेटाबेस तैयार हो. साथ ही, संबंधित पोर्टल पर राज्य में शूट की गई फिल्मों की जानकारी भी सार्वजानिक तौर पर उपलब्ध कराया जा रहा है. कुछ वर्ष पूर्व उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के मुंबई दौरे में फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के साथ विचार-विमर्श और सुझाव के बाद जम्मू कश्मीर में फिल्म पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए जम्मू कश्मीर फिल्म नीति-2021 तैयार की गई थी.

साठ के दशक से लेकर आज तक दुनिया भर के फिल्मकारों को जम्मू कश्मीर लुभा रहा है. शम्मी कपूर और नंदा का रोमांस हो या शाहरुख़ खान व कैटरीन कैफ की जोड़ी, दुनिया भर के लोगों ने बड़े परदे पर जम्मू-कश्मीर की वादियों में ये हसीन दृश्य देखे. वर्ष 1960 के दशक में ‘कश्मीर की कली’, ‘जब-जब फूल खिले’, ‘हिमालय की गोद में’, ‘जानवर’ जैसी फिल्मों की शूटिंग श्रीनगर और गुलमर्ग में हुई थी. 1973 में आई सुपरहिट फिल्म ‘बॉबी’ की शूटिंग गुलमर्ग और पहलगाम में हुई थी. ‘रॉकस्टार’, ‘हाइवे’, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘राजी’, ‘ये जवानी, ये जवानी’ आदि की शूटिंग भी राज्य के विभिन्न लोकेशन पर हुई है.

वर्ष 1970 और 1980 के दशक में अंतरराष्ट्रीय फिल्मकारों का भी कश्मीर ने मन मोहा और 1983 में बिल मूरे की फिल्म ‘रोजर्स एज’ और ब्रिटिश फिल्म ‘द क्लाइम्ब’ की शूटिंग 1986 में हुई. ‘राइडिंग सोलो टू द टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड’, लिविंग इन इमर्जेन्सी, हाइयेस्ट पास जैसी अंतरराष्ट्रीय स्तर की डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की शूटिंग भी घाटी के विभिन्न इलाकों में हुई. जर्मनी की फिल्म ‘एस्केप फ्रॉम तिब्बत’, ब्राजील की फिल्म ‘बॉलीवुड ड्रीम’, रूस की फिल्म ‘द फॉल’ की शूटिंग भी जम्मू कश्मीर में हुई और यहाँ के लोकेशन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहे गए.

जम्मू कश्मीर में अगस्त, 2019 में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद आतंकी हिंसा पर लगाम लगने के साथ कश्मीर में शांति और विकास ने भी रफ़्तार पकड़ी है. कश्मीर में जंगल, दरिया, झीलें, पहाड़ और बाग़ सबको आकर्षित करते हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विश्वास है कि पर्यटन के विभिन्न क्षेत्रों के सकारात्मक प्रभाव होते हैं. यह रोजगार सृजन का बढ़ा माध्यम भी है. ऐसे में जम्मू कश्मीर पर्यटन के साथ-साथ फिल्म उद्योग के लिए नया इतिहास लिख रहा है. जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा एक आलेख में लिखते हैं कि तीसरे टूरिज्म वर्किंग ग्रुप की इस बैठक में प्रधानमंत्री के संकल्पों और सपनों का साहस था. सपनों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उसकी अभिव्यक्ति ही जागृति बन जाती है. उनके मुताबिक, ’आज पूरा प्रशासन और करीब 460 सार्वजानिक सेवाएं मोबाइल पर सहजता से उपलब्ध है. यह परिवर्तन नागरिकों को बड़े सपने देखने के लिए प्रेरित कर रहा है. जी-20 की बैठक के दौरान भी इस डिजिटल क्रांति को महसूस किया गया, जहाँ इंटरनेट मीडिया पर छाये फोटो और वीडियो के माध्यम से जीवन सुगमता की नई चेतना सहज रूप में परिलक्षित हो रही थीं. जाहिर सी बात है कि विकास की नई राह के कारण जम्मू कश्मीर आज देश दुनिया का सबसे लोकप्रिय फिल्म स्थल बन रहा है और राज्य के विभिन्न स्थान फिल्मकारों को आकर्षित कर आमंत्रित कर रहे हैं.

जम्मू कश्मीर फिल्म नीति-2021 के तहत ऑनलाइन आवेदन करने पर फिल्म शूटिंग की मंजूरी दो से चार हफ़्तों में फिल्मकारों को मिल रही है और आर्थिक मदद के साथ-साथ संसाधन भी मुहैया कराये जा रहे हैं. यही कारण है कि उपराज्यपाल मनोज सिन्हा कहते हैं, “लगभग चार दशक के बाद एक बार फिर से जम्मू कश्मीर और बॉलीवुड के रिश्ते को फिर से बहाल किया गया है. वर्ष 2021 में फिल्म क्षेत्र से संबंधित निवेश को ज्यादा आकर्षित करने के साथ ही जम्मू कश्मीर को दुनिया का सबसे लोकप्रिय फिल्म शूटिंग स्थल बना है.” वहीं, केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री जी. किशन रेड्डी का कहना है कि कश्मीर समेत पूरे देश में फिल्म निर्माताओं के लिए हर तरह के शूटिंग स्थल हैं. जम्मू कश्मीर में देश का नंबर एक फिल्म पर्यटन स्थल बनने की पूरी सम्भावना है. देश की सर्वश्रेष्ठ रामोजी फिल्म सिटी मेरे गृह प्रदेश तेलंगाना में है और जम्मू कश्मीर के हर पर्यटनस्थल पर एक फिल्म सिटी होने की इच्छा उनकी है. प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह का भी मानना है कि कश्मीर में बर्फ से ढके पहाड़ और खूबसूरत वादियां सब कुछ हैं. हालात में बदलाव के साथ ही कश्मीर घाटी एक बार फिर देश-विदेश के फिल्म निर्माताओं को अपनी तरफ आकर्षित कर रही है. फिल्म जगत और कश्मीर का जो संबंध टूटा है, जो फिर से मजबूत और जीवंत बनाने का मौका है.

जी-20 देशों की बैठक के दौरान जम्मू कश्मीर में फिल्म निर्माण को लेकर काफी बातचीत हुई और यह संदेश प्यूरी दुनिया को दी गई कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्मकार राज्य के विभिन्न लोकेशन पर शूटिंग करें. दक्षिण भारतीय फिल्म सिनेमा के सुपर स्टार और नाटु-नाटु गीत से पूरी दुनिया में छाये रामचरण ने भी कहा कि कश्मीर ऐसी खूबसूरत जगह है जिसे आसानी से बयां नहीं किया जा सकता है. यह किसी को भी मोह लेता है और यहाँ खिंचा चला आता है. कश्मीर हमेशा से ही सभी को अपनी तरफ आकर्षित करता आया है. मेरे पिता ने गुलमर्ग और सोनमर्ग में कई फिल्मों की शूटिंग की है. यहाँ मैंने खुद अपनी एक फिल्म की शूटिंग में हिस्सा लिया है. आख़िरी बार 2016 में फिल्म शूटिंग माँ लिया है. वह शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर में हुई थी.

जी-20 सम्मलेन में भारत के जी-20  शेरपा अमिताभ कांत ने भी कहा कि कश्मीर फिल्म शूटिंग के लिहाज से दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान है. राज्य में सभी के लिए कुछ न कुछ जरूर है और रोमांटिक फिल्मों की शूटिंग के लिए कश्मीर से बढ़कर कोई दूसरी जगह नहीं है. वहीं, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में सचिव अपूर्व चंद्रा ने कहा कि कश्मीर में बीते कुछ समय के दौरान 400 फिल्मों, टीवी सीरियल और विज्ञापनों की शूटिंग की अनुमति दी गई है. यह प्रो-एक्टिव इकोसिस्टम के जरिये संभव हो पाया है. संबंधित अधिकारी फिल्मों की शूटिंग के लिए संबंधित लोगों को आवश्यक मदद प्रदान करने के अलावा अंतरराष्ट्रीय फिल्म यूनिटों के लिए वीजा संबंधी औपचारिकताओं में भी सहयोग करते हैं.

जम्मू कश्मीर सूचना विभाग के निदेशक मिंगा शेरपा ने भी जी-20 सम्मलेन के दौरान विदेशी मेहमानों को जम्मू कश्मीर की खूबसूरती विरासत और यहाँ पर फिल्म प्रोडक्शन की संभावनाओं से अवगत कराया था. उन्होंने बताया था कि जम्मू कश्मीर सरकार ने फिल्मों की शूटिंग के लिए विशेष स्थल विकसित किये हैं. राज्य सरकार ने राज्य के 300 ऐसे स्थलों की सूची सार्वजानिक की है.प्रशासन ने जम्मू कश्मीर में फिल्मों की शूटिंग की अनुमति देने के लिए सिंगल विंडो सिस्टम की व्यवस्था की है. इससे फिल्म निर्माताओं को अलग-अलग विभागों से इजाजत लेने के लिए नहीं भटकना पड़ता। उन्होंने बताया कि जम्मू कश्मीर में फिल्म शूटिंग के लिए अपार संभावनाएं हैं. यहाँ की पहाड़ियां, जंगल और यहाँ की झीलों के इर्द-गिर्द फिल्म शूटिंग की संभावनाएं हैं.

बहरहाल, जम्मू कश्मीर में जिस तरह चौतरफा विकास राज्य सरकार और केंद्र सरकार के द्वारा किया जा  रहा है, और आतंकवाद व भ्रष्टाचार पर लगाम लगाया जा रहा है, ऐसे में यह भारत के मानचित्र की नई तस्वीर सामने लाने में सक्षम हो रहा है. गुलमर्ग, पहलगाम और सोनमर्ग की लोकेशन दुनियाभर में चर्चित हैं पर प्रदेश सरकार नए ऐसे स्थलों का विकास कर रही है. यदि राज्य के हालत बेहतर होते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब फिल्म शूटिंग से लेकर फिल्म निर्माण तक के लिए यह दुनिया भर के फिल्मकारों का आश्रय स्थल के रूप में सामने आएगा.

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं और डिजिटल मीडिया कोर्स के समन्वयक हैं)


Celebrating 100th Year of Journalism in Jammu & Kashmir

Celebrating 100th Year of Journalism in Jammu & Kashmir

Sakshi Chaurasia & Dr. Vinit Utpal
Jammu and Kashmir is celebrating 100th year of Journalism. On 24th June, 1924, was the day when the first weekly newspaper ‘Ranbir’ in Urdu published in Jammu and Kashmir. Lala Mulk Raj Saraf established this newspaper as he is called the Father of Journalism of J&K. The meaning of ‘Ranbir’ is ‘the knight of the battlefield.’ Initially, Lala Mulk Raj Saraf had intended to title of the paper as "Pahari" and the press "Dogra Press" but finally the title of the paper was decided as ‘Ranbir’ and this is coincided with the name of the late Maharaja Ranbir Singh, son of Maharaja Gulab Singh, who was the founder of the Jammu and Kashmir State. He is also the father of Maharaja Pratap Singh.
The leading article in the sample issues was titled ‘Righteousness’ in which the significance of the word ‘Ranbir’ was highlighted. A poem was also published in that issue and this is composed by Sayed Zulfiqar Ali Nasim Razvi, who heartily supports the common cause of the Hindus and the Muslims and whatever it would say, would not be word-fencing or prolix. The aim and object of the newspaper ‘Ranbir’ was decided as to promote feelings of loyalty and sympathy between the ruler and his people as well as to publish the interesting, important and latest happenings in the state and the up-to-date main events of the world. Other objectives are to promote feelings of unity and integrity amongst different sections and various classes of the people, to channelise public opinion to beneficial purposes, to place before the ruler the genuine grievances of the people for their proper redressal and to discuss the educational, social, cultural, economic and other conditions in the State.
The Ranbir promoted various causes through news and views, including the elimination of the system of forced labor, which is reminiscent of the barbaric ages, the eradication of corruption, which is destroying many wealthy and affluent families, the elimination of terrorism against the people of the State, particularly in the removal of rural indebtedness, the development of communications technologies, and the adoption of appropriate measures.
Lala Mulk Raj Saraf was born on 8th April, 1894 in Samba and graduated from the Prince of Wales College, Jammu. Thereafter, abandoned a law course at Lahore to start his journalistic career as a sub editor of the famed nationalist newspaper, ‘Bande Matram’ under Lala Lajpat Rai. He was initiated to publish the newspaper as the intuition of social work. He made Mr. Vishav Nath Wadehra as the managing editor of the newspaper. At that time, the political and educational atmosphere was very challenging and the lay foundation of a newspaper was a herculean task and this made Saraf a great national builder. The advertisement rate of Ranbir was an anna and a half per line for the first time and an anna per line subsequently. The first issue of Ranbir contained three pages of advertisements.
The birth of Ranbir was welcomed by several people at that time as renowned story-writer Munshi Prem Chand expressed his great pleasure. The great revolutionary Lala Har Dayal sent his message from Sweden and noted it as a significant event in the history of Indian Press.
As part of his civil disobedience campaign against British India, Mahatma Gandhi started the historic march to Dandi on March 12, 1930, in defiance of the prohibition on salt. It created a huge uproar across the whole country, led to his arrest, and unexpected processions and hartals across the country, including in Jammu. The Ranbir newspaper supporting the freedom fight faced several difficulties when it was prohibited in 1930 because of what was seen to be subversive publicity in relation to Mahatma Gandhi's detention at the time. Due to its vociferous support of the demand for the state's admission to India, this daily was once more banned in June 1947. This periodical was crucial in organizing public opposition to Pakistani invasion.
Lala Mulk Raj Saraf also published the famous Urdu journal for Children named ‘Rattan’. His work extended beyond the realm of journalism; he used his position as a journalist to get access to the state's socio-political formation during and after independence. Interestingly, from January 27, 1941, the last page of the Ranbir was published in Hindi to cater to the Hindi-knowing people. This initiative was not encouraged by the public, thereafter the Hindi supplement had to be given up. From August 30, 1943, the Ranbir had begun to be published twice a week.
He promoted the prohibition of forced labor, the reduction of agricultural indebtedness, and the elimination of corruption through his means of communication, his periodical Weekly Ranbir, which subsequently developed into a daily newspaper. On March 22, 1921, Lala Mulk Raj Saraf first wrote to Maharaja Pratap Singh to request his approval to start a newspaper and a printing press. Lala Mulk obtained the state of Jammu and Kashmir's approval for the first newspaper after through a number of phases over the course of more than three years. Maharaja Pratap Singh gave rupees 100 annually while Sir Raja Hari Singh gave rupees fifty annually for these pioneer enterprises. In addition to the editorial and other features that are typically included in a weekly newspaper, the first 12-page edition also included writings by Lala Pandit Har Kishan, Hans Raj Vakil, and Sardar Budh Singh Lal Habib, Syed Zu-ul-Fikar Ali Nasim Razvi, Maulvi Mohd Zain-ul-Abdin Kohi Samahanavi, Pandit Ram Saran Das, and Dr. Barkat Ram are some of the individuals mentioned. The final day of Ranbir's operation was May 18, 1950.
(Sakshi Chaurasia is a student of P.G. Diploma in Digital Media and Dr. Vinit Utpal is the Assistant Professor at Indian Institute of Mass Communication, Jammu)

S.D. Rohmetra: Aman of Journalistic Vision

 S.D. Rohmetra: Aman of Journalistic Vision

S.D. Rohmetra is the name of the journalistic vision in Jammu Kashmir. He made a new way of journalism in the state and played a significant role in cultivating reporting, editing, and publishing the news. He had a dream to foster journalism during the early age of his life and he thought that newspapers are a medium to raise the voice of people. The goal of the publication of the newspaper was to strengthen the relationship between Jammu Kashmir and the rest of the country. He launched a weekly tabloid English daily five decades ago. On 1st January 1965, Excelsior was launched and in 1977 it became a daily newspaper this newspaper has the largest circulation in Jammu and Kashmir now. There is a long list of journalists across the country, who have either worked or written articles in Daily Excelsior.
Rohmetra's vision, comprehension of the complexity of politics, commitment to professional ethics, and admirable patriotic views and opinions changed the mood of the public in the state and the newspaper became very popular among the readers. Daily Excelsior is known for its easy language and its online edition also exists. It is said that the newspaper is maintaining a clear-cut policy of ‘no compromise on the sovereignty of the state.’ People of the state remembered him as soft-spoken, healthy relations with all political leaders as well as other persons of the state and outside the state. As Author Purian Cox mentioned in his book ‘Faith-Based Diplomacy: The Work of Prophets “…Two other meetings were with S.D. Rohmetra and Ved Bhasin, are well-known and respected senior journalists in Kashmir. S.D. Rohmetra invited me to write a series of opinion/editorial columns for the Daily Excelsior.”
S.D. Rohmetra was born in village Mulla Chak in R.S. Pura area near India-Pakistan International Border. He attended Model Academy, Jammu for his early education and St. Xavier's College in Kolkata for his later education. Initially, he was running a shop as well as publishing a tabloid. R.D. Rohmetra also joined United News of India (UNI) and in1969, he became the Bureau Chief of Jammu Kashmir. Several times, He was a part of the press team that traveled abroad with the Indian prime minister. He was associated with the agency till 1993. Rohmetra traveled to several countries such as Hague, Russia, the UK, and the US throughout his career.
Daily Excelsior has carved out a sizable niche for itself among its readers due to its thorough investigative reporting and chic visual format. A few years ago, Kamal Rohmetra remembered his father’s vision of total emotional integration with India, defending the national sovereignty and territorial integrity of the country, promoting the inflow of talent and industry into the State from the rest of the country, strengthening communal harmony in the State and providing full support to the state infighting and defeating cross-border infiltration of terrorists. Despite a serious threat to his life, S.D. Rohmetra functioned effectively to publish the newspaper.
Kamal and Neeraj wrote once that from 12 to 14 pages, the Daily Excelsior has grown to 16 to 20 pages. Its circulation has also gone up manifold and encompasses a variety of aspects of social life. They mentioned that the inspiration received from the roadmap left behind by S.D.Rohmetra. He did not limit himself as a journalist to routine news reporting or routine event commentary. By incorporating the vision, keen insight, and a determination to serve society into his journalistic philosophy, he put the “Fourth Estate" concept of the press into effect. He has a deep understanding of the nuances of J&K politics based on which all kinds of governments in power at the Centre, notwithstanding their affiliations or parameters of the coalition, invariably solicited his sane, balanced, and mature opinion on a variety of issues related to the State.
Hence, S.D. Rohmetra knows the pulse of the citizens of Jammu Kashmir as well as India. In the time of terrorism, he frequently published his newspaper in the state and stood behind the fourth pillar of democracy. His small plant as Daily Excelsior now became a big tree and real journalism flourished among the public. His dream was associated with the public and his sons are also working hard to fulfill his dream through the Daily Excelsior newspaper. He died on 5th July 2012 in Delhi.

10/01/2022

स्व-नियमन नहीं होगा तो परेशानी बढ़ेगी

स्व-नियमन नहीं होगा तो परेशानी बढ़ेगी

डॉ. विनीत उत्पल

भारतीय मीडिया यदि स्व-नियमन नहीं करेगा और अपने लिए बनाए गए गाइडलाइन का कड़ाई से पालन नहीं करेगा तो दूसरे तंत्र उसके कार्य और कार्य-पद्धति को नियंत्रित करेंगे। टीवी चैनलों के डिबेट में लगातार हेट स्पीच का प्रसारण हो रहा है और इस पर कार्यक्रम के एंकर का कोई नियंत्रण नहीं होता। समाचार चैनल के एंकर और पैनल में बैठे लोग हेट स्पीच का सहारा लेकर गाली-गलौज, मार-पीट और दर्शकों को उग्र करने का उपक्रम तक करने लगे रहते हैं। अपने कार्यक्रम के जरिये दर्शकों को उग्र करने के कारण टीवी चैनल को ‘हॉट मीडियम’ कहा गया है।
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय ने टीवी चैनलों का भड़काऊ डिबेट समाज के लिए जहर बताया। याद कीजिये इसी वर्ष जुलाई माह में देश के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने सार्वजानिक तौर पर कहा था कि मीडिया ट्रायल के कारण न्यायिक स्वतंत्रता बाधित हो रही है। मीडिया पर आए दिन इस तरह की प्रतिक्रिया केवल न्यायालय या सरकार की तरफ से ही नहीं होती, बल्कि आम नागरिक भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देता है। मीडिया की रिपोर्टिंग, डिबेट आदि के कारण आम जन में जिस तरह इसकी विश्वसनीयता कम हुई है, इसे लेकिन मीडिया को चिंतित होना होगा। डिजिटल मीडिया में हेट स्पीच को लेकर भारत सरकार ने कानून तो बनाये हैं लेकिन अभी तक टीवी न्यूज़ चैनल पर हेट स्पीच को लेकर कोई पुख्ता कानून नहीं है। हालाँकि हेट स्पीच को लेकर आईपीसी की विभिन्न धारा के तहत मामल दर्ज किया जा सकता है।
जाहिर ही बात है कि टीवी चैनल स्व-नियमन नहीं अपनाएगा तो या तो सर्वोच्च न्यायालय सरकार से संबंधित कानून बनाने के लिए कहेगी या फिर वह खुद विभिन्न मामलों में आदेश देकर समाज में मीडिया की गरिमामय उपस्थिति दर्ज कराएगी। स्व-नियमन की परंपरा 112 वर्ष पुरानी है। सन 1910 में पहली बार अमेरिका में केंसास एडिटोरियल एसोसिएशन ने अपने पत्रकारों के लिए ‘कोड ऑफ़ एथिक्स’ को स्वीकार किया था, जिसे विलियम ई. मिलर ने तैयार किया था। इसके बाद सन 1923 में पत्रकारों के समूह ‘अमेरिकन सोसाइटी ऑफ़ न्यूज़पेपर एडिटर्स’ ने स्व-नियमन को स्वीकार किया था जिसे ‘कैनन ऑफ़ जर्नलिज्म’ कहा जाता है। भारत में पहले प्रिंट मीडिया और कालांतर में टेलीविजन और डिजिटल मीडिया के लिए स्व-नियमन से जुड़ी बातों को स्वीकार किया गया लेकिन अब इसे नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है।
गौरतलब है कि नेशनल ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन (एनबीए) द्वारा तैयार किये गए आचारसंहिता के खंड एक के ‘मौलिक और बुनियादी सिद्धांत’ के मुताबिक़ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े पेशेवर पत्रकारों को यह स्वीकार करना चाहिए और समझना चाहिए कि वे जनता के विश्वास के पहरेदार हैं और इसलिए उन्हें सत्य की खोज करने और उसे सम्पूर्ण रूप से पूरी आजादी के साथ और निष्पक्षता के साथ लोगों के सामने पेश करना चाहिए। पेशेवर पत्रकारों को अपने द्वारा किए गए कामों के संबंधों में पूरी तरह जवाबदेह भी होना चाहिए।’ वहीं, नेशनल ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन (एनबीए) के नौ वर्षों तक कार्य करने के बाद अस्तित्व में आए न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैंडर्ड अथॉरिटी (एनबीडीएसए) ने कुछ वर्ष पहले कई टीवी चैनलों को कहा था कि वे कोड ऑफ़ कंडक्ट और गाइडलाइन का उल्लंघन कर रहे हैं। उस वक्त कहा गया था कि ब्रॉडकास्टर की ओर से आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है और इसे उन एंकरों के खिलाफ उपचारात्मक कार्रवाई/उपाय करना चाहिए जो प्रसारण के दौरान तटस्थ और निष्पक्ष रहने में विफल रहते हैं। इतना ही नहीं, अथॉरिटी ने सुझाव दिया था कि एंकरों को कार्यक्रम या वाद-विवाद का संचालन करने के तरीके के बारे में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि भारत में चार संस्थान, प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया, न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैंडर्ड अथॉरिटी, ब्राडकास्टिंग कंटेंट कम्प्लेंट्स कौंसिल और न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन मीडिया को नियंत्रित करते हैं। इनमें सिर्फ प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया प्रिंट मीडिया से जुड़े मामलों को देखता है और बाकी संस्थान टीवी न्यूज़ चैनलों के जुड़े मामलों की निगरानी करने के साथ-साथ वहां प्रसारण होने वाले कार्यक्रमों की शिकायतों पर कार्रवाई करता है। भले ही इन्हें संविधानिक दर्जा प्राप्त न हो लेकिन ये संस्थाएं विभिन्न मामलों के संज्ञान पर लाए जाने पर टीवी न्यूज़ चैनलों को नोटिस भेजते हैं और उनसे स्पष्टीकरण मांगते हैं। हालाँकि न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैंडर्ड अथॉरिटी को टीवी चैनलों की गलती पर जुर्माना करने का प्रावधान है।
नेशनल ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन और न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैंडर्ड अथॉरिटी के आंकड़े बताते हैं कि 2009 से लेकर 2022 तक उनके पास टीवी न्यूज़ चैनलों के 4499 शिकायतें आईं जिकी सुनवाई की गईं। वर्ष 2009 में 107, 2010 में 36, 2011 में 202, 2012 में 458, 2013 में 902, 2014 में 223, 2015 में 149, 2016 में 193, 2017 में 286, 2018 में 413, 2019 में 465, 2020 में 542, 2021 में 371 और 2022 में अभी तक 152 शिकायतें आई हैं।
सैकड़ों की संख्या में हर वर्ष टीवी न्यूज़ चैनलों के कार्यक्रम, रिपोर्टिंग और कंटेंट को लेकर शिकायत आना, यह सुनिश्चित करता है कि मीडिया तंत्र में कहीं न कही कुछ गड़बड़ है, जिसे ठीक करना आवश्यक है। ऐसे में एनबीए की आचारसंहिता में लिखी हुई यह बात याद रखनी होगी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह मौलिक सिद्धांत है कि कंटेंट यानी विषयवास्तु के मामले में मीडिया को सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए क्योंकि सेंसरशिप यानी नियंत्रण और स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक-दूसरे के जन्मजात दुश्मन हैं। ऐसे में खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए निगरानी के संस्थागत तरीके और सावधानियां ईजाद करने का जिम्मा पूरी तरह पत्रकारिता के पेशे का ही है। ये तरीके ऐसे होने चाहिए, जिनसे वह रास्ता परिभाषित हो सके, जिस पर चलकर संयम और पत्रकारीय नीतियों के उच्चतम मानकों की रचना हो सके और अपने पवित्र संवैधानिक कर्तव्य का निर्वाह करने में जो मीडिया का मार्गदर्शन कर सके।
न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन ने टेलीविजन पत्रकार को भी परिभाषित किया है और कहा है कि इसका अर्थ संपादक, निर्माता, एंकर और/अथवा किसी भी नाम से पुकारा जाने वाला कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जो प्रसारण की जाने वाले सामग्री को मंजूरी देने के लिए जिम्मेवार है। ये सभी लोग इस दायरे में शामिल होंगे और अंशकलिक संवाददाता अथवा स्ट्रिंगर भी इसमें शामिल किये जायेंगे। जाहिर है कि इन संस्थानों के नीति-निर्धारक की सोच व्यापक रही और उन्होंने स्व-नियमन के दायरे में टीवी न्यूज़ चैनल से जुड़े सभी जिम्मेदार कर्मचारियों को को शामिल किया।
बहरहाल, तमाम इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ चैनलों को बैठकर नए स्व-नियमन बनाये, समय के अनुसार नई शर्तें जोड़े, एंकर को प्रशिक्षित करे. मीडिया लोगों को संतुलित, निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ कार्यक्रम दिखाए, किसी भी विवादित सार्वजानिक मामले में किसी का पक्ष न ले, सामग्री का चयन अथवा उनकी रचना किसी भी विशेष आस्था, विचार अथवा किसी वर्ग विशेष की इच्छा पूरी करने या उसे बढ़ावा देने के लिए नहीं होना चाहिए. स्व-नियमन को व्यापक बनाये और खुद से पालन करे. हालाँकि उस पर सरकार की ओर से नियंत्रण तो लाजिमी तौर पर नहीं हो सकता, नहीं तो उसकी साख और विश्वसनीयता पर जरूर सवाल खड़ा हो जाएगा.

9/16/2022

मीडिया संस्थानों की संवेदनशीलता और पत्रकारों को आर्थिक सहायता : कोरोना के सन्दर्भ में

मीडिया संस्थानों की संवेदनशीलता और पत्रकारों को आर्थिक सहायता : कोरोना के सन्दर्भ में

डॉ. विनीत उत्पल

कोरोना काल में पत्रकार अजीब द्वंद्व में स्वास्थ्य संबंधी समाचारों को रिपोर्टिंग करते रहे हैं. जीवन और मृत्यु को नजदीक से देखते रहे हैं, दूसरों के संघर्ष को देखते रहे हैं और और खुद भी संघर्ष करते रहे हैं. वे आम जनता के दुःख-दर्द को, अस्पताल की कुव्यवस्था को, मरीजों की दिक्कतों को, ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी को, अस्पताल में न मिलने वाले बेड आदि तमाम परेशानियों को लगातार उजागर करते रहे हैं. कोरोना ने किस तरह लाखों हँसते-खेलते परिवार को उजारा और उन परिवारों पर क्या बीती, कहाँ से सहायता मिली, समाज की क्या भूमिका रही, स्वयंसेवी संस्थानों की क्या भूमिका रही, आदि को भी बखूबी पत्रकारों ने कवर किया. किसी की मौत के बाद, किस तरह से सरकार, इंश्योरेंस कंपनी, स्वयंसेवी संस्थानों ने सहायता की, इन बातों को भी मीडिया में खूब कवरेज मिला.

दूसरी ओर, अपनी बिरादरी की कहानी कहने की हिम्मत शायद ही किसी पत्रकार में नजर आई. मसलन, कोई पत्रकार अपने कर्तव्य पालन के दौरान कोरोना से संक्रमित हो जाए तो उसके इलाज की क्या व्यवस्था है, उसके परिवार में कोई संक्रमित हो जाए, तो कहाँ से सहायता मिले, किसी पत्रकार की मृत्य हो जाए तो परिवार वालों को किस तरह और कहाँ से आर्थिक सहायता मिलेगी, जहाँ वह पत्रकार कार्य कर रहा है, क्या वह संस्थान आर्थिक सहायता मुहैया करा रहा है या नहीं, संस्थानों में मानवता या मनुष्यता विद्यमान है या नहीं, आदि. की शायद ही कोई जानकारी मीडिया मी छाई. कोरोना काल में लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की स्थिति कैसी रही, सरकार और मीडिया मालिकों की नजर में पत्रकारों की स्थिति कैसी रही, इस पर विचार करना आवश्यक है.

इसी सन्दर्भ में ‘आजतक डॉट कॉम’ ने 18 मई 2020 को एक खबर प्रकाशित की थी. इस प्रकाशित खबर में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के सदस्य आनंद राणा के हवाले से कहा गया कि देश के 18 राज्य सरकारों ने पत्रकारों को फ्रंट वारियर्स घोषित किया. विभिन्न राज्य सरकारों ने हेल्थ बीमा के जरिये पत्रकारों को आर्थिक सहायता भी प्रदान की थी. इसके तहत, हरियाणा सरकार ने पांच से बीस लाख रुपये की बीमा राशि रखी. ओडिशा सरकार ने पत्रकर के निधन पर 15 लाख रुपए की आर्थिक मदद, राजस्थान सरकार ने पचास लाख रुपये तक की आर्थिक मदद की घोषणा की. यूपी सरकार की ओर से भी पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा और कोरोना से मौत पर परिवार को दस लाख रुपये की आर्थिक मदद देने की घोषणा की गई थी.

कोरोना जैसी बीमारियों से निपटने में लोगों को आर्थिक रूप से परेशानी का सामना न करना पड़े,  इसे देखते हुए सरकार ने लॉकडाउन के बाद कामकाज शुरू करने वाली सभी कंपनियों के लिए कर्मचारियों को मेडिकल इंश्‍योरेंस देना जरूरी कर दिया था और यह तय किया कि अब हर कंपनी को अपने कर्मचारियों को आवश्‍यक रूप से मेडिकल इंश्‍योरेंस देना होगा. इससे पहले संस्‍थानों को अपने कर्मचारियों को हेल्‍थ इंश्‍योरेंस कवर उपलब्‍ध कराना अन‍िवार्य नहीं था. कॉरपोरेट ग्रुप इंश्‍योरेंस पॉलिसी मुख्‍य रूप से कर्मचारी के अस्‍पताल में भर्ती होने के खर्च को कवर करती है. इसमें उसके जीवनसाथी या माता-पिता को भी कवर किया जाता है. इसके चलते बीमारी या दुर्घटना में घायल होने पर आपके इलाज का खर्च इंश्योरेंस कंपनी उठाएगी. बीमा नियामक इंश्योरेंस रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (इरडा) ने भी इस बारे में सर्कुलर जारी कर कहा कि सभी औद्योगिक और कमर्शियल प्रतिष्‍ठानों,  दफ्तरों और फैक्ट्रियों को कामकाज शुरू करने से पहले स्‍टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) को अपनाना होगा. सोशल डिस्‍टेंसिंग के नियमों का पालन करने के साथ उन्‍हें सभी कर्मचारियों को मेडिकल इंश्‍योरेंस पॉलिसी देना अनिवार्य होगा. सर्कुलर में इरडा ने बीमा कंपनियों से व्यापक हेल्‍थ पॉलिसी मुहैया कराने का सुझाव दिया था. इरडा ने कहा कि संस्‍थानों को मेडिकल इंश्‍योरेंस पॉलिसी केवल ताजा स्थितियों को देखते हुए ही नहीं देनी चाहिए बल्कि हमेशा के लिए यह व्‍यवस्‍था करनी चाहिए. उसने इंश्‍योरेंस कंपनियों को हेल्‍थ इंश्‍योरेंस पॉलिसी को इस तरह बनाने के लिए कहा, जिससे छोटे उद्यमों के बजट में भी इन्‍हें ले पाना संभव हो.

कोरोना के कारण बीमार हुए या मृत्यु के आगोश में समाये पत्रकारों ने इस बात की पोल अवश्य खोल दी कि सरकार ने तो पत्रकारों को फ्रंट वारियर्स घोषित कर दिया लेकिन मीडिया संस्थाओं ने उनके लिए क्या किया? दूसरों की जवाबदेही तय करना आसान होता है लेकिन खुद की जवाबदेही तय करना थोडा मुश्किल. कोरोना के दौर में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया की भूमिका किसी से छिपी नहीं है. दुनिया भर के पत्रकार अपनी जान की बाजी लगाकर रिपोर्टिंग करते रहे. कई पत्रकार मौत को चुनौती दी तो कई पत्रकार मौत के आगोश में समा गए. बावजूद इसके, पत्रकार अपना काम करते रहे और समाज को कोरोना के प्रति सजग करते रहे. और जब बीमार हुए तो न तो उन्हें आसानी से बेड मिला और न ही काल के गाल में समाने पर उनके परिवार वालों को कोई आर्थिक सहायता देने वाला उनका संस्थान ही मिला.

कोरोना काल में भारत के मुट्ठी भर मीडिया संस्थान ही अपने पत्रकारों और उनके परिवार की सहायता के लिए खुलकर सामने आये. उन्होंने सार्वजानिक तौर पर घोषणा की कि वे इस विपरीत परिस्थिति में अपने सभी कर्मचारियों के साथ हैं. किसी कर्मचारी के बीमार पड़ने से लेकर उनके निधन के बाद भी संस्थान उनके परिवार के साथ है. उनके परिवार के रहने-खाने से लेकर बच्चों की पढ़ाई तक का भार संस्थान वहन करेगा. सोशल मीडिया से लेकर तमाम मीडिया प्लेटफार्म पर जिन मीडिया संस्थानों के इस कदम को सराहा गया, वे हैं दैनिक भास्कर समूह, लोकमत मीडिया समूह और रिलायंस इंडस्ट्रीज.

दैनिक भास्कर समूह की ओर से सुधीर अग्रवाल, गिरीश अग्रवाल और पवन अग्रवाल के नाम से जो पत्र अपने कर्मचारियों के बीच जारी किया गया, उसमें कहा गया कि पिछले कुछ समय में स्कर परिवार के कुछ साथी इस महामारी की वजह से अब हमारे बीच नहीं हैं. उनके निधन से उनके परिवार और भास्कर परिवार में जो रिक्तता आई है, उसे भरना संभव नहीं है. भास्कर समूह के मालिक ने यह घोषणा की कि कोरोना की वजह से जो साथी हमारे बीच नहीं रहे हैं, उनके परिजनों को निम्न सहायता राशि उपलब्ध होगी-

1.       भास्कर परिवार ने निर्णय लिया है कि दिवंगत साथी की मासिक सैलरी की राशि या 30,000 रुपए प्रति माह (इनमें से जो भी कम हो), उनके परिजनों को अगले एक साल तक मिलती रहेगी. यह बेनिफिट कंपनी के द्वारा उपलब्ध कराया जायेगा.

2.       जीटीएलआई इंश्योरेंस, जिसमें इंश्योरेंस कंपनी की और से लगभग 48 महीने के सैलरी के बराबर राशि मिलेगी.

3.       बिरिवमेंट फंड से लगभग सात लाख रुपए, जिसमें भास्कर के साथी व कंपनी मिलकर कंट्रीब्यूट करते हैं.

4.       पीएफ (भविष्य निधि) की राशि. इसके अलावा, ईडीएलआई के तहत 35 महीने तक की बेसिक सैलरी (अधिकतम सात लाख रुपए तक) मिलती है.

5.       ग्रेच्युटी की राशि.

6.       फुल एंड फाइनल सेटेलमेंट की राशि.

वहीं,  लोकमत मीडिया प्राइवेट कंपनी के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर और एडिटोरियल डायरेक्टर करण दर्डा ने अपने सभी कर्मचारियों को लिखा कि

1.       यदि किसी की मृत्यु कोविड के करण हुई है तो उनके परिवार वालों को दस लाख रुपये तक की रकम महैया कराई जायेगी.

2.       साथ ही, अगले दो वर्ष तक के लिए संस्थान ने अपने वरिष्ठ कर्मचारियों को उनके परिवार वालों को सपोर्ट करने की जिम्मेदारी सौंपी है.

3.       कोविड-19 के लिए अपने कर्मचारियों को सपोर्ट कंपनी के द्वार्रा संचालित लोकमत केयर्स (कोविड असिस्टेंट रिलीफ एंड सपोर्ट) करेगा.  

कोविड-19 की आक्रामकता को देखते हुए रिलायंस इंडस्ट्रीज (आरआईएल) ने अपने कर्मचारियों के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करने की घोषणा की. इसके तहत,

1.       यदि किसी कर्मचारी की मृत्यु कोरोना से होती है तो उनके परिवार वालों को पांच वर्षों तक वेतन दिया जाएगा.

2.       साथ ही ‘रिलायंस सपोर्ट एंड वेलफेयर स्कीम’ के तहत उनके बच्चों को स्नातक करने तक की शिक्षा, हॉस्टल आदि में रहने का खर्च, पुस्तकें आदि भी दी जायेगी.

3.       यदि किसी को आवश्यकता पड़ी तो तीन महीने के ब्याज मुक्त एडवांस सैलरी भी मुहैया कराई जायेगी.

4.       साथ ही, उनके पति/पत्नी, माता-पिता और बच्चों को अस्पताल में इलाज के लिए सौ फीसदी प्रीमियम का भुगतान करने की बात भी कही गई.

5.       यदि कोई कर्मचारी या उसके परिवार में किसी को कोरोना हो जाता है तो उसके शारीरिक या मानसिक रिकवरी करने तक विशेष अवकाश प्रदान किया जायेगा.

6.       करीब 10 लाख रुपये तक प्रभावित कर्मचारियों के परिवारों को दिया जायेगा.

गौरतलब है कि रिलायंस इंडस्ट्रीज (आरआईएल) के पास नेटवर्क18 मीडिया एंड इन्वेस्टमेंट लिमिटेड का मालिकाना हक़ है. यह कंपनी टीवी 18 ब्रॉडकास्ट, वेब 18 सॉफ्टवेयर सर्विसेज, नेटवर्क18 पब्लिशिंग, न्यूज़18, ईटीवी, सीएनबीसी चैनल के आलावा फोर्ब्स इंडिया, ओवरड्राइव जैसी पत्रिका, फर्स्टपोस्ट और मनीकंट्रोल जैसी वेबसाइट भी संचालित करती हैं. ऐसे में रिलायंस इंडस्ट्रीज (आरआईएल) के द्वारा कोरोना काल को लेकर की गई तमाम घोषणा वहां कार्यरत सभी पत्रकारों पर भी लागू होती है. जाहिर-सी बात है कि इन संस्थानों के आगे आने से सभी कर्मचारियों के बीच मनोबल बढ़ा और उन्होंने जमकर काम किया. इससे कोरोना काल में भी इन कंपनियों ने अच्छी तरक्की की.

ऐसा नहीं हैं कि इन तीनों संस्थानों ने ही अपने कर्मचारियों के लिए आर्थिक सहायता की पैकेज की घोषणा की. मनीकंट्रोल डॉट कॉम में 13 मई, 2021 को प्रकाशित समाचार के मुताबिक तमाम गैर-मीडिया कंपनियां अपनी एचआर पालिसी में बदलाव कर रही हैं.  टीसीएस ने अपने कर्मचारियों को आश्वासन दिया कि यदि कोविड-19 से किसी का निधन होता है तो उनके परिवार वालों को 23 लाख रुपये तक की रकम दी जायेगी, मुथुट फाइनेंस ने भी अपने कर्मचारियों को 24 महीने का मासिक वेतन उनके आश्रितों को देने की बात कही. एचसीएल टेक्नोलॉजी के बारे में टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने खबर प्रकाशित की कि 30 लाख रुपये की बीमा, सात लाख रुपये कर्मचारियों का जमा से जुड़ा बीमा और मृतक कर्मचारियों के वार्षिक वेतन के बराबर राशि दी जायेगी. टाटा स्टील ने भी कोविड-19 से पीड़ित कर्मचारियों को उनके अवकाश ग्रहण करने की उम्र यानी 60 वर्ष तक मेडिकल और आवासीय सुविधाएँ उनके परिवार वालों को देने की घोषणा की. उनके बच्चों की शिक्षा खर्च वहन करने की बात भी कही. गिलास बनाने वाली कंपनी बोरोसिल, ओवाईओ, मारुति सुजुकी, लार्सन एंड टुब्रो, सोनालिका ट्रैक्टर जैसी कंपनियों ने भी अपने कर्मचारियों को भरपूर सहायता प्रदान की.

ऐसे में जब तमाम संस्थाएं अपने कर्मचारियों के स्वास्थ्य और उनके परिवार को लेकर चिंताएं जाहिर कर रही हैं तो फिर मीडिया संस्थानों की चुप्पी लोकतंत्र के लिए घातक है. माना जा रहा है कि भारत में तीन सौ से अधिक पत्रकारों की मौत कोरोना के कारण हुई. बावजूद इसके उनके स्वास्थ्य, उनके परिवार और उनके कार्य करने के तरीके पर अधिकतर मीडिया संस्थाओं ने कोई सुध नहीं ली. ‘वर्क फ्रॉम होम’ के तरीके अपनाए तो गए लेकिन कहीं सैलरी कटौती, तो कहीं कर्मचारियों का निष्कासन मीडिया हाउस में चलता रहा. ‘वर्क फ्रॉम होम’ के नाम पर कार्य करने की अवधि में इजाफा कर दिया गया. सुचारू रूप से पत्रकारों के घरों में इंटरनेट चले, इसकी व्यवस्था भी मीडिया संस्थानों ने नहीं की. तमाम छोटे-बड़े समाचार पत्रों का प्रकाशन भी बंद हुआ.

कोरोना के दूसरी लहर ने पत्रकारों की एक और नाजुक स्थिति को सामने लाया, जब वे अपने सोशल मीडिया के माध्यम से अस्पताल के बेड से लेकर ऑक्सीजन की लीड तक लोगों को मुहैया करा रहे थे. तम राजनीतिक दलों के नेता और मंत्री भी इस मुहीम में जुड़े थे. लेकिन सवाल यह है कि यदि अस्पताल में बेड नहीं था तो फिर मंत्री की सिफारिश से बेड कैसे मिल जाता था. जाहिर-सी बात है कि स्वास्थ्य सेवा प्रबंधन में कहीं न कही खामियां तो थीं लेकिन सिस्टम की इन खामियों की ओर शायद ही पत्रकारों ने उजागर किया. उन्होंने जितनी ताकत लीड खोजने में की, यदि उतनी ताकत मेडिकल सिस्टम को ठीक करने में लगाते तो देश की तस्वीर कुछ और होती.  यही करना है कि इसका खामियाजा आम लोगों के साथ-साथ मीडियाकर्मियों को भी भुगतना पड़ा 

बहरहाल, यदि गैर-मीडिया कंपनी अपने कर्मचारियों को सुविधा मुहैया करा सकती है, उनके परिवार के लिए पैकेज की घोषणा कर सकती है तो मीडिया घराने क्यों नहीं यह कदम उठा सकते हैं. तमाम पत्रकारों, संपादकों, मीडिया मालिकों के साथ सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जो पत्रकार अपनी जान की बाजी गंवाकर आम लोगों तक सूचनाएं और जानकारियां पहुंचा रहे हैं. उनके लिए कुछ सुनिश्चित कदम उठायें जाएँ. उन्हें स्वास्थ्य बीमा सहित कोरोना से जान गंवाने पर उनके परिवार को आर्थिक सुविधा मुहैया कराई जाय. उनके बच्चों को पढ़ाई की सुविधा मिले. तभी लोकतंत्र का चौथा खम्भा अपनी भूमिका सही ढंग से निभा सकेगा.

संदर्भ:

https://fortune.com/2021/05/26/corporate-india-covid-compensation-tata-oyo-borsi/

https://www.moneycontrol.com/news/business/covid-19-companies-step-up-to-offer-financial-assistance-to-families-of-deceased-employees-6885651.html\

https://www.livemint.com/companies/news/reliance-industries-to-give-5-years-of-salary-to-families-of-employees-who-died-of-covid-11622690754529.html

https://www.aajtak.in/india/news/story/coronavirus-many-journalists-died-media-persons-death-frontline-workers-vaccination-delay-covid19-1256848-2021-05-18